पं. आशाधर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व
उनकी प्रतिभा केवल जैन शास्त्रों तक ही सीमित नहीं थी, प्रत्युत अन्य भारतीय ग्रंथों का उन्होंने केवल अध्ययन ही नहीं किया था, किन्तु ‘अष्टागहृदय’, काव्यालंकार, अमरकोश जैसे ग्रंथों पर टीकाएँ भी रची थी, किन्तु खेद है कि वे टीकाएँ अब उपलब्ध नहीं है। यदि वे केवल जैन धर्म के विद्वान होते तो मालवपति अर्जुनवर्मा के राजगुरु बालसरस्वती महाकवि मदन उनके निकट काव्यशास्त्र का अध्ययन न करते। विन्ध्यवर्मा राजा के महासन्धि विग्रहिक मंत्री (परराष्ट्र सचिव) कवीश बिल्हण ने जिनकी एक श्लोक द्वारा ‘सरस्वती पुत्र’ आदि के रूप में प्रशंसा की है। उन्हें महाविद्वान यतिपति मदनर्कीित ने ‘प्रज्ञापुंज’ और उदयसेन मुनि ने ‘नयविश्वचक्षु’, ‘काव्यामृतौद्य रसपान सुतृप्त गात्र’ तथा ‘कलिकालिदास’ जैसी विशेषणों से अभिनंदन किया है।
यह सब सम्मान उनकी उदारता और विशाल विद्वत्ता के कारण प्राप्त हुआ है। उस समय उनके पास अनेक मुनियों, विद्वानों भट्टारकों ने अध्ययन किया है। वादीन्द्र विशालर्कीित को उन्होंने न्यायशास्त्र और भट्टारक विनयचन्द्र को धर्मशास्त्र पढ़ाया था और अनेक व्यक्तियों को विद्याध्यान कराकर उनके ज्ञान का विकास किया। उनकी कृतियों का ध्यान से समीक्षण करने पर उनके विशाल पाण्डित्य का सहज ही पता चल जाता है। उनकी अनगार धर्मामृत की टीका इस बात की प्रतीक है। उससे ज्ञात होता है कि पण्डित आशाधरजी ने उपलब्ध जैन—जैनेतर साहित्य का गहरा अध्ययन किया था। वे अपने समय के उद्भट विद्वान थे और उनका व्यक्तित्व महान था और राज्यमान विद्वान थे।
जन्मभूमि और परिचय—
धारानगरी और नालछा—
पं. आशाधर का जन्म माण्डलगढ़ (मेवाड़) में हुआ। वहाँ वे अपने जीवन के दस—पन्द्रह वर्ष ही बिता पाये थे सन् ११९२ (वि. सं. १२४९) में शहाबुद्दीन गौरी ने पृथ्वीराज को वैâदकर दिल्ली को अपनी राजधानी बनाया और अजमेर पर अधिकार किया, तब गौरी के आक्रमणों से संत्रस्त हो और चारित्र की रक्षा के लिए वे सपरिवार बहुत लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी बनाया और अजमेर पर अधिकार किया, तब गौरी के आक्रमणों से संत्रस्त हो और चारित्र की रक्षा के लिए वे सपरिवार बहुत लोगों के साथ मालवदेश की राजधानी धारा में आ बसे थे। उस समय धारानगरी मालवराज्य की राजधानी थी और मालवराज्य का शासक परमार वंशी नरेश विन्ध्य वर्मा था। उस समय धारानगरी विद्या को केन्द्र बनी हुई थी। वहाँ भोजदेव, विन्ध्यवर्मा, अर्जुनवर्मा जैसे विद्वान और विद्वानों का सम्मान करने वाले राजा एक के बाद एक हो रहे थे। महाकवि मदन की ‘परिजात—मंजरी’ के अनुसार उस समय विशाल धारानगरी में ८४ चौराहे थे और वहाँ नाना दिशाओं से आये हुए विविध विद्याओं के पण्डितों और कला कोविदों की भीड़ लगी रती थी। वहाँ ‘शारदा—सदन’ नामक एक दूर—दूर तक ख्याति प्राप्त विद्यापीठ था। स्वयं आशाधरजी ने भी धारा में ही व्याकरण और न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। ऐसी धारा को भी जिस पर हर एक विद्वान को मोह होना चाहिए पण्डित आशाधर ने जैन धर्म के ज्ञान को लुप्त होते देखकर उसके उदय के लिए छोड़ दिया और अपनी सारा जीवन इसी कार्य में लगा दिया। उन्होंने ग्रंथ—प्रशस्तियों में अपना परिचय देते हुए लिखा है कि ‘जिनधर्मोदयार्थे यो नलकच्छपुरेऽवसत्’ अर्थात् जो जैन धर्म के उदय के लिए धारानगरी को छोड़कर नलकच्छपुर (नालच्छा) में आकर रहने लगा।
वे लगभग पैंतीस वर्ष के लम्बे समय तक नालछा में ही रहे और वहाँ के नेमिचैत्यालय में एक निष्ठता से जैन साहित्य की सेवा और ज्ञान की उपासना करते रहे। उनके प्राय: सभी ग्रंथों की रचना नालछा के उक्त नेमि चैत्यालय में ही हुई है और वहीं वे अध्ययन—अध्यापन का कार्य करते रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं, जो उन्हें धारा के ‘शारदा—सदन’ के अनुकरण पर ही जैन धर्म के उदय की कामना से ‘श्रावक—संकुल’ नालछे के उक्त चैत्यालय को अपना विद्यालय बनाने की भावना उत्पन्न हुई हो। जैन धर्म के उद्धार की भावना उनमें प्रबल थी।
ऐसा मालूम होता है कि ग्रहस्थ रहकर भी कम से कम ‘जिनसहस्रनाम’ की रचना के समय वे संसार देह—भोगों से उदासीन हो गए थे और उनका मोहावेश शिथिल हो गया था। हो सकता है कि उन्होंने कोई ग्रहस्थ की उच्च प्रतिमा धारण कर ली हो, परन्तु मुनि वेश तो उन्होंने धारण नहीं किया था, यह निश्चय है। हमारी समझ में मुनि होकर इतना उपकार शायद ही कर सकते जितना कि ग्रहस्थ विद्वान थे और वे अंतिम जीवन तक संभवत: ग्रहस्थ श्रावक ही रहे हैं।
रचनाएँ—
आपकी २० रचनाओं का उल्लेख मिलता है। उनमें से संभवत: ७ रचनाएँ प्राप्त नहीं हुई, जिनकी खोज करने की आवश्यकता है शेष १३ रचनाओं में से ५ रचनाओं में रचना काल पाया जाता है। ८ रचनाओं में रचना काल नहीं दिया।
१. प्रमेयरत्नाकार — इसे ग्रंथकार ने स्याद्वाद विद्या का निर्मल प्रसाद बतलाया है। यह गद्य—पद्यमय ग्रंथ होगा, जो अप्राप्त है।
२. भरतेश्वरभ्युदय —(सिद्वयंक) इसके प्रत्येक सर्ग के अंतिम व्रत में ‘सिद्धि’ शब्द आया है, स्वोपज्ञ टीका सहित है उसमें तीर्थंकर ऋषभदेव के पुत्र भरत के अभ्युदय का वर्णन है। यह काव्य ग्रंथ भी अप्राप्त है।
३. ज्ञानदीपिका — यह सागर—अनगार धर्मामृत की स्वोपज्ञ पंजिका है, जो अब अप्राप्य हो गई है। भट्टारक यश:र्कीित के केशरिया जी के सरस्वती भवन की सूची में ‘धर्मामृतपंजिका’ आशाधर की उपलब्ध है, जो सन् १५४१ की लिखी हुई है। संभव है यह वहीं हो।
४. राजीमती विप्रलंभ — यह एक खण्ड काव्य है, स्पोपज्ञ टीका सहित है। इसमें राजीमती (राजुल) और नेमिनाथ के वियोग का कथन है, यह भी अप्राप्त है।
५. अध्यात्म रहस्य (वि. सं. १३०० के पूर्व) — पं. आशाधरजी ने अपने पिता के आदेश से इस ग्रंथ की रचना की। साथ ही यह भी बताया है कि यह शास्त्र, प्रसन्न, गंभीर और आरब्ध योगियों के लिए प्रिय वस्तु है। योग सम्बद्ध रहने के कारण इसका दूसरानाम योगीद्दीपन भी है। कवि ने लिखा है—
शास्त्रं प्रसन्न—गंभीर—प्रियमारब्धयोगिनाम्।।’’
यह अध्यात्म विषय का ग्रंथ है। इसमें आत्मा—परमात्मा और दोनों के संबंधों की यथार्थ वस्तुस्थिति का रहस्य या मर्म उद्घाटित किया गया है। आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी ने आत्मा के बहिरात्मा, अंतरात्मा और परमात्मा में तीन भेद किए है। पं. आशाधरजी ने स्वात्मा, शुद्धस्वात्मा और पर ब्रह्मा ये तीन भेद किए हैं और उनके स्वरूप तथा प्राप्ति आदि का कथन किया है।
६. मूलाराधना टीका — यह शिवार्य के प्राकृत भगवती आराधना की टीका है। जो कुछ समय पहले सोलापुर से अपराजित सूरि और अमितगति की टीकाओं के साथ प्रकाशित हो चुकी है। जिस प्रति पर से वह प्रकाशित हुई है उसके कुछ पृष्ठ खो गए हैं, जिनमें सम्पूर्ण प्रशस्ति रही होगी।
७. इष्टोपदेश टीका — यह आचार्य देवननन्दी (पूज्यपाद) के प्रसिद्ध ग्रंथ की टीका है, जो सागरचन्द्र के शिष्य मुनि विनयचन्द्र के अनुरोध से बनाई थी और वह हिन्दी टीका के साथ वीर सेवा मंदिर से प्रकाशित हो चुकी है।
८. भूपाल चतुविंशति टीका — यह भूपाल कवि के चतुविंशति स्तोत्र की टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के लिए बनाई गई थी, और बम्बई से प्रकाशित हो चुकी है।
९. आराधनासार टीका — ये देवसेन के प्राकृत आराधनासार की ७ पत्रात्मक और सं. १५८१ को लिखी हुई संक्षिप्त टीका है, जो उक्त विनयचन्द्र मुनि के अनुरोध से रची गई है और आमेर के शास्त्र भण्डार में उपलब्ध है।
१०. अमरकोश टीका — यह अमरिंसह के प्रसिद्ध कोष का टीका है। जो अप्राप्तय है।
११. क्रियाकलाप — इन्होंने यह ग्रंथ प्रभाचन्द्राचार्य के क्रियाकलाप के समान और स्वतंत्र लिखा है। इस ग्रंथ की एक नई लिखी हुई अशुद्ध प्रति बम्बई के ऐलक पन्नालाल दिगम्बर जैन सरस्वती भवन बम्बई में उपलब्ध आशाधर के ही अन्य ग्रंथ जिनयज्ञकल्प (वि. सं. १२८५) में मिलता है। इससे स्पष्ट है कि प्रस्तुत ग्रंथ वि. सं. १२८५ के पूर्व लिखा गया है।
१२. काव्यालंकार टीका — अलंकारशास्त्र के सुप्रसिद्ध आचार्य रुद्रट के काव्यालंकार पर यह टीका लिखी गई है, जो अप्राप्य है।
१३. सहस्रनामस्वोपज्ञ विवृत्ति सहित — यह ग्रंथ अपनी स्वोपज्ञ विवृत्ति और श्रुतसागर सूरि की टीका तथा हिन्दी टीका के साथ भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हो चुका है। इस टीका की प्रति मुनि विनयचन्द्र ने लिखी है।
१४. जिनयज्ञकल्प सटीक — प्रस्तुत ग्रंथ की प्रशस्ति से ज्ञात होता है कि आशाधर ने परमारवंशी राजा देवपाल के राज्यकाल में वि. सं. १२८५ में नलकच्छपुर के नेमिनाथ चैत्यालय में ‘जिनयज्ञकल्प’ की रचना की थी, इसमें छ: अध्याय है। ग्रंथमान ९५४ श्लोक प्रमाण है।
इस ग्रंथ में जिन भगवान की प्रतिष्ठा संबंधी सभी क्रियाओं का विस्तार से वर्णन किया गया है। अत: इसका दूसना नाम ‘प्रतिष्ठासारोद्धार’ भी है। पापा साधु की प्रेरणा से इस ग्रंथ की रचना की गई थी। कल्हण ने ‘जिन यज्ञकल्प’ की प्रथम प्रति लिखी थी तथा जिनयज्ञकल्प की सूक्तियों के अनुराग से और सुन्दर कवित्व पूर्ण रचना होने के कारण इस ग्रंथ का प्रचार किया था। जिनयज्ञकलप पर परशुराम कृत टीका है और एक टिप्पणी भी है किसने लिखी यह ज्ञान नहीं हो सकता है।
आधारधरजी ने इस ग्रंथ पर स्वयं टीका लिखी है जो वर्तमान में अप्राप्त है। मूल ग्रंथ की एक प्रति जयपुर (भण्डार ८, गठरी ११) में है। अंत में लिखा है—आशाधर द्रव्ये जिनयज्ञकल्प निबंधे कल्पदीपिका नाम्नि षष्ठौध्याय:। जिससे ज्ञात होता है कि आशाधर कृत प्रस्तुत टीका का नाम ‘कल्पदीपिका’ है। जिनयज्ञकल्प प्रकाशित हो चुका है।
१५. त्रिषष्टि स्मृतिशास्त्र सटीक — इसमें तिरेसठ शलाका पुरुषों का चरित जिनसेनाचार्य के महापुराण के आधार पर अत्यन्त संक्षेप में लिखा गया है। इसे पंडित जी ने नित्य स्वाध्याय के लिए, जाजाक पण्डित की प्रेरणा से रचा था। इसकी आद्यप्रति खण्डेलवाल कुलोतपन्न धीनाक नामक श्रावक ने लिखी थी। कवि ने इस ग्रंथ की रचना वि. सं. १२९२ में समाप्त की है।
१६. नित्यमहोद्योत—यह स्नान — शास्त्र या जिनाभिषेक है। अभी कुछ ही समय पहले पण्डित पन्नालालजी सोनी द्वारा संपादित ‘अभिषेक पाठ—संग्रह’ में श्रीश्रुत सागरसूरि की संस्कृति टीका सहित प्रकाशित हो चुका है।
१७. रत्नत्रय विधान (वि. सं. १२८२) — पं. आशाधर के इस ग्रंथ का उल्लेख अनगार धर्मामृत टीका (वि. सं. १२८२) में मिलता है। ग्रंथ में रत्नत्रय विधान की पूजा और उसके माहात्म्य वर्णन किया गया है। यह ग्रंथ बहुत छोटा सा है और गद्य में लिखा गया है, कुछ पद्य भी दिए है। इसे कवि ने सलखणपुर के निवासी नागदेव की प्रेरणा से, जो परमारवंशी राजा देवपाल (साहसमल्ल) के राज्य में शुल्क विभाग में (चुंगी आदि टैक्ट के कार्य में) नियुक्त था, उसकी पत्नी के लिए बनाया था। यह ग्रंथ बम्बई के सरस्वती भवन में उपलब्ध है, कुल आठ पत्र हैं।
१८. धर्मामृतशास्त्र (वि. सं. १२८५ के पूर्व) — सर्वांगीण ग्रंहस्थ धर्म और मुनि धर्म का बताने वाला यदि कोई शास्त्र जैन समाज में है तो वह विक्रम की १३वीं शताब्दी में लिखित उक्त पं. आशाधर कृत ‘‘धर्मामृतशास्त्र’’ की पद्यात्मक कृति है। आशाधरजी ने अपने ग्रंथ जिनयज्ञकल्प (वि. सं. १२८५) में इसका उल्लेख किया है। जिससे ज्ञात होता है कि आशाधरजी ने प्रस्तुत ग्रंथ के साथ इस पर ‘ज्ञानदीपिका’ नामक स्पोपज्ञ पंजिका भी लिखी है, जो प्रकाशित हो चुकी है। धर्मामृत शास्त्र दो भागों में विभक्त है—अनगार धर्मामृत, सागार धर्मामृत।
१९. अनगार धर्मामृत — धर्मामृतशास्त्र के प्रथम भाग अनगार धर्मामृत पर स्वयं आशाधरजी ने ‘भव्यकुमुद चन्द्रिका’ (वि. सं. १३०० नाटक टीका) बनाकर ग्रंथ के महत्व को और भी स्पष्ट कर दिया है। इसमें मुनिधर्म का विस्तृत विवेचन किया गया है जो कि जिनेन्द्र भगवान के प्ररूपित आगमरूपी समुद्र में उद्धृत अपूर्व अमृत के समान है।
आशाधरजी ने शिव सुख मोक्ष का ही अभिप्राय रखकर भव्यों—मुनियों तथा देवों की तृप्ति के लिए जिन भगवान के आगम रूपी क्षीर समुद्र का मंथन करके इस धर्मामृत को उद्धृत किया है। इसमें मुनियों की नित्य और नैमित्तिक क्रियाओं का ही विस्तृत विवेचन है। अनगार धर्मामृत का हिन्दी अनुवाद भी हो चुका है। कवि ने इस ग्रंथ की रचना ९५४ श्लोकों में की है। धणचन्द्र और हरिदेव की प्रेरणा से इसकी टीका की रचना १२,२०० श्लोकों में पूर्ण की है, इसमें ९ अध्याय हैं। टीका पण्डितजी के विशाल पाण्डित्य का द्योतक है। इसके अध्ययन से उनके विशाल अध्ययन का पता चलता है।
१९.सागार धर्मामृत — आशाधरजी के ग्रंथ (वि. सं. १२९६) शास्त्र के दूसरे भाग सागार धर्मामृत में आठ अध्याय है। इस ग्रंथ की रचना आशाधरजी ने अपने पूर्ववर्ती समस्त दिगम्बर—श्वेताम्बर श्रावकाचार रूपी समुद्र का मंथन करक ही किया है। किसी भी आचार्य द्वारा र्विणत कोई भी श्रावक का कर्तव्य इनके वर्णन से छूट नहीं पाया है। अत: प्रस्तुत ग्रंथ में यथास्थान सभी तत्व समाविष्ट है।
एक अन्य कृति का विवरण प्राप्त नहीं हो सकता है।
आशाधरजी ने सोमदेव के उपासकाध्ययन, नीतिवाक्यामृत और हरिभद्रसूरि की श्रावक धर्म प्रशस्ति का भरपूर उपयोग किया है। अतिचारों की समस्त व्याख्या के लिए आप श्वेताम्बर आचार्यों के आभारी हैं। सप्त व्यसनों के अतिचारों का वर्णन सागार धर्मामृत के पूर्ववर्ती किसी ग्रंथ में नहीं पाया जाता है। श्रावक की दिनचर्या और साधक की समाधि व्यवस्था भी बहुत सुन्दर लिखी गई है। संक्षेप में आशाधर ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों द्वारा र्नििमत श्रावक धर्म के संबंधी ग्रंथों का खूब पथालोढन करके श्रावक धर्म के संबंध में सूक्ष्म से सूक्ष्म कथन आगम, युक्ति और अनुभव द्वारा किया है। वास्तव में आशाधरजी का सागर धर्मामृत श्रावकों के लिए धर्म रूपी अमृत ही है। इसके अतिरिक्त आशाधरजी ने प्रस्तुत भाग पर ‘भव्यकुमुद चंन्द्रिका’ (वि.सं. १२९६) टीका लिखकर ग्रंथ के महत्व को ओर भी स्पष्ट कर दिया है। सागार धर्मामृत का हिन्दी अनुवाद भी हो चुका है।
आशाधरजी का स्थान परमारकालीन मालवा ने निवास करने वाले महानतम सुलेखकों में शीर्ष स्थल पर आता है। आशाधरजी बड़े प्रतिभाशाली तथा बहुश्रुत विद्वान थे तथा वे अपने समय के शीर्षस्थ कवि थे। आशाधरजी दीर्घ—जीवी रहे और यही कारण था कि वे धारा के पाँच परमान नरेश—विन्ध्यवर्मा, सुभटवर्मा, अर्जुनवर्मा, देवपाल, जैतुगिदेव (जयिंसह द्वितीय) के निकट व समकालीन रहे।
मालवा के आकर आशाधरजी गहन अध्ययन से जुड़े और जैनधर्म संबंधी लेखन में गंभीरता पूर्वक लग गए। माण्डव के पास नालच्छा नामक स्थान पर उन्होंने अपना निवास बनाया। सन् १२२५ ई. पंडित आशाधरजी नालछा से सलखणपुर गए। यह नगर आशाधरजी के पिता जो परमारों के आधीन एक उल्लेखनीय प्रशासक थे, के नाम से जाना जाता था। उस समय वहाँ अनेक र्धािमक श्राकव रहते थे। मल्ह का नागदेव भी वहाँ का निवासी था, जो कालव राज्य के चुंगी आदि विभाग में कार्य करता था और यथाशक्ति धर्म का साधन भी करता था। आशाधर उस समय ग्रहस्थाचार्य थे। नागदेव की प्रेरणा से उन्होंने उसकी पत्नी के लिए ‘रत्नत्रय विधान’ की रचना की थी। उसकी प्रशस्ति में उन्होंने अपने को ‘ग्रहस्थाचार्य कुंजर’ बतलाया है।
मालवा नरेश अर्जुनवर्मदेव का भाद्रपद सुदी १५ बुधवार सं. १२७२ का लिखा हुआ दानपत्र मिला है। उसके अंत में लिखा है—‘रचितिंमद महासंधि राजा सलखण संमतेन राजगुरुणा मदनेन।’ इससे स्पष्ट है कि यह दानपत्र महासंधि विग्रहिक मंत्री राजा सलखण की सम्मति से राजगुरु मदन ने रचा। संभव है आशाधर के पिता सलखण अर्जुनवर्मा के महासन्धिविग्रहिक मंत्री बन गए हो।
पंडित आशाधर न केवल एक महान अध्येता, विद्वान तथा पंडित थे, वे अत्यन्त ही सुलेखक, कवि और उच्च स्तर के गुरु भी थे। यही कारण है कि मालवा और मालवा से अन्यत्र उनके अनेक सहयोगी व शिष्य उनका प्रशिस्तगण करते रहे। ऐसे विद्वानों में एक पण्डित महावीर थे, वे पण्डित धरसेन के शिष्य थे और इन्हीं से आशाधर ने व्याकरणशास्त्र और न्यायशास्त्र पढ़ा था। उदयसेन मुनि ने आशाधर को ‘कवि कालिदास’ की उपाधि दी थी। धरानगरी में एक बिल्हण कवीश नामक कवि हुए थे, वे बिल्हण भोजकालीन कश्मीरी पण्डित तथा विन्ध्यवर्मा के मंत्री बिल्हण से भिन्न थे। कवीश भी आशाधर के बड़े प्रशंसक थे। पण्डित देवचन्द्र नामक एक विद्वान को आशाधर ने व्याकरण शास्त्र पढ़ाया था। इसी प्रकार मुनीन्द्र सागरचन्द्र के शिष्य भट्टारक विनयचन्द्र को भी पण्डितजी ने धर्मशास्त्र का अध्ययन कराया था इसी प्रकार महाकवि मदनोपाध्याय, पण्डित जाजाक, हरदेव, महीचन्द्र अर्हद्दास, धनचन्द्र, केल्हण, धीनाक आदि कवि अथवा लेखक अपनी कृतियों के लिए पण्डित आशाधरजी के ऋणी रहे। इस प्रकार पण्डित आशाधरजी को १२वीं सदी ई. के मालवा का सर्वाधिक उल्लेखनीय व्यक्तित्व माना जा सकता है जिसने ग्रहस्थ होते हुए भी अनेक जैनाचार्यों, साधुओं और मुनियों से कई गुना अधिक जैन धर्म की सेवा की।