मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।
ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।।
वास्तव में इन तीनों योगों के द्वारा आत्मा में हलन, चलन, परिस्पन्दन होता है उसका नाम योग है वह शरीर, वचन अथवा मन के निमित्त से होता है। प्रत्येक योग के होने में दो कारण होते हैं—एक अंतरंग कारण दूसरा बहिरंग कारण।
अल्प ज्ञानियों में अंतरंग कारण कर्मों का क्षयोपशम है और केवलज्ञानियों में अंतरंग कारण कर्मों का क्षय है तथा बाह्य कारण वे नोकर्म वर्गणाएँ हैं जिनसे शरीर, वचन और मन की रचना होती है तथा जिन्हें जीव हर समय ग्रहण करता रहता है। इन तीन योगों में एकेन्द्रिय जीव के केवल काययोग होता है क्योंकि उसके वचनयोग और वचनयोग की कारणभूत सामग्री नहीं पायी जाती है। द्वीन्द्रिय से लेकर असंज्ञी तक के जीवों के काय और वचन ये दो योग होते हैं। संज्ञी जीवों के तीनों योग होते हैं फिर भी एक काल में एक जीव के एक ही योग होता है।
काय के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन-चलन होता है उसे काययोग कहते हैं। वचन के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन-चलन होता है उसे वचनयोग कहते हैं और मन के निमित्त से आत्मा के प्रदेशों में जो हलन-चलन होता है उसे मनोयोग कहते हैं। इन तीनों योगों की उत्पत्ति में वीर्यान्तराय कर्म का क्षयोपशम कारण है।
आस्रव का स्वरूप बताते हैं—
जिस प्रकार कुएं के भीतर पानी आने में झिरें कारण होती हैं, उसी प्रकार आत्मा में कर्म आने में योग कारण हैं, कर्मों के आने के द्वार को आस्रव कहते हैं।
जैसे गीले कपड़े में वायु के द्वारा आई हुई धूलि चारों तरफ से चिपक जाती है उसी तरह कषाय रूपी जल से गीला आत्मा योग के द्वारा लाई गई कर्मरज को सभी प्रदेशों से ग्रहण करता है अथवा जैसे गरम लोहे का पिंड यदि पानी में डाला जाय तो वह चारों तरफ से पानी को खीचता है उसी प्रकार कषाय से संतप्त जीव मन, वचन, काय के परिस्पंदन रूप योग ये लायी गई कर्म वर्गणाओं को सब ओर से ग्रहण करता है।
उन तीनों योगों में उनके निमित्त से परिस्पंदन हुआ, हलन-चलन हुआ, उसी को आस्रव कहा है। जैसे तीन प्रकार के रास्ते को—सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को मोक्ष का मार्ग कहा था, ऐसे ही तीन प्रकार के योग को आस्रव कहा गया है। आस्रव को आचार्यों ने द्वार की उपमा दी है। जिस प्रकार नाले आदि के मुख द्वारा सरोवर में पानी आता है उसी प्रकार योग द्वारा ही कर्म और नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण होकर उनका आत्मा से सम्बन्ध होता है इसलिये योग को आस्रव कहा है। कभी मन से कर्म आते हैं, कभी वचन से बोलते हैं तो कर्म आते हैं और कभी काय की चेष्टा से कर्म आते हैं। जैसा-जैसा हम भाव करते हैं वैसा-वैसा ही हमारा संस्कार बनता जाता है, आदत बनती जाती है। जैसा-जैसा हमारा भाव बनता है वैसी-वैसी तस्वीरें हमारे दिमागरूपी कैमरे में कैद होती चली जाती हैं और वही तस्वीरें, वही चीजें हमारी वह आदतें, वह संस्कार फिर प्रगट हो जाते हैं। हमारे वही संस्कार, वही आदतें हमारे भाव हैं अर्थात् आस्रव हैं और जो दिमाग का कैमरा तस्वीरों की फाइल इकट्ठा करता रहता है वह पुद्गल बन्ध है।
योग के निमित्त से आस्रव के भेद को बताते हैं—
हिंसा, चोरी, मैथुन अशुभ काय योग हैं। असत्य बोलना, कठोर वचन बोलना आदि अशुभ वचन योग हैं। हिंसक विचार, ईष्र्या, असूया आदि अशुभ मनोयोग हैं, इत्यादि प्रकार से अनंत अशुभ योग होते हैं।
अहिंसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि शुभ काय योग हैं। सत्य वचन, हित, मित, प्रिय वचन शुभ वचन योग हैं। िंहसक विचार, ईष्र्या, असूया, आदि अशुभ मनोयोग है, इत्यादि प्रकार से अनंत अशुभ योग होते हैं।
अिंहसा, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, आदि शुभ काय योग हैं। सत्य वचन हित, मित, प्रिय वचन शुभ वचन योग हैं। अर्हंतदेव की भक्ति, तप में रुचि, श्रुत में विनय आदि शुभ मनोयोग हैं। इत्यादि अनंत अशुभ योग से भिन्न अनंत प्रकार के ही शुभ मनोयोग हैं।
यद्यपि अध्यवसाय स्थान—जीवों के परिणाम असंख्यात लोक प्रमाण हैं फिर भी अनंतानंत पुद्गल प्रदेश रूप से बंधे हुये होने से और अनंतानंत प्रदेश वाले कर्मों के ग्रहण का कारण होने से तथा अनंतानंत जीवों की दृष्टि से तीनों योग अनंत प्रकार के हो जाते हैं। संक्षेप से इतना ही है कि शुभ परिणाम पूर्वक होने वाला योग शुभ योग है और अशुभ परिणामों से होने वाला योग अशुभ योग है।
अब प्रश्न उठता है कि पुण्य क्या है ?
तो उसका उत्तर देते हुए कहते हैं पुनात्यात्मानं पूयतेऽनेनेति वा पुण्यं।
जो आत्मा को प्रसन्न करे अथवा जिसके द्वारा आत्मा सुख साता का अनुभव करते हुये प्रसन्न रहे वह सातावेदनीय आदि पुण्य हैं। पुण्य से उल्टा पाप है, जो आत्मा को दुखी करे या जिसके द्वारा आत्मा दुख असाता का अनुभव करे वह असाता वेदनीय आदि पाप हैं।
पुन: प्रश्न हुआ कि कर्म चाहे पुण्य हों चाहे पाप रूप, दोनों ही सोने और लोहे की बेड़ी के सामन संसार में बंधन के ही कारण हैं अत: यहाँ यह भेद क्यों किया ?
तब आचार्यश्री ने बताया कि यद्यपि ये कर्म आत्मा की परतन्त्रता में कारण हैं फिर भी इष्ट फल और अनिष्ट फल के भेद से पुण्य और पाप में भी भेद हैं। इष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय आदि का कारण है; वह पुण्य है और जो अनिष्ट गति, जाति, शरीर, इन्द्रिय आदि का कारण है वह पाप है।
शिष्य ने पुन: प्रश्न किया कि भगवन! घातिया चार कर्म पाप रूप ही हैं, इनका बंध भी शुभ परिणामों से होता है पुन: यहाँ ‘शुभ: पुण्यस्य’ ऐसा क्यों कहा?
तब गुरुदेव कहते हैं यहाँ पर अघातिया कर्मों में जो पुण्य और पाप भेद हैं उनकी अपेक्षा नहीं है अथवा शुभयोग पुण्य का ही कारण है, ऐसा निश्चय नहीं करना बल्कि शुभयोग ही पुण्य का कारण है, ऐसा निश्चय करना चाहिये। इससे ज्ञात होता है कि शुभ योग पाप के आस्रव का भी हेतु हो सकता है।
शिष्य फिर प्रश्न करता है कि हे पूज्यवर! यदि शुभ पाप का और अशुभ पुण्य का भी कारण होता है तब यह सूत्र निरर्थक है ?
तब आचार्य श्री कहते हैं कि वत्स! यहाँ अनुभाग बंध की अपेक्षा कथन किया गया है क्योंकि वही सुख—दुख रूप फल में निमित्त होता है। कहा भी है—ाqवशुद्ध परिणामों से शुभ प्रकृतियों का उत्कृष्ट अनुभाग बंध होता है, जघन्य अनुभाग बंध होता है और संक्लेश से शुभ प्रकृतियों का जघन्य अनुभाग बंध होता है।
‘‘यद्यपि यहाँ उत्कृष्ट शुभ परिणाम अशुभ प्रकृतियों के जघन्य अनुभाग बंध में कारण हैं फिर भी वे बहुत से शुभ के कारण होने से ‘‘शुभ: पुण्यस्य’’ शुभ योग पुण्य का आस्रव करता है यह सूत्र निरर्थक न होकर सार्थक ही है। जैसे कि थोड़ा अपकार करने पर भी बहुत उपकार करने वाला उपकारक ही माना जाता है। इसी तरह ‘अशुभ: पापस्य’ सूत्र के अर्थ में भी समाधान कर लेना चाहिए।’’
एक उदाहरण के माध्यम से आपको पुण्य—पाप के आस्रव के बारे में —जैसे दुकान पर बिल्डिंग मैटीरियल रहता है, उसे कोई दुकान से लाकर मन्दिर में लगा देता है, कोई टॉयलेट में। मैटीरियल तो वही था लेकिन वह पुद्गल के परमाणु, वह मैटीरियल जो मन्दिर में लगा वह पुण्यास्रव का कारण हुआ और जो टॉयलेट में लगा वह पापास्रव का कारण हुआ, ऐसे ही पुद्गल के परमाणु संसार में घूम रहे हैं और हमारी आत्मा में जब हम पुण्य करते हैं तो आकर पुण्यास्रव रूप बन जाते हैं और जब पाप करते हैं तो पापास्रव रूप परिवर्तित हो जाते हैं।
स्वामी की अपेक्षा आस्रव के भेद बताते हैं—
यद्यपि आस्रव के अनंत भेद हैं फिर भी यहाँ कषाय सहित और कषाय रहित ऐसे दो प्रकार के स्वामियों की अपेक्षा सांपरायिक और ईर्यापथ ऐसे दो भेद ही किये हैं।
दशवें गुणस्थान में स्थित महामुनि शुक्लध्यानी हैं फिर भी यहाँ तक कषायों का उदय और बंध मौजूद है। उसके आगे ११, १२, १३ और १४ गुणस्थानों में रहने वाले जीव—ध्यानी मुनि और अर्हंत भगवान ये कषाय रहित हैं। ये संसार में ही विद्यमान हैं, जब तक मोक्ष नहीं प्राप्त कर लेते हैं तब तक अर्हंत भगवान् भी ईषत् संसारी माने गये हैं। आज हम और आपको सातवें गुणस्थान से ऊपर के मुनि और अर्हंत भगवान् यहाँ नहीं दिखते हैं ये विदेह क्षेत्र में आज भी होते हैं।
‘कषित आत्मानं पीडयन्तीनि कषाया:’ जो आत्मा को कषती हैं अर्थात् पीड़ित करती हैं वे कषायें हैं, क्रोध मान माया लोभ से ये मुख्य चार भेद रूप हैं अथवा जैसे वटवृक्ष आदि का चेंप चिपकने में कारण होता है उसी तरह क्रोधादि भी कर्म बंधन के कारण होने से कषाय हैं।
कर्मों के द्वारा चारों ओर से अपने आत्मस्वरूप का अभिनव—तिरस्कार होना साम्पराय है। इस साम्पराय के लिये जो आस्रव होता है वह सांपरायिक आस्रव कहलाता है।
ईर्या अर्थात् योगगति, जो कर्म मात्र योग से ही आते हैं वे ईर्यापथ आस्रव कहलाते हैं।
सकषाय जीव के सांपरायिक और अकषाय जीव के ईर्यापथ आस्रव होता है। मिथ्यादृष्टि नाम के पहले गुणस्थान से लेकर सूक्ष्मसांपराय नाम के दशवें गुणस्थान तक कषायों का उदय रहने से योग के द्वारा आए हुए कर्म चिकने शरीर पर धूल की तरह चिपक जाते हैं, उनमें स्थिति बंध हो जाता है, यह सांपरायिक आस्रव है। उपशांतकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली इन ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थानवर्ती के कषायों के न रहने से योग क्रिया से आए हुए कर्म सूखी दीवाल पर पड़ी हुई धूल की तरह द्वितीय समय में ही झड़ जाते हैं, बंधते नहीं हैं, यह ईर्यापथ आस्रव है।
यहाँ तात्पर्य यही है कि हमें कषायों को मंद करना चाहिये जिससे वे एक दिन समाप्त हो जावें और हम भी सांपरायिक आस्रव से बचकर ईर्यापथ आस्रव के स्वामी बन जावें, इसके बाद तो नियम से आस्रव रहित सिद्ध अवस्था प्राप्त हो जाती है। कषाय चिकनाई के समान होती हैं और कर्म धूल के समान। जिस प्रकार चिकनाई वाली वस्तु पर धूल चिपक जाती है और बहुत प्रयत्न से छूटती है ठीक उसी प्रकार कषायसहित आत्मा के साथ कर्मवर्गणाएँ अपना सम्बन्ध दृढ़ बना लेती हैं जो बड़े प्रयत्न से छूटती हैं।
स्वामी की अपेक्षा आस्रव के भेदों को बताते हैं—
स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण ये ५ इन्द्रियाँ हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ ये ४ कषायें हैं। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह ये ५ प्रकार के अव्रत अर्थात् पाप हैं।
सम्यक्त्व क्रिया, मिथ्यात्व क्रिया, प्रयोग क्रिया, समादान क्रिया, ईर्यापथ क्रिया, प्रादोषिकी क्रिया, कायिकी क्रिया, अधिकरण क्रिया, पारितापिकी क्रिया, प्राणातिपातिकी क्रिया, दर्शन क्रिया, स्पर्शन क्रिया, प्रात्ययिकी क्रिया, समन्तानुपात क्रिया, अनाभोग क्रिया, स्वहस्त क्रिया, निसर्ग क्रिया, विदारण क्रिया, आज्ञा व्यापादिकी क्रिया, अनाकांक्ष क्रिया, आरम्भ क्रिया, पारिग्राहिकी क्रिया, माया क्रिया, मिथ्यादर्शन क्रिया और अप्रत्याख्यान क्रिया ये २५ क्रियाएँ हैं जो साम्परायिक आस्रव के लिए कारण हैं।
सम्यक्त्व को बढ़ाने वाली क्रिया को सम्यक्त्व क्रिया कहते हैं जैसे—देवपूजन आदि। मिथ्यात्व को बढ़ाने वाली क्रिया को मिथ्यात्व क्रिया कहते हैं, जैसे—कुदेव पूजन आदि। शरीरादि से गमनागमन रूप प्रवृत्ति करना प्रयोग किया है। संयमी का असंयम के सन्मुख होना समादान क्रिया है, गमन के लिये जो क्रिया होती है उसे ईर्यापथ क्रिया कहते हैं। क्रोध के वश से जो क्रिया हो वह प्रादोषिकी क्रिया है। दुष्टतापूर्वक उद्यम करना कायिकी क्रिया है। हिंसा के उपकरण—तलवार आदि का ग्रहण करना अधिकरण क्रिया है। जीवों को दु:ख उत्पन्न कराने वाली क्रिया को पारितापकी क्रिया कहते हैं। आयु, इन्द्रिय आदि प्राणों का वियोग करना प्राणातिपातिकी क्रिया है। राग के वशीभूत होकर मनोहर रूप देखना दर्शन क्रिया है। राग के वशीभूत होकर वस्तु का स्पर्श करना स्पर्शन क्रिया है। विषयों के नए-नए कारण मिलना प्रात्ययिकी क्रिया है। स्त्री, पुरुष अथवा पशुओं के बैठने तथा सोने आदि के स्थान में मल-मूत्रादि क्षेपण करना समन्तानुपात क्रिया है। बिना देखी-बिना शोधी हुई भूमि पर उठना-बैठना अनाभोग क्रिया है। लोभ के वशीभूत होकर दूसरे के द्वारा करने योग्य क्रिया को स्वयं करना स्वहस्त क्रिया है। पाप को उत्पन्न करने वाली प्रवृत्ति को भला समझना निसर्ग क्रिया है। दूसरे के किए हुए पापों को प्रकाशित करना विदारण क्रिया है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से शास्त्रोक्त आवश्यक आदि क्रियाओं के करने में असमर्थ होकर उनका अन्यथा निरूपण करना आज्ञाव्यापादिकी क्रिया है। प्रमाद अथवा अज्ञान के वशीभूत होकर आगमोक्त क्रियाओं में अनादर करना अनाकांक्षा क्रिया है। छेदन-भेदन आदि क्रियाओं में स्वयं प्रवृत्त होना तथा अन्य को प्रवृत्त देख हर्षित होना प्रारम्भ क्रिया है। परिग्रह की रक्षा में प्रवृत्त होना पारिग्राहिकी क्रिया है। ज्ञान, दर्शन आदि में कपट रूप प्रवृत्ति करना माया क्रिया है। प्रशंसा आदि से किसी को मिथ्यात्वरूप परिणति में दृढ़ करना मिथ्यादर्शन क्रिया है। चारित्र मोहनीय के उदय से त्याग रूप प्रवृत्ति नहीं होना अप्रत्याख्यान क्रिया है।
एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, असंज्ञी पंचेन्द्रिय इनमें भी अपनी—अपनी इन्द्रियों के विषयों की अभिलाषा से बिना मन के भी कर्मबंध होता ही रहता है। पंचेन्द्रिय सैनी जीवों में ये सभी आस्रव के कारण मौजूद हैं। आगे सम्यग्दृष्टि के मिथ्यात्व से होने वाला आस्रव नहीं है। उसके आगे अविरत आदि भी घटते जाते हैं। महामुनियों के आस्रव के कारण बहुत कम रह जाते हैं।
आस्रव में हीनाधिकता का क्या कारण है उसको आचार्य बताते हैं—
आस्रव में विशेषता कैसे आती है जैसे दान में विशेषता आती है कि—‘‘विधिद्रव्यदातृपातृ विशेषास्तद्विशेष:’’ अगर हमारी विधि अच्छी है, दाता—देने वाला बहुत श्रद्धालु है, पात्र उत्तम है तो दान में विशेषता आ जाती है। इसी प्रकार से तीव्र भाव, मंद भाव, ज्ञात भाव, अज्ञात भाव, अधिकरण विशेष और वीर्य विशेष से आस्रव में विशेषता-हीनाधिकता होती है। अत्यन्त बढ़े हुए क्रोधादिक से तीव्र भाव होता है। कषायों की मंदता से मंद भाव होता है। किसी प्राणी को मारने का संकल्पपूर्वक भाव कर उसे मारना ज्ञात भाव है। अहंकारवश अथवा प्रमादवश बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञात भाव है। आस्रव के अधिकरण—‘साधन से आस्रव में अंतर पड़ता है और वीर्य अर्थात् शक्ति विशेष की अपेक्षा विशेषता-हीनाधिकता होती है। द्रव्य की स्वशक्ति विशेष को वीर्य कहते हैं।
वीर्य विशेष अर्थात् जो शक्तिशाली प्राणी है वह ज्यादा पाप करता है और ज्यादा पाप का बंध करता है। उदाहरणार्थ—वङ्कावृषभनाराच संहनन वाला इतना पाप भी कर सकता है कि सातवें नर्वâ में चला जाये और इतना पुण्य कर सकता है कि मोक्ष ही पा जाए पर पंचमकाल में मोक्ष सम्भव नहीं है, हाँ, मोक्षमार्ग अवश्य खुला है। आज उत्तम संहनन नहीं है उतनी शक्ति नहीं है कि हम मोक्ष जा सवें तो उतनी भी शक्ति नहीं है कि हम सातवें नर्क में जा सवेंगे।
अत: यहां यही बताया है कि इनके द्वारा आस्रव में विशेषता आती है। हम मन्द भावों से क्रोधादि करें तो मंदता आती है कम आस्रव होता है, तीव्र भावों से करें तो तीव्रता आती है आस्रव ज्यादा होता है। यह आपको इसलिये जानना है कि हम जब तक संसार में हैं आस्रव से छूट नहीं सकते क्योंकि आज सातवाँ-आठवाँ गुणस्थान भी नहीं है और ग्यारहवें गुणस्थान की तो बात ही नहीं है, जिनके जिनेन्द्र भगवान की वाणी पर श्रद्धान नहीं है वे मिथ्यादृष्टि हैं, उनके अपने-अपने परिणामों के अनुसार आस्रव होता है। मिथ्यादृष्टि के बहुत ज्यादा अशुभ कर्म का आस्रव होता है, सम्यग्दृष्टि के कम आस्रव होता है और पंचम गुणस्थानवर्ती के और भी ज्यादा अशुभ कर्मों की निर्जरा होती है। शुभ कर्मों का आस्रव होता है यह अन्तर पड़ता है। हम जिस-जिस गुणस्थान में हैं उनके-उनके परिणामों के अनुसार ही आस्रव होता है।
अधिकरण विशेष से भी आस्रव में विशेषता मानी गई है। जैसे वैश्या आदि के साथ आलिंगन करने पर जो आस्रव होता है; राजपत्नी, तापसनी आदि के साथ व्यभिचार करने पर उससे बहुत अधिक महान आस्रव होता है। शक्ति विशेष से भी अन्तर पड़ जाता है जैसे वङ्काऋषभ नाराच नाम के उत्तम संहनन धारी पुरुष के इन्द्रिय, कषाय, अव्रत आदि में प्रवृत्ति करने पर महान आस्रव होता है। हीन संहनन वाले मनुष्य के इंद्रियविषय, कषाय आदि निमित्तक पाप करने पर उससे कम अल्प आस्रव होता है। और भी इन्द्रिय आदि से हीन चार इन्द्रिय, तीन इन्द्रिय, दो इन्द्रिय, एक इन्द्रिय जीवों के अल्प आस्रव उससे भी अल्प ऐसे घटते हुए आस्रव होता है।
इन सब में वीर्य—शक्ति की अपेक्षा अन्तर पड़ने से आस्रव में भी अन्तर पड़ जाता है।
ऐसे ही क्षेत्र, काल आदि की अपेक्षा से भी अन्तर पड़ जाता है। जैसे घर में ब्रह्मचर्य भंग करने पर अल्प आस्रव होता है, देवभवन—जिनमन्दिर में ब्रह्मचर्य भंग करने पर महान आस्रव होता है, इसकी अपेक्षा भी तीर्थयात्रा के मार्ग में ब्रह्मचर्य भंग करने पर इससे भी महान आस्रव होता है तथा तीर्थक्षेत्र पर भंग करने पर तो सबसे महान आस्रव होता है।
ऐसे ही सामान्यकाल में ब्रह्मचर्य व्रत या किसी व्रत के भंग करने पर अल्प आस्रव है। देववंदना सामायिक के काल में भंग करने पर महान आस्रव होता है। इसी प्रकार सामान्य पुस्तकों के अविनय करने पर अल्प आस्रव होता है और जिनागम के अविनय आदि से महान आस्रव होता है।
इस तरह आस्रव के अनंत भेद हो जाते हैं क्योंकि तीव्र परिणामों में भी नाना जीवों की अपेक्षा अनंत भेद हैं। मंद परिणामों में भी तरतमता आदि से अनंत भेद हैं। ज्ञात भाव और अज्ञात भाव के भी अनंत भेद हैं। अधिकरण और वीर्य की अपेक्षा भी अनंत भेद हैं। ऐसे कारण के भेद से कार्य में भी भेद हो जाते हैं।
अब अधिकरण के भेद बताते हैं—
जसमें कुछ भी रहता है उसे आधार या अधिकरण कहते हैं। आस्रव जीव में ही रहते हैं—जीवात्मा के ही होते हैं अत: जीव ही आस्रव का आधार—स्वामी है। फिर भी यहाँ मुख्य रूप से जीव के द्वारा जो उत्पन्न कराए जाएं—जीव के आश्रय—निमित्त से जो आस्रव होवें उन्हें जीवाधिकरण कहते हैं और जो आस्रव अजीव के आश्रय से—निमित्त से होवें उन्हें अजीवाधिकरण कहते हैं। ऐसे आस्रव के जीवाधिकरण और अजीवाधिकरण की अपेक्षा दो भेद होते हैं।
अकेले जीव के अन्दर आस्रव नहीं हो सकता अन्यथा सिद्धों में भी आस्रव होने लगेगा और अकेले अजीव में भी आस्रव होने वाला नहीं है, जब दोनों का संयोग होगा तभी जाकर आस्रव हो सकता है। जीव और अजीव की मैत्री दूध और पानी के समान है। वैसा एक क्षेत्रावगाही सम्बन्ध जब बंध जाता है तब इनमें कर्म आराम से आने लगते हैं और आकर बैठ जाते हैं।
संसारचक्र, शुभ-अशुभ कर्मबन्ध सबमें जीव-अजीव कारण हैं। अच्छे और बुरे कार्य जीव और अजीव दोनों के द्वारा होते हैं, न अकेला जीव कुछ कर सकता है और न अकेला अजीव ही कुछ कर सकता है।
जीवाधिकरण के भेद कौन-कौन से हैं, इस बात को बताते हैं—
पाप कर्मों का आस्रव १०८ तरीके से होता है और उन १०८ आस्रवों को रोकने के लिये १०८ दाने की माला को फेरकर पुण्यकर्म का आस्रव करना चाहते हैं वही विधि इसमें बतलाई गयी है।
समरम्भ, समारम्भ, आरम्भ से जीवाधिकरण तीन प्रकार का, मन, वचन, काय के भेद से तीन प्रकार का—कृत, कारित, अनुमोदना के भेद से तीन प्रकार का तथा कषाय के भेद से चार प्रकार का होता हुआ परस्पर मिलाने से १०८ प्रकार का है। इन पापों का आस्रव १०८ प्रकार से होता है अत: १०८ मन्त्रों की माला पेâरकर हम इनका क्षालन करना चाहते हैं, हम आलोचना पाठ में पढ़ते हैं—
कृत, कारित, मोदन करके, क्रोधादि चतुष्टय धरि के।।
यही इस सूत्र में बताया गया है। किसी कार्य के बारे में सोचना समरम्भ है, उसके योग्य सामग्री इकट्ठा करना समारम्भ है और कार्य को शुरू करना आरम्भ है। शुभ रूप में यही लागू हो जायेगा और अशुभ रूप में यही लागू हो जायेगा। मंदिर जाने का भाव किया समरम्भ, स्नान वगैरह करने की चेष्टा करने लगे समारम्भ हो गया, मंदिर के लिये गमन कर दिया आरम्भ हो गया, इसे चाहे शुभ में लगाएं अथवा अशुभ में, १०८ तरीके से इनके भेद हो जाते हैंं। स्वयं करना कृत है, दूसरे से कराना कारित है और दूसरे के द्वारा किये हुए कार्य को भला समझना अनुमोदना है।
समरम्भ, समारम्भ आरम्भ को मन, वचन, काय से गुणा किया, पुन: कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा किया तो ३ ² ३ ² ३ · २७ हुए पुन: ये सब पाप क्रोध, मान, माया, लोभ के कारण होते हैं तो २७ ² ४ · १०८ हो गये।
१०८ भेद का स्पष्टीकरण—
क्रोधकृतकायसंरंभ, मानकृतकायसंरंभ, मायाकृतकायसंरंभ, लोभकृतकाय-संरंभ, क्रोधकारितकायसंरंभ, मानकारितकायसंरंभ, मायाकारितकायसंरंभ, लोभ—कारितकायसंरंभ, क्रोधानुमतकायसंरंभ, मानानुमतकायसंरंभ, मायानुमतकायसंरंभ, लोभानुमतकायसंरंभ, इस प्रकार कायसंरंभ के ये बारह भेद कहे हैं। ऐसे ही वचनसंरंभ और मनसंरंभ के बारह—बारह भेद होने से संरंभ के छत्तीस भेद हो जाते हैं। इसी प्रकार समारंभ और आरम्भ के छत्तीस भेद होने से कुल १०८ भेद हैं। माला में १०८ दोने होते हैं। साधु और श्रावक इसी माला से जाप करते हैं। इन १०८ निमित्तों से हुए पाप १०८ दाने की जाप से नष्ट हो जाते हैं इसीलिये जाप या माला में १०८ दाने रहते हैं। जाप में ऊपर तीन दाने रहते हैं उन पर रत्नत्रयसूचक ‘सम्यग्दर्शनाय नम: सम्यकज्ञानाय नम: सम्यक्चारित्राय नम:’ ऐसा मंत्र बोलते हैं।
इन संरंभ आदि से हुए पापों के क्षालन के लिए प्रतिदिन महामंत्र का १०८ बार जाप्य करना चाहिए। शांतिमंत्र, सिद्धचक्र मंत्र, ऊँ ह्रीं असिआउसा नम:, ‘अरहंत सिद्ध’, ‘ऊँ ह्रीं नम:’ आदि मंत्रों का भी जाप करना चाहिए। सबसे छोटा मंत्र ‘ऊँ नम:’ है। इसकी भी जाप करने से महान पुण्य होता है। आगे आचार्यश्री अजीवाधिकरण के भेदों को बताते हैं—
बाह्य रचना को निर्वर्तना कहते हैं। उसके दो भेद हैं—मूलगुण निर्वर्तना और उत्तरगुण निर्वर्तना। शरीर, वचन और श्वासोच्छ्वास की रचना जिससे होती है वह मूलगुण निर्वर्तना है अर्थात् ये बाहर में हमें दिखते हैं, वचन बोलते हैं ये पौद्गलिक हैं, शरीर की रचना जिन पुद्गल परमाणुओं से हुई है वह मूलगुण निर्वर्तना कहलाती है। काष्ठ, मिट्टी आदि से चित्र बनाना उत्तरगुण निर्वर्तना है।
निक्षेप नाम रखने का है, उसके ४ भेद हैं—किसी वस्तु को उसके स्थान में न रखकर बिना देखे-शोधे, बिना उपयोग के रखना अनाभोग निक्षेप है। बिना देखे वस्तु रखना अप्रत्यवेक्षित निक्षेप है, शीघ्रता से रखना सहसा निक्षेप है, जैसे किसी भय अथवा अन्य कारण से जाकर अचानक किताब का बस्ता पटक दिया और देखकर भी ठीक तरह से प्रमार्जित किए बिना वस्तु को रख देना दुप्रभृष्ट निक्षेपाधिकरण है।
हमें यह समझना चाहिये कि हर क्षण हमारा कार्य ऐसा हो जिससे कम से कम कर्मों का आस्रव हो, इसमें हमारा प्रमाद ही विशेष रूप से अपेक्षित है। आप झाड़ू पोंछा लगा रहे हैं, मन में ये भाव है कि हमारे द्वारा किसी जीव की हिंसा न होने पाये। आपने इस भाव से देख-शोधकर किया तो भी कोई चींटी आदि मर गयी तो उतना दोष नहीं लगेगा और जब प्रमाद से झाड़ू लगाये जा रहे हैं कि हमको तो सफाई करनी है जीव का तो मरना काम है। एक भी जीव नहीं मरा तो भी पाप लग गया, यह भावों की विशेषता है। वस्तुओं के मिलाने को संयोग कहते हैं। इसके दो भेद होते हैं—भक्तपान संयोग और उपकरण संयोग। जैसे—आहार के पानी को एक-दूसरे में मिला दिया मतलब गरम पानी में ठण्डा पानी मिला दिया। इस तरह से आहार की वस्तुओं के एक दूसरे में मिलने को भक्तपान संयोग कहते हैं और कमण्डलु, उपकरण आदि एक दूसरे की चीज को लेकर दूसरे की पिच्छी आदि से झाड़ने लग गये, अपने-दूसरे में भेद नहीं रखा, यह उपकरण संयोग है। जो उपकरण अपने को मिलते हैं वही अपना उपकरण कहलाता है। निसर्ग—आपकी जो स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है वह निसर्ग है। इसके तीन भेद होते हैं—काय निसर्ग, वचन निसर्ग और मन निसर्ग। काय की दुष्ट प्रवृत्ति काय निसर्ग है। जैसे—बैठे हैं, तिनका तोड़ रहे हैं, कोई काम नहीं है लेकिन काय की दुष्ट प्रवृत्ति चल रही है, कागज फाड़ रहे हैं, हलन-चलन कर रहे हैं, यह काय की दुष्ट प्रवृत्ति है उससे कर्मों का आस्रव होता है। लोग बैठे हैं, पंचायत कर रहे हैं, किसी की बुराई-भलाई कर रहे हैं, पता नहीं कितनी कथा चालू हो गयी—स्त्रीकथा, राष्ट्रकथा, चोर कथा, अवनिपाल कथा आदि, यह वचन का दु:प्रणिधान है। दुष्टतापूर्वक मन, वचन, काय की प्रवृत्ति—बैठै-बैठे किसी के प्रति अनिष्ट की भावना करने लग जाना कि उसका अनिष्ट हो जाये और वह यहाँ तक आने ना पाये, बीच में उसका एक्सीडेंट हो जाये। उसका बुरा होगा या नहीं, उसके कर्मों पर निर्भर है लेकिन आपने इतना सोचकर जरूर भाव हिंसा कर ली और अशुभ कर्म का आस्रव कर लिया। इसलिए आस्रव के प्रकरण को विशेष रूप हर मानव को समझना है।
इन ग्यारह प्रकार के अजीवाधिकरण के निमित्त से आत्मा में कर्मों का आस्रव होता है और जितने भी अजीव निमित्तों से आत्मा में कर्मों का आना होता है वे सब इन्हीं भेदों में शामिल हो जाते हैं। कर्म के मुख्य रूप से आठ भेद हैं—ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय, इन कर्मों के लिये जो आस्रव होते हैं उनके कारण अलग—अलग बतलाते हैं।
ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के कारण बताते हैं—
इस आस्रव के प्रकरण को आपको जागृत अवस्था में सुनना है। तत्त्वार्थ सूत्र की और अध्यायों को आप भूल जायें लेकिन इसकी छठी, सातवीं और आठवीं अध्याय को तो भूलना ही नहीं है। हमें यह जानना है कि कैसे-कैसे कर्म हमारे पास आते हैं, कैसे बंधते हैं। इस प्रक्रिया को जब तक हम नहीं जानेंगे कि किस प्रकार ये कर्म जन्म-जन्म के लिए दु:खदायी बन जाते हैं तब तक निर्जरा की ओर, संवर की ओर हम नहीं बढ़ सकते हैं और फिर मोक्ष की तो बात ही नहीं आती है इसलिये यह अध्याय विशेष रूप से प्रतिपादित की जाती है कि हर मानव को समझना है कि हमारे पास सोते, उठते, बैठते, चलते-फिरते समय कैसे-कैसे कर्म आते हैं और हम उनको संजोकर रख लेते हैं, फिर वे ही हमारे जन्म-जन्म के लिये दु:खदायी बन जाते हैं।
ज्ञानावरण कर्म कैसे बंधता है, दर्शनावरण कर्म कैसे बंधता है, ऑटोमेटिक प्लान्ट है। यह सारी क्रिया आपकी आत्मा में चल रही है लेकिन हम आपसे पूछें कि ज्ञानावरण कर्म का आस्रव कैसे होता है तो बताना कठिन हो जाता है, ये हमारे आगम बताते हैं। आगम के दर्पण में देखकर हम जान सकते हैं कि कहां कालिख लगी है। जैसे—हम दर्पण में देखकर सौन्दर्य निखारते हैं ऐसे ही आत्मा के सौन्दर्य को भी हम निखार सकते हैं वही आगम बताता है कि ज्ञान और दर्शन के विषय में किये गये प्रदोष, निन्हव, मात्सर्य, अन्तराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण कर्म और दर्शनावरण कर्म के आस्रव के कारण हैं। किसी ने धर्मात्मा की प्रशंसा कर दी उसको एकदम सहन नहीं हुआ, कोई पुरुष मोक्ष के साधन—तत्त्वज्ञान का उपदेश करता हो तो मुख से कुछ भी न कहकर हृदय में ईष्र्या आदि रखना प्रदोष है। जानते हुए भी अपने गुरु का नाम नहीं बताना, अपने को शास्त्र का ज्ञान होने पर भी दूसरे को नहीं बताना निन्हव है। किसी ने पूछा कि यह प्रकरण किस आगम में लिखा है तो नहीं बताना कि अगर यह जान जायेगा तो मेरे समान विद्वान हो जायेगा इसलिये दूसरे ग्रन्थ का नाम बता देना। वह जाकर उसमें ढूँढता रहे उसको मिलेगा ही नहीं ज्ञान होगा कैसे ? उसको तो नहीं होगा, उसका पुण्य होगा तो अपने आप हो जायेगा लेकिन जिसने नहीं बताया उसका निन्हव हो गया। आपने अगर छोटे से गुरु से भी दीक्षा ली है, उनसे भी ज्ञान प्राप्त किया है तो उनका नाम कभी नहीं छिपाना, उनका सदा बहुमान करना। कोई ज्ञान किसी शिष्य आदि पात्र को देने योग्य है फिर भी नहीं देना, इस भाव से कि ‘‘यह मुझसे अधिक ज्ञानवान हो जाएगा तो मुझे कौन पूछेगा ? यह मात्सर्य है।
किसी के ज्ञानाभ्यास में विघ्न डालना अन्तराय है। सम्यग्ज्ञान का समादर न करके उल्टे उसके उपदेष्टा को रोक देना आसादना है। किसी का किसी खास विषय का ज्ञान निर्दोष है, उसमें भी दूषण लगाना उपघात है।
आसादन में ज्ञान की विनय आदि नहीं की जाती है और उपघात में ज्ञान को नाश करने का अभिप्राय रहता है अत: इन दोनों में भेद स्पष्ट है।
ज्ञानविषयक प्रदोष आदि से ज्ञानावरण कर्म के लिये आस्रव होता है और दर्शनविषयक प्रदोष आदि से दर्शनावरण का आस्रव होता है। ज्ञानावरण के आस्रव के और भी अनेक कारण हैं—
आचार्य और उपाध्याय के साथ शत्रुता रखना, अकाल में अध्ययन करना, अरुचिपूर्वक पढ़ना, पढ़ने में आलस्य करना, व्याख्यान को अनादरपूर्वक सुनना, जहाँ प्रथमानुयोग बांचना चाहिए वहां अन्य कोई अनुयोग बांचना, तीर्थोपरोध करना अर्थात् दिव्यध्वनि के समय स्वयं व्याख्या करने लगना, बहुश्रुत के सामने गर्व करना, मिथ्या उपदेश देना, बहुश्रुत का अपमान करना, स्वपक्ष को छोड़ देना, परपक्ष को ग्रहण कर लेना, ख्याति पूजा आदि की इच्छा से असम्बद्ध प्रलाप करना, सूत्र के विरुद्ध व्याख्यान करना, कपट से ज्ञान को ग्रहण करना, शास्त्र बेचना और जीव हिंसा आदि करना इन सब कारणों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है।
दर्शनावरण के आस्रव के अन्य और कारणों को कहते हैं—
देव, गुरु आदि के दर्शन में मात्सर्य करना, दर्शन में अन्तराय करना, किसी की चक्षु को उखाड़ देना, इन्द्रियों का अभिमान करना, अपने नेत्रों का अहंकार करना, दीर्घनिद्रा लेना, अति निद्रा लेना, दिन में सोना, आलसी रहना, नास्तिक भाव रखना, सम्यग्दृष्टियों को दोष लगाना, कुशास्त्रों की प्रशंसा करना, मुनियों से ग्लानि करना और जीवों की दया नहीं पालना आदि सब दर्शनावरण कर्म के आने में कारण होते हैं। अर्थात् इन कारणों से दर्शनावरण कर्म आते हैं, सो आस्रव है।
जैन शास्त्र की पंक्तियों का स्वार्थवश उल्टा अर्थ कर देना, पंथ व्यामोह में पड़कर आगम के अनुकूल अर्थ करने वालों का मिथ्यादृष्टि कहना, आगम का जो विषय स्वयं को न जंचे उसको किसी ने ऊपर से मिला दिया है ऐसा कहना, शास्त्र की और गुरुओं की विनय नहीं करना, अपने में अल्पज्ञान होते हुए भी अधिक ज्ञानीजनों को मूर्ख समझना, उनका अपमान करना इत्यादि कारणों से ज्ञानावरण कर्म का आस्रव होता है; जो कि प्रयत्न करने पर भी अपने ज्ञान को प्रगट नहीं होने देता है। जैसे रज धूलि या मेघपटल सूर्य के प्रकाश को ढक देते हैं वैसे ही यह आवरण भी आत्मा के श्रुतज्ञान, केवलज्ञान को ढके हुये हैं। यदि अपने ज्ञान को प्रगट करने की इच्छा है अथवा यदि हमें और आपको ज्ञानावरण, दर्शनावरण के आस्रवों से छूटने की इच्छा है तो इन कारणों को जानकर धीरे—धीरे इनसे बचने का प्रयास करना चाहिए, तभी एक न एक दिन इनसे छूट सवेंगे।
शास्त्रों में निन्हव की एक रोमांचक कथा आती है कि एक मुनिराज से राजा श्रेणिक ने पूछा कि भगवन्! आपके गुरु का नाम क्या है ? उन्होंने एक अप्रसिद्ध छोटे से मुनि से दीक्षा धारण की थी अत: उन्होंने सोचा कि यह तो अप्रसिद्ध हैं इनसे मेरी क्या प्रसिद्धि होगी और राजा श्रेणिक से कह दिया कि मेरे गुरु का नाम महावीर है। इतना कहने के साथ ही उनके पूरे शरीर का रंग, जो गौरवर्णी था, काला हो गया। थोड़ी देर बाद राजा श्रेणिक समवसरण से लौटने लगे तो देखा कि अभी-अभी ये मुनि इतने अच्छे शरीर वाले थे और इतनी देर में इनका शरीर कैसे काला पड़ गया। जब वह अगली बार भगवान महावीर के समवसरण में गये तब गौतम स्वामी से उन्होंने प्रश्न किया कि महाराज! उन मुनिराज का शरीर ऐसे काला कैसे पड़ गया ? तब गौतम स्वामी ने बताया कि कि उन मुनिराज ने अपने गुरु का नाम छिपाकर अपनी मान बड़ाई के लिए अपने गुरु का नाम महावीर बताया और इस निन्हव के कारण उनका शरीर काला हो गया। धर्मात्मा से द्वेष करना, धर्मात्मा को देखकर धर्मात्मा को अगर नहीं सुहाए तो वह सम्यग्दृष्टि नहीं है।
असातावेदनीय कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं—
दु:ख—विरोधी पदार्थों का मिलना, इष्ट का वियोग होना, अनिष्ट का संयोग होना तथा निष्ठुर वचन बोलना आदि बाह्य कारणों के मिल जाने से एवं अंतरंग में असातावेदनीय का उदय होने से जो पीड़ा होती है उसे दु:ख कहते हैं।
शोक—उपकार करने वाले बंधु आदि का वियोग हो जाने पर उसका बार—बार विचार करके चिन्ता, खेद या विकलता होती है। यह मोहनीय कर्म के अन्तर्गत शोक कर्म के उदय से होती है उसी का नाम शोक है।
ताप—तिरस्कार करने वाले कठोर वचन के सुनने से चित्त में कलुषता का होना और भीतर ही भीतर तीव्र जलन या अनुशय—पश्चाताप रूप परिणाम का होना ताप है।
आक्रन्दन—परिताप के कारण अश्रु गिराना, सिर फोड़ना, छाती कूटना आदि करते हुये जो रोना है वह आक्रन्दन है।
वध—आयु, इन्द्रिय, बल, श्वासोच्छ्वास आदि प्राणों का विघात कर देना वध है।
परिदेवन—अति संक्लेशपूर्वक ऐसा रोना, विलाप करना कि जिसे सुनकर दूसरों को भी दया आ जाये यह परिदेवन है।
यहाँ प्रश्न उठा कि ये सब दु:ख के ही पर्यायवाची नाम हैं पुन: इन्हें अलग—अलग क्यों लिया ?
उसके उत्तरमें आचार्यश्री ने कहा कि आपका कहना ठीक है, यद्यपि ये सब दु:ख जातीय हैं फिर भी दु:ख के असंख्यात भेद माने हैं किन्तु सबका गिनाना तो संभव नहीं है इसीलिये यहां कुछ मुख्य—मुख्य भेदों को कहा है। जैसे कि गाय के असंख्य प्रकार हैं फिर काली, लाल, सफेद, चितकबरी, दुधारु आदि कुछ भेद कह दिये जाते हैं। वैसे ही सामान्य की दृष्टि से दु:ख, शोक आदि में एकत्व होने पर भी भिन्न—भिन्न कारणों से होने से पर्यायों की दृष्टि से ये भिन्न—भिन्न हो जाते हैं।
जब कोई जीव क्रोध आदि से सहित होकर अपने में दु:ख, शोक आदि उत्पन्न कराता है तब ये आत्मस्थ कहलाते हैं। जब समर्थ व्यक्ति पर में दुख आदि उत्पन्न कराता है तब वे परस्थ कहलाते हैं और जब कोई व्यक्ति स्वयं में और पर में भी एक साथ दु:ख शोक करता—कराता है तब वे उभयस्थ होते हैं। जैसे साहूकार कर्जदार से अपना कर्जा वसूल करने के लिये जाता है तब दोनों को भूख—प्यास आदि के कारण दु:ख आदि होते हैं।
इन दु:ख आदि कारणों से अनिष्ट फल उत्पन्न होता है इसलिये यह अप्रशस्त होने से असद्वेद्य या असातावेदनीय कहलाता है।
प्रधान होने के कारण दु:ख का ग्रहण सर्वप्रथम किया है, शेष शोक आदि इसी के विकल्पभेद हैं। इसी से अन्य भेदों का भी संग्रह हो जाता है अत: अशुभ प्रयोग करना, पर का परिवाद—तिरस्कार करना या पर को दोष लगाना, चुगली करना, अनुवंपा नहीं करना, पर को ताप पहुंचाना, किसी के अंग—उपांग छेद देना, किसी में आपस में भेद डाल देना, किसी को ताड़ित करना, किसी की तर्जना करना, भत्र्सना करना, किसी को काटना, मारना, बांधना, रोक देना, र्मिदत कर देना, किसी का दमन करना, किसी को लज्जित करना, शरीर को रूखा कर देना, परिंनदा करना, आत्मप्रशंसा करना, संक्लेश उत्पन्न करना, जीवन को यों ही बरबाद कर देना, निर्दयी होना, हिंसा करना, महाआरम्भ करना, महापरिग्रह रखना, विश्वासघात करना, कुटिलता रखना, पापकर्म से जीविका करना, बिना प्रयोजन पृथ्वी खोदना, जल बिखेरना, अग्नि जलाना आदि करना, किसी चीज में विष मिला देना, बाण, जाल, पाश, रस्सी, पींजरा, यन्त्र आदि हिंसा के साधनों का बनाना, बनवाना या किसी को देना, जबरदस्ती शस्त्र देना और दु:खादि पापमिश्रित भाव करना आदि। ये सभी भाव और क्रियाओं को स्वयं करना—कराना और अनुमति देना आदि कारणों से असातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
पुन: शिष्य ने प्रश्न किया कि गुरुदेव! यदि दु:ख के कारणों से असातावेदनीय का आस्रव होता है तो नग्न दिगम्बर मुनि होना, केशलोंच करना, उपवास आदि तप करना और उनका उपदेश देना, यह सब दु:ख के कारणों का उपदेश है अत: तीर्थंकरों को उसका उपदेश नहीं देना चाहिये ?
इसके उत्तर में आचार्य श्री ने कहा कि सयश्यह प्रश्न ही नहीं हो सकता क्योंकि तीर्थंकरों ने स्वयं दीक्षा ली है, वेंâशलोच किया है और तपश्चरण भी किया है तथा वैसा ही उपदेश भी दिया है इसलिये जैन लोग ऐसा प्रश्न भला कैसे करेंगे ? इसी तरह अन्य मतावलम्बियों ने भी यम नियम पालन करने का, अनेक वेष ग्रहण करने का, दुष्कर उपवास करने का, कठोर अनुष्ठान क्रियाओं का एवं ब्रह्मचर्य आदि पालने का उपदेश दिया है। उनके यहाँ भी शिष्य—प्रशिष्यों की परम्परा में नाना प्रकार के कठोर—कठोर अनुष्ठान देखे जाते हैं। प्राय: सभी मतावलम्बी हिंसा आदि को पाप आस्रव का कारण मानकर दु:ख के हेतु मानते ही हैं अत: ऐसा प्रश्न अन्य लोग भी भला कैसे कहेंगे ?
पुन: शिष्य कहता है कि भगवन्! यद्यपि जैनमत में या सर्व संप्रदायों में दीक्षा ग्रहण करना, कठिन तप करना आदि अनुष्ठान माने हैं, फिर भी यदि प्रश्न उठा है तो उत्तर देकर सन्तुष्ट करना चाहिये। हम जैसे अज्ञानी लोग तो इनसे असाता का आस्रव मान सकते हैं ?
आचार्यश्री कहते हैं कि अच्छी बात है, आप ध्यान देकर समाधान सुनिये, यदि कोई क्रोध आदि कषायों से सहित होकर द्वेषपूर्वक उपवास आदि स्वयं करते हैं या दूसरों से कराते हैं तब उनके असाता कर्म का आस्रव होता है किन्तु जो अपनी आत्मशुद्धि के लिये दीक्षा लेते हैं, तपश्चरण, वेंशलोच आदि करते हैं, उनके क्रोधादि आवेश या द्वेष भावना न होने से उनका वह अनुष्ठान या उपदेश असातावेदनीय के आस्रव का कारण न होकर के सातावेदनीय के आस्रव का ही कारण होता है और क्रम से यह सब अनुष्ठान तो कर्मों से छुटाकर मोक्ष भी प्राप्त करा देता है। देखों, जिस प्रकार मुनिजन अहिंसा, सत्य आदि के पालन करने में स्वयं प्रसन्न रहते हैं और दूसरों से पालन कराने में भी प्रसन्न होते हैं वैसे ही वे नग्न दिगम्बर दीक्षा लेने में, वेंशलोच करने में और तपश्चरण आदि करने—कराने में भी प्रसन्न रहते हैं। वे क्रोध या द्वेष बुद्धि से न दूसरों को दिगम्बरी दीक्षा देते हैं, न वेंâशलोच कराते हैं और न उपवास आदि व्रत कराते हैं; अत: उनके असाता का आस्रव होना संभव ही नहीं है। जैसे वैद्य करुणा बुद्धि से किसी साधु के फोड़े को चीर देता है उसमें उसे क्रोध या द्वेष न होने से भले ही साधु को दु:ख—पीड़ा भी क्यों न हुई हो किन्तु उस वैद्य को, डाक्टर को पापी कोई भी नहीं कह सकता किन्तु उसे उपकारी ही मानते हैं अथवा जैसे कोई माता अपने पुत्र को कड़वी औषधि जबरन भी पिलाती है या स्कूल भेजते समय न जाने से थप्पड़ भी लगा देती है किन्तु उसका अभिप्राय बालक को स्वस्थ और विद्वान गुणी बनाने का होने से उसे पाप नहीं लगता है किन्तु माता उपकारी ही मानी जाती है। वैसे ही अनादिकालीन जन्म—मरण की वेदना से सन्तप्त संसारी जनों को दु:ख से निकालकर स्वर्ग—मोक्ष सुख प्राप्त कराने की इच्छा से तीर्थंकरों ने पहले स्वयं दीक्षा, वेंशलोच, तप आदि का अनुष्ठान करके ही पूर्णज्ञान प्राप्त कर भव्यों को ऐसा उपदेश दिया है इसलिये उनका यह उपदेश संसार के दु:खों के छुड़ाने वाला होने से दु:ख का कारण नहीं है। भले ही तत्काल में वेंशलोच करते समय पीड़ा होती हो या उपवास आदि तपश्चरण से शरीर को कष्ट होता हो तो भी साधु—साध्वीजन इसे कष्ट नहीं गिनते हैं प्रत्युत संसार के जन्म, मरण, बुढ़ापा, रोग, शोक आदि के सामने इसे सुखकारी—गुणकारी ही मानते हैं अत: उन्हें असाता वेदनीय का आस्रव नहीं हो सकता है।
आत्मा भिन्न है, अनंत सुखी है, अनंत गुणों का पुंज है। इससे विपरीत यह शरीर इस आत्मा से भिन्न है, जड़ है, विनाशीक है और इसके प्रति ममत्व भाव ही संसार के दु:खों का मूल कारण है ऐसा दृढ़ श्रद्धान करके आत्मा की भावना भाते हुए ही साधु इन कष्टों को, उपसर्ग—परीषहों को सह लेते हैं तभी वे संसार के दु:खों से छूटकर मोक्षसुख प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे साधुओं के द्वारा दिया गया मोक्षमार्ग का यह उपदेश दु:ख, शोक, ताप आदि का कारण न होकर तत्काल में भी सुख का ही कारण है। इन दीक्षा, केशलुंचन, तपोनुष्ठान आदि से लोक में भी पूज्यता, प्रशंसा आदि देखी जाती है अत: निष्कर्ष यही निकलता है कि तीर्थंकर देव का उपदेश, उसके अनुसार चर्या सबके लिये सुख का ही कारण है।
दु:ख, शोक, पश्चात्ताप, रोने, विलाप करने आदि से असाता वेदनीय का आस्रव होकर बंध हो जाता है पुन: जब यह असाता उदय में आती है तो फिर दु:ख, शोक, रोना आदि होता है अत: यह परम्परा चलती चली जाती है इसलिये जब असाता वेदनीय के उदय से किसी इष्ट पुत्र, पति, माता, पिता आदि का वियोग हो जाए या रोग, संकट आदि आ जावें तो उस समय असाता का उदय समझ कर शांति धारण करना अच्छा है इससे पुन: असाता का बंध नहीं होगा और आगे रोना नहीं पड़ेगा। नहीं तो अभी शांति न रखने से, धैर्यपूर्वक न सहन करने से आगे भी रोना ही पड़ेगा ऐसा समझकर इष्ट वियोग, अनिष्ट संयोग और व्याधि से उत्पन्न हुई वेदना के समय भी जैसे बने वैसे गुरुओं के निकट जाकर उपदेश सुनना चाहिये। पद्मनंदिपंचिंवशतिका आदि वैराग्यवर्धक, शांतिप्रद जैन शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिये। आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, पुन: इस शरीर से सम्बन्धित पुत्र, मित्र आदि तो प्रत्यक्ष से ही मुझसे भिन्न हैं इत्यादि भावना को भाते हुए दु:ख के समय धैर्य धारण करके धर्मध्यान में मन लगाना चाहिए। ऐसे प्रसंग में तीर्थयात्रा, गुरुसंघ दर्शन आदि के लिये चले जाना चाहिए जिससे वातावरण बदल जाने से शांति प्राप्त होती है। उन्हीं—उन्हीं इष्टों का स्मरण कर रोते—विलाप करते रहने से तो असाता का ही बंध होता है ऐसा सोचकर बड़े प्रयत्न से इनसे बचना चाहिए।
बंधुओं! रोने से कभी रोना नहीं घट सकता, दु:ख से कभी दु:ख नहीं घट सकता। वह तो तत्त्वज्ञान और वैराग्य भाव से ही घटेगा और इसलिये यह कारण आचार्यश्री ने बताये हैं कि जो पूर्व कर्म के कारण आपको दु:ख मिला है, शोक मिला है उनमें बहुत ज्यादा चिन्तन करना उससे तो साता कर्म का आस्रव हो जायेगा और अगर आप उसी-उसी की चिन्ता करते हुए अपनी आत्मा में क्लेशित होते रहेंगे तो निश्चित रूप से आपके असाता कर्म का आस्रव होगा।
एक बार की बात है राजा अशोक अपनी रानी सहित सात खन के महल की छत पर बैठे थे। राजा बैठे थे और रानी छत पर खड़ी नगर की शोभा देख रही थीं। उसके बालक को धाय खिला रही थी। उसने देखा कुछ महिलाएं रो रही थीं, छाती कूट रही थीं। किसी के हाथ में छोटा सा बच्चा है और वह रोते-रोते जा रही है लेकिन उसको कुछ पता नहीं था कि यह क्या हो रहा है। उसने धाय को बुलाकर पूछा—इधर आओ धाय माँ, देखो यह महिलाएं क्या कर रही हैं? उसने बताया कि इनको शोक उत्पन्न हुआ है। तब रानी बोली कि शोक क्या होता है ? धाय माँ बोलीं—इनका बच्चा मर गया है इसलिये यह श्मशान घाट तक ले जा रही हैं। वह और उसके परिजन इसीलिए रो रहे हैं। रानी बोली—रोना क्या होता है ? धाय बोली—देख बेटी! जिसका बच्चा मर जायेगा, जिसने उसे जन्म दिया है उसका वियोग हो जायेगा तो उसे कष्ट तो होगा ही। रानी बोली—कष्ट किसे कहते हैं ? धाय उसे बताती है कि बार-बार ये रो रही हैं, अश्रुपात कर रही हैं, इनके मन के अन्दर कष्ट है। रानी बोली—रोना कौन सी कला का नाम है ? मैंने अपने पिताजी से बहुत सी कलाएं सीखीं लेकिन यह कला तो मुझे सिखाई ही नहीं गयी है। जब वह ऐसा कहती है तो धाय सोचती है कि ऐसा लगता है कि इसको उन्माद चढ़ गया है, पट्टरानी पद के घमण्ड में यह चूर हो गयी है, शोक क्या होता है ? कष्ट क्या होता है ? संक्लेश क्या होता है, क्या इसे पता नहीं होगा ? अब धाय उस पर गुस्सा करती है कि तुझे पट्टरानी पद का उन्माद छा गया है तुझे पता नहीं है और उनकी हंसी उड़ा रही है। रानी कहती है—नाहीं माँ! तुम मेरे ऊपर गुस्सा मत करो, मैं नहीं जानती कि रोना किसे कहते हैं ? शोक, कष्ट किसे कहते हैं ? तुम मुझे बताओ। पास में ही राजा बैठे थे। उन्होंने सोचा कि वास्तव में पहले तो यह राजकन्या थी, वहाँ के सुख भोगे उसके बाद पट्टरानी बन गयी, यहाँ पर भी उसे कोई कष्ट नहीं हुआ। अब मैं इसको बताऊंँगा कि रोना किसे कहते हैं और पास में जो उनका अपना छोटा सा बालक था, राजा ने आव देखा न ताव और बोले—अभी बताता हूँ कि रोना क्या होता है ? शोक क्या होता है ? और सात खन के महल से उस बालक को नीचे फेक दिया। कौतुक से रानी नीचे देखने लग गई कि राजा क्या कर रहे हैं, उसको पता नहीं कि राजा उसके बालक को नीचे पेंâक रहे हैं जिससे कि मुझे कष्ट उत्पन्न होगा और योगायोग से फिर उसने देखा कि नीचे जो उद्यान था, उस उद्यान के अशोक वृक्ष के ऊपर एक सिंहासन पर उसका पुत्र बैठा हुआ है, दोनों तरफ से देवता उसको चंवर ढोर रहे रहे हैं, बड़ी खुशी हुई। बोली—राजन्! क्या इसी को रोना कहते हैं ? राजा ने सोचा कि अभी इसके कोई तीव्र पुण्य का उदय है, यह नहीं सोच सकती है कि शोक, रोना, संक्लेश, कष्ट किसे कहते हैं ? उन्होंने कहा—समय आने पर बताऊँगा और फिर जब कुछ दिन के बाद उस उद्यान के अन्दर एक निमित्तज्ञानी मुनिराज आये तो राजा ने जाकर परिवार सहित उनका दर्शन किया और उनका सबसे पहला प्रश्न था—महाराज! कौन से ऐसे पुण्य कर्म का उदय है जो मेरी रानी शोक नाम की चीज को नहीं जानती, रोना किसे कहते हैं ? यह इसको ज्ञान नहीं है। मुनिराज बताते हैं—राजन्! इसने पूर्वजन्म में रोहिणी नाम का व्रत किया था और उसका फल आज इसको मिल रहा है। ये जीवन में कभी नहीं जान पाएगी कि रोना किसे कहते हैं ? शोक और दु:ख को मिटाने के लिये, रोना खत्म करने के लिये इन व्रतों की आराधना की जाती है और इसने निरतिचारपूर्वक उस व्रत को सम्पादित किया था, यही कारण है कि इसे रोने का अर्थ भी नहीं मालूम है। राजन कहते हैं कि भगवन्! मैंने भी दु:ख नहीं देखा, परन्तु मालूम तो है दु:ख किसे कहते हैं ? लेकिन जब दिखाने की कोशिश की तो मुझे भी पता नहीं लगा और मेरे बालक ने क्या पुण्य किया ? मुनिराज बोले—तुम सबने पूर्वजन्म में रोहिणी व्रत किया था इसलिये तुम्हें नहीं पता कि दु:ख और शोक किसे कहते हैं ? जब २७ दिनों के अन्दर आकाश में रोहिणी नक्षत्र का उदय होता है, उस दिन उपवास करके अथवा एकाशन करके भगवान वासुपूज्य पूजा, जाप्यपूर्वक कथा कही जाती है। यह व्रत पाँच साल, ७ साल या ९ साल तक किया जाता है और फिर इसका उद्यापन किया जाता है। यह रोहिणी व्रत की विधि है।
सातावेदनीय कर्म के आस्रव के कारण को बताते हैं—
भूतअनुवंपा—आयु कर्म के उदय से उन—उन योनियों में होने वाले प्राणियों को भूत कहते हैं, इस लक्षण से सभी संसारी प्राणी भूत कहलाते हैं। इनके ऊपर दया करना भूतअनुकंपा है।
व्रतीअनुवंपा—व्रतों को धारण करने वाले श्रावक और मुनि व्रती हैं इनके प्रति दया भाव होना व्रतीअनुकंपा है।
दया से परिणामों का आद्र्र—गीला हो जाना, दूसरे की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझकर वप जाना अनुवंपा है। इस तरह सर्व प्राणियों पर और सर्व व्रतधारियों पर अनुवंâपा करना भूत अनुवंपा और व्रती अनुकंपा है।
यहां प्रश्न उठा किजब भूत शब्द से सर्व प्राणी आ गये फिर व्रतिकों को अलग क्यों लिया है ?
उसका समाधान देते हुए कहा कि सर्व प्राणियों में भी व्रती लोग प्रधान हैं अत: इन्हें अलग लिया है। जैसे—क्षत्रिया आगता, शूरवर्मोऽपि—सब क्षत्रिय आ गये, शूरवर्मा भी आया है, जिस प्रकार यहां क्षत्रियों में शूरवर्मा शामिल था फिर भी कुछ उसकी विशेषता होने से उसका नाम अलग से लिया है, वैसे ही यहां भी भूत में सर्व प्राणी आ जाने से भी व्रतिकों की विशेषता होने से उन्हें अलग कर दिया गया है।
इन दोनों की दया में क्या अन्तर है ?
भूतों—सर्व प्राणियों में करुणा बुद्धि से अनुवंपा दया की जाती है। इन बेचारों को धन देकर, खाना खिलाकर या वस्त्र आदि देकर अथवा दया भाव दिखलाकर कैसे सुखी कर दूँ, यह भावना रहती है किन्तु व्रतिकों के प्रति अनुवंपा में भक्ति प्रधान होती है। इन्हें भक्तिपूर्वक आहारदान, औषधि दान आदि देकर मैं अपनी आत्मा का उपकार कर लूं, यह भाव प्रधान रहता है। ‘इन बेचारों को भोजन करा दूं’’ ऐसा व्रतिकों के प्रति और मुनियों के प्रति यदि भाव हो जावे तो गलत है। व्रतिकों को बेचारे, दीन नहीं समझना उनके प्रति आदर भाव होना चाहिए।
दान—अपनी वस्तु का पर के अनुग्रह—उपकार के लिए त्याग करना—देना दान कहलाता है।
सराग संयम—कर्मोदय के निमित्त से जिनकी कषाएं अभी समाप्त नहीं हुई हैं किन्तु उन्हें दूर करने के लिए तैयार हैं उन्हें सराग कहते हैं। छह काय के जीवों की रक्षा करना और पाँच इंद्रिय और मन को वश में रखना यह संयम है जो सराग होकर भी संयम पालन कर रहे हैं वे सराग संयमी हैं, उनका संयम सराग संयम कहलाता है।
योग—निर्दोष क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं। योग अर्थात् पूर्ण उपयोग से जुट जाना, दूषण को दूर करने के लिये योग शब्द को लिया है।
क्षमा—शुभ परिणामों से क्रोध को छोड़ना, किसी के बड़े से बड़े भी अपराध को माफ कर देना क्षमा है।
शौच—लोभ के सब प्रकारों का छोड़ना शौच है। अपने धन का त्याग नहीं करना, पर द्रव्य का अपहरण करना और धरोहर का हड़पना आदि लोभ के प्रकार हैं।
मध्य में आदि पद आया है उससे संयमासंयम, अकामनिर्जरा आदि लेना चाहिए। एकदेश व्रत पालन करना संयमासंयम है।
परतंत्रता के कारण भोजन, पानी आदि न मिलने पर उसे शान्ति से सहन करना अकाम निर्जरा है।
इसी प्रकार अर्हंतदेव की पूजा करना, बाल वृद्ध की सेवा करना, तपस्वियों की वैयावृत्ति करना, सरल परिणाम रखना, विनयशील होना, इन सब कारणों से साता वेदनीय का आस्रव होता है। इससे इस लोक में भी सुख मिलता है और परलोक में भी सुख मिलता है।
कोई भी बीमारी या कष्ट आता है उसे सहन तो करना ही पड़ता है। यदि शान्ति से सहन करें तो सातावेदनीय का आस्रव हो जाता है और यदि अशान्ति करते हुए सहन करें तो असाता का आस्रव होता है। ऐसे ही आपस में प्रेमभाव रखने से, सहनशीलता होने से, हिंसा, झूठ आदि पाप प्रवृत्तियों से बचकर अहिंसा, सत्य आदि धर्म में प्रीति रखने से, सदाचार प्रवृत्ति से भी साता वेदनीय का आस्रव होता है। गुरुओं को आहारदान, औषधिदान देने से, तीर्थयात्रा करने से, रथयात्रा आदि धर्मप्रभावना के कार्यों से, जिनमंदिर, तीर्थक्षेत्र आदि का जीर्णोद्धार कराने से, जिनप्रतिमा, जिनमंदिर आदि के निर्माण से, सिद्धचक्र, इन्द्रध्वज आदि विधान कराने से, इन अनेक धार्मिक कार्यों से सातावेदनीय कर्म का आस्रव होता है।
मोहनीय कर्म के दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय ऐसे दो भेद होते हैं उनमें से पहले दर्शनमोहनीय कर्म के आस्रव बताते हैं—
केवली—ज्ञानावरण कर्म का पूर्ण रूप से क्षय हो जाने जिनके स्वाभाविक अनन्तज्ञान प्रगट हो गया है, जिनका ज्ञान इन्द्रिय से परे अतीन्द्रिय है काल क्रम और दूर देश आदि के व्यवधान से रहित हैं वे केवली हैं।
श्रुत—जो सर्वज्ञदेव द्वारा उपदिष्ट और गणधर देव के द्वारा ग्रंथ रचना रूप से ग्रथित है। इसके आगे आचार्य परम्परा से धारण किया गया है वह श्रुत है उसे ही जिनधर्म कहते हैं।
संघ—रत्नत्रय की आराधना में तत्पर चर्तुिवध मुनियों का समूह संघ है अथवा मुनि, र्आियका, श्रावक, श्राविका इन चर्तुिवध समूह को भी संघ कहते हैं।
धर्म—अहिंसा आदि को धर्म कहते हैं। रत्नत्रय धर्म है, वस्तुस्वभाव धर्म है, उत्तम क्षमा आदि धर्म है और अहिंसा धर्म है। ये चार धर्म के लक्षण हैं। सारे धर्म इसी में आ जाते हैं।
देव—देवगति नामकर्म के उदय से भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक ये चार प्रकार के देव कहलाते हैं।
शास्त्रों में लिखा है कि मद्य पीना, मांस खाना गुण है दोष नहीं है, कामातुर को रतिदान देना तथा रात्रि भोजन करना आदि में दोष नहीं है, इत्यादि वचन बोलना श्रुत का अवर्णवाद है।
ये श्रवण दिगम्बर मुनि शूद्र हैं, स्नान न करने से मलिन हैं, अपवित्र हैं, नग्न रहने से निर्लज्ज हैं, इस लोक में दुखी हैं और परलोक में भी दुखी रहेंगे, इत्यादि वचन संघ का अवर्णवाद करने वाले हैं।
जिनेन्द्रदेव के द्वारा कहा गया धर्म निर्गुण है, इसको धारण करने वाले असुर होंगे अथवा जीवों की बलि करना, हवन में जीवों को होम देना आदि भी धर्म है इत्यादि वचन धर्म का अवर्णवाद करने वाले हैं। देव मद्य मांस का सेवन करते हैं, अहिल्या आदि मानुषी स्त्री में आसक्त हो गये थे इत्यादि वचन बोलना देवों का अवर्णवाद है।
प्राय: देखा जाता है कुछ लोग संघ के साधु—साध्वियों की निंदा करने में बहुत ही मजा लेते हैं हँसते—हँसते कर्म बंध कर लेते हैं किन्तु जब उसका कटु फल भोगना पड़ता है तब रोते हैं इसीलिये आचार्यों का कहना है कि निन्दा तो निन्दनीय व्यक्ति की भी नहीं करनी चाहिए फिर भला केवली आदि भगवान और उनके धर्म, श्रुत तथा उस पर चलने वाले मुनि आदि की तो कैसे करना, किन्तु किन्हीं—किन्हीं का ऐसा स्वभाव बन जाता है कि बिना किसी की निन्दा किये उन्हें भोजन ही नहीं पचता है। कई लोग आकर बड़े गौरव से अपनी ऐसी विशेषता प्रगट करने लगते हैं लेकिन यह किसी भी हालत में कभी भी गुण नहीं है प्रत्युत महा अवगुण है।
प्राय: कुछ लोग आजकल नदी के किनारे या पर्वत की चोटी पर ध्यान करने वाले साधु देखना चाहते हैं किन्तु आजकल उत्तम संहनन के अभाव में ऐसी तपश्चर्या संभव नहीं है। इस कलिकाल में हीन संहनन से भी नग्न मुद्रा धारण कर अट्ठाईस मूलगुणों का पालन करने वाले साधु दिख रहे हैं। एक वस्त्र मात्र परिग्रह धारण करने वाली र्आियकाएं अपनी चर्या पालन कर रही हैं और यह र्नििववाद सिद्ध है कि पंचमकाल के अन्त तक मुनि, र्आियका, श्रावक, श्राविका रूप चर्तुिवध संघ रहेगा अत: श्रावकों का भी यह कर्तव्य हो जाता है कि हम श्रावकाचार के अनुसार अणुव्रती बनें, दान पूजन आदि क्रियाएँ नित्यप्रति करें और संघ, श्रुत, धर्म आदि की निन्दा न कर उनसे लाभ लेवें, गुणग्राही बनें। इस निन्दा अवर्णवाद से दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव होता है जो अनन्त संसार तक दुख देने वाला है, संसार में ही भ्रमाने वाला है उससे डरते रहें।
अवर्णवाद किसे कहते हैं ? जिसमें जो दोष नहीं होता उसे वह दोष लगाना अवर्णवाद है। दर्शनमोहनीय का आस्रव कैसे होता है ? जैसे—हम मन्दिर में दर्शन करने गए, दरवाजा बन्द है, चाभी नहीं मिल रही, क्यों ? हमारे दर्शनावरणीय कर्म का उदय था।
केवली का अवर्णवाद—केवली भगवान बनने के बाद उन्हें भूख नहीं लगती, वे आहार भी ग्रहण नहीं करते लेकिन एक सम्प्रदाय ऐसा है जो कहता है कि केवली कवलाहार करते हैं। जैसे हम लोग आहार करते हैं वैसे केवली भी आहार करते हैं। यह कहना केवली का अवर्णवाद है। श्रुत का अवर्णवाद—अरे! महावीर स्वामी ने उस समय कह दिया होगा, आचार्यों ने उस समय लिख दिया होगा, पहले बड़े-बड़े पॉवर के बल्ब नहीं थे इसलिये उन्होंने कहा होगा कि रात्रि में भोजन करना पाप है, हिंसा का दोष लगता है। आज के जमाने में यह नहीं लागू होगा।
आज के जमाने में लोग कहते हैं कि महावीर स्वामी गये। महावीर स्वामी ने जब यह बात कही थी तब इतना आधुनिकीकरण नहीं हुआ था, विज्ञान ने इतनी उन्नति नहीं की थी। इतनी पॉवर की ट्यूबलाईट और बल्ब उत्पन्न नहीं हुए थे, आज तो हमको सब कुछ दिखता है लेकिन आपको नहीं मालूम कि महावीर स्वामी का धर्म बिल्कुल साइंटिफिक धर्म है। जो बैक्टीरिया सूर्य की रोशनी में अपने आप नष्ट हो जाते हैं वही बैक्टीरिया बल्ब की रोशनी में और ज्यादा उत्पन्न होते हैं और खाने के साथ घुल जाते हैं। लेकिन हमारी क्या मानसिकता है कि महावीर स्वामी ने बहुत पहले कहा था। एक सज्जन ने यही कहा, बोले—महावीर भगवान तो हो चुके हैं, आप महावीर स्वामी के जमाने की बात जाने दीजिये, आप आधुनिक भगवान की बात कीजिये। मैंने कहा कि अगर महावीर स्वामी हो सकते हैं तो आपको भी होना पड़ेगा। भगवान महावीर हैं, वे कभी भी नहीं हो सकते। पंचमकाल तक महावीर भगवान का शासन चलेगा और आपको यह श्रद्धान रखना पड़ेगा। अगर महावीर को मानेंगे तभी आपको भी एन्ट्री करने की आवश्यकता है वर्ना आपको भी होना पड़ेगा। यह श्रुत का अवर्णवाद है।
एक पंडितजी रोज शास्त्र बाँचने राज्य में जाते थे। राजा माँसाहारी था। पंडितजी बड़े चतुर थे। एक जगह शास्त्र में आया कि जो माँस का एक कण भी सेवन करता है रौरव नामक नर्वâ में जाता है। पंडितजी ने वहाँ एक चिट लगा दी और आगे पढ़ते गये, क्योंकि राजा मांसाहारी था, राजा को कैसे सुनाते ? पुन: एक दिन क्या हुआ ? पंडित जी कहीं चले गये। अपने बेटे की ड्यूटी लगाकर गये कि जाकर तुम राजा को शास्त्र सुना देना। बेटा आया और जहाँ पर चिट लगी देखी वहीं से सुनाना शुरू कर दिया। पहला ही वाक्य सुनना था कि राजा ने कहा—बंद कर दो शास्त्र। दरअसल उसने सुना दिया कि जो एक कण भी मांस का सेवन करता है वह रौरव नामक नर्वâ में जाता है। राजा ने कहा—क्या बात करता है ? आज तक तेरे पिता ने ऐसी बात नहीं कही, आज आते ही तूने ऐसा कह दिया। लड़का बोला—महाराज! शास्त्र में ऐसा ही लिखा है। राजा बोला—मैं नहीं जानता शास्त्र की बात और उसे अगले ही दिन सूली पर लटकाने की सजा दे दी। अब वह घर गया, बेचारा बड़ा ही चिंतित था, जैसे ही रात में पिताजी आए, पिताजी को समाचार सुनाया। पिताजी समझ गये कि इसने बेवकूफी कर दी है। बोले—तूने बहुत बड़ी बेवकूफी की है। जब जानता था कि राजा मांसाहारी है तो उसके सामने ऐसी बात क्यों कही। खैर, कल मैं कोशिश करूँगा। दूसरे दिन उसका पिता महल में आया और राजा से कहा—राजन्! आपने बहुत अच्छी सजा दी है लेकिन मैं एक बात जरूर कहना चाहता हूँ। आप मेरे बेटे को सूली की सजा दे दें लेकिन अर्थ के प्रतिपादन में उससे भूल हो गयी है, बालक ही है ना। राजा बोले—तो तुम ही बता दो। पंडित जी बोले—राजन्! शास्त्र में जो पंक्ति लिखी है उसके अतिरिक्त भी अर्थापत्ति से अर्थ जोड़ना पड़ता है, आगे पीछे का सम्बन्ध जोड़ना पड़ता है। राजा बोले—यह तो बिल्कुल ठीक है। पंडित जी ने कहा—इसमें लिखा है कि एक कण मांस का सेवन करने वाला नर्वâ में जाता है और जो डल्ले के डल्ले मांस खाता है वह स्वर्ग में जाता है। अब राजा खुश हो गया और उसने उसके पुत्र को अभयदान दे दिया। पुत्र को अभयदान तो मिल गया लेकिन पंडितजी की आत्मा तो नरक का पात्र बन गयी क्योंकि उसने श्रुत का अवर्णवाद किया था।
चारित्रमोहनीय के आस्रव के क्या कारण हैं उसे बताते हुए आचार्यश्री सूत्र अवतरित करते हैं—
बाँधे हुये कर्म का द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के निमित्तों से फल देने लगना उदय है। कषायों के तीव्र उदय से होने वाले संक्लिष्ट परिणाम चारित्रमोह के आस्रव के कारण हैं।
और भी अनेक कारण हैं जिन्हें बताते हैं—
धर्म का नाश करना या हानि पहुँचाना,
धर्म में अंतराय करना—विघ्न डालना,
किसी को शीलगुण, देश संयम और सकल संयम से च्युत करना।
मद्य, मांस आदि से विरक्त जीवों को त्याग से बिचकाना।
चारित्र को ग्रहण करके उसमें दूषण लगाना।
अनेक प्रकार की क्रीड़ा करना, दूसरे के चित्त को आर्किषत करना, देशादि के प्रति अनुत्सुकता, प्रीति उत्पन्न करना आदि कारणों से रति नो कषाय का आस्रव होता है।
रति का विनाश करना, पर में अरति उत्पन्न करना, पापाचारी व्यक्तियों की संगति करना, अकुशल क्रियाओं को प्रोत्साहन देना आदि कारणों से अरति नो कषाय का आस्रव होता है।
स्वयं शोक करना, दूसरों से कराना, दूसरे को दु:ख उत्पन्न करना, शोक करते हुये का अभिनंदन करना आदि कारणों से शोक नो कषाय का आस्रव होता है।
स्वयं भयभीत रहना, दूसरे को भय उत्पन्न करना, निर्दय होना, त्रास आदि कारणों से भय नो कषाय का आस्रव होता है। धर्मात्माओं से चतुर्वर्ण विशिष्ट वर्ग कुल आदि की क्रिया आदि में तत्पर पुरुषों से ग्लानि करना, दूसरे की बदनामी करना आदि जुगुप्सा वेदनीय के आस्रव के कारण हैं।
अत्यन्त क्रोध के परिणाम, अतिमान, अत्यन्त ईष्र्या, मिथ्याभाषण, छल कपट, प्रपंच तत्परता, तीव्रराग, परांगना गमन, स्त्रीभावों में रुचि आदि स्त्रीवेद आस्रव के कारण हैं।
मन्दक्रोध, कुटिलता न होना, अभिमान न होना, निर्लोभ भाव, अल्पराग, स्वदार संतोष, ईष्र्यारहित भाव, स्नान गंध माला आभरण आदि के प्रति आदर न होना आदि पुरुषवेद आस्रव के कारण हैं।
प्रचुर क्रोध, मान, माया, लोभ, गुप्त इन्द्रियों का विनाश, स्त्री पुरुषों में अनंग क्रीड़ा व्यसन, शीलव्रत गुणधारी और दीक्षाधारी पुरुषों को बिचकाना, परस्त्री पर आक्रमण, तीव्रराग, अनाचार आदि नपुंसकवेद के आस्रव के कारण हैं। कषायों के क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार भेद हैं, पुन: अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन की अपेक्षा चार—चार भेद होने से सोलह भेद हो जाते हैं। हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद ये नौ नोकषाय कहलाती हैं। इन सबके आस्रव का यहाँ संक्षेप से वर्णन किया है। नरक आयु के आस्रव के कारण का वर्णन करते हैं—
मिथ्यादर्शन, अशिष्ट आचरण, उत्कृष्ट मान, पत्थर की रेखा के समान क्रोध, तीव्र लोभ, अनुवंâपा रहित परिणाम, पर के परिताप में खुशी, वध—बंधन आदि का अभिप्राय, प्राणभूत सत्व और जीवों की सतत हिंसा करना, प्राणिवध, असत्य भाषण का स्वभाव, परधन हरण, गुपचुप रागी चेष्टाएं, मैथुन प्रवृत्ति, महा आरम्भ, इंद्रियपरवशता, तीव्र कामभोगाभिलास, नि:शीलता, पापनिमित्तक भोजन, बद्धवैरता, व्रूरतापूर्वक रोना चिल्लाना, अनुग्रह रहित स्वभाव, यतिवर्ग में फूट पैदा करना, तीर्थंकर की आसादना, कृष्णलेश्यारूप रौद्र परिणाम, रौद्रभाव पूर्वक मरण आदि नरक आयु के कारण हैं।
तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में भी कहा है—
जो मदिरा पीते हैं, मांस खाते हैं, जीवों का घात करते हैं, शिकार खेलते हैं, इन क्षण मात्र सुख के लिये पाप का संचय करते हैं वे नरक में जाकर अनन्त दु:खों को भोगते हैं। जो तीव्र लोभ, क्रोध, मान, भय और मोह के निमित्त से असत्य बोलते हैं वे नरक में उत्पन्न हो जाते हैं। प्रियजनों को मारकर पट्टादि ग्रहण कर पर धन को हरण करने वाले तथा अन्य सैकड़ों अन्यायों को करने वाले मूर्ख लोग नरक का द्वार खोल लेते हैं। लज्जा से रहित, काम से उन्मत्त, जवानी में मस्त, परस्त्री में आसक्त और रात—दिन मैथुन सेवन करने वाले लोग नरकों में जाकर घोर दु:ख प्राप्त करते हैं। पुत्र, स्त्री, स्वजन और मित्रों के जीवन के लिये दूसरों को ठगने वाले तथा परधन को हरण करने वाले पापी नरकों में तीव्र भयंकर दु:ख भोगकर कालांतर में निगोद रूप महा अंधवूâप में प्रवेश कर जाते हैं इसलिये इन नरक आयु के कारणों से बचना चाहिए।
अब प्रश्न आया किबहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से नरक आयु का आस्रव होता है तो फिर कोशों के फैलाव में जिनमंदिर बनवाने वाले, बड़े—बड़े मुनि संघों को तीर्थ यात्रा कराने वाले और बहुत बड़े पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि आयोजन कराने वाले भी बहुत आरम्भी व बहुत परिग्रहवान देखे जाते हैं तो क्या ये भी नरकायु का बंध कर लेते हैं ?
उसके समाधान में बताया है कि नहीं, प्रत्युत जो अपने इन्द्रिय विषयों की पुष्टि के लिये बहुत आरम्भ बहुत परिग्रह रखते हैं वे नरकायु का बन्ध करते हैं न कि धर्म कार्यों में। बल्कि इन विशेष धर्म कार्यों से तो निश्चित ही महान पुण्य बंध होकर देवायु का बंध होता है और परम्परा से संसार का नाश होकर मोक्ष प्राप्त होता है। कहा भी है कि—जो धनिया के पत्ते बराबर मंदिर बनवाकर सरसों बराबर जिनप्रतिमा विराजमान करता है उसके पुण्य का तो कहना ही क्या ? ऐसे ही तीर्थयात्रा कराने व प्रतिष्ठा आदि आयोजनों के भी आरम्भ में भले ही िंकचित पाप हो किन्तु वह उसी पुण्य से नष्ट होकर महान पुण्य का संचय करा देता है ऐसा समझना चाहिए। जब बहुत आरम्भ और परिग्रह का भाव होता है उसमें अति मूच्र्छा से अशुभ परिणाम भी होते हैं जो नरकायु के आस्रव के कारण होते हैं।
यहाँ छहखण्ड के अधिपति चक्रवर्ती को इसलिये नहीं लिया जा सकता कि वे उसमें मूच्र्छा नहीं रखते हैं और एक सूक्ति है कि ‘मरे राज्य में नर्वâ लहाय’ जो राज्य में मर जाते हैं जैसे सुभौम चक्रवर्ती आदि, वे तो नर्वâ चले जाते हैं और जो उसका पालन करते हुए, उसका भोग करते हुए भी अंत में उसको छोड़कर दीक्षा ले लेते हैं वे नियम से स्वर्ग या मोक्ष जाते हैं इसलिये जो बहुत आरम्भ और परिग्रह कहा है इसमें मूच्र्छा को ही प्रमुख रखना कि आरम्भ और परिग्रह में आसक्ति की भावना रखने से नरक आयु का आस्रव होता है।
तिर्यंच आयु के आस्रव के क्या कारण हैं ? इस पर आचार्यश्री कहते हैं—
इसके सहचारी और भी कारण हैं—मिथ्यात्व सहित अधर्म का उपदेश देना, बहुत आरम्भ करना, बहुत परिग्रह रखना, अति वंचना करना, कूट क्रियाओं को करना, पृथ्वी की रेखा के समान क्रोध आदि कषाएं करना, शील का पालन नहीं करना, शब्द और संकेत आदि से पर को ठगने का षडयन्त्र बनाना। छल प्रपंच में रुचि रखना, किसी के परस्पर प्रेम में भेद डालना, अनर्थक क्रियाएं करना, वर्ण, गंध, रस आदि को विकृत करना, किसी के जाति कुल शील में दूषण लगाना, विसंवाद में रुचि लेना, मिथ्या कार्यों से जीविका चलाना, दूसरों के सद्गुणों का लोप करना, अपने असत् गुणों का ख्यापन करना, नील और कापोत लेश्या के परिणाम होना, आर्त ध्यान करना, मरते समय आर्त—रौद्र दुध्र्यान होना आदि कारणों से तिर्यंचायु का आस्रव होता है।
निमित्त मिलने पर माया कषाय के उदय से मन में छल-प्रपंच करने का भाव पैदा होना माया कहलाती है। मरने के समय अशुभ लेश्या और आर्त ध्यान रहे, कुटिल कार्यों को करने में मन रमा रहे, नील लेश्या और कापोत लेश्या वाले भाव बने रहें इत्यादि जितने भी अशुभ भाव हैं वे सब तिर्यंचायु के आस्रव में कारण बनते हैं। हम दशलक्षण पूजा में पढ़ते हैं—मृदुमति मुनि ने कपट किया, हाथी बनकर दु:खित हुआ। इतने तपस्वी साधु थे लेकिन थोड़े से नाम और प्रभावना के लालच में आकर स्वयं को मासोपवासी मुनि कहकर पूजा करवाते रहे। एक बार भी यह नहीं कहा कि मैं वह मुनि नहीं हूँ, वह मुनि कोई और थे जो विहार कर गये। उन्होंने सोचा कि मेरा नाम, मेरी पूजा कम हो जायेगी। बस सारी तपस्या बेकार चली गई और उन्होंने तिर्यंच आयु का बन्ध कर लिया इसलिये आचार्य कहते हैं कि भाई! कभी मायाचारी नहीं करना।
मनुष्यायु के आस्रव के कारणों को बताते हैं—
मनुष्यायु की प्राप्ति करने के बाद सदैव धर्मध्यान में बढ़ना चाहिये और जब तक जन्म हो मनुष्यायु की प्राप्ति हो इसके लिये थोड़ा आरम्भ व परिग्रह रखना चाहिए। इसके लिये आचार्यों ने शास्त्रों में बताया कि आप महाव्रत नहीं ले सकते तो अणुव्रत ले लीजिये। उसे लेने के बाद स्वयमेव आरम्भ और परिग्रह की सीमा निर्धारित हो जायेगी और शेष का आपको दोष नहीं लगेगा। फिर अणुव्रती तो नियम से देवगति प्राप्त करता है यह शास्त्र कहते हैं।
मनुष्यायु के अन्य भी कारण हैं—
किसी के उपदेश के बिना होने वाला स्वाभाविक मृदु स्वभाव भी मनुष्यायु के आस्रव का कारण है । इस सूत्र को पृथक बनाने का अभिप्राय यही है कि इस सूत्र का सम्बन्ध आगे बताए जाने वाले देवायु के आस्रवों से भी करना है । तात्पर्य यह है कि मृदु स्वभाव से मनुष्यायु का भी आस्रव होता है और देवायु का भी आस्रव होता है ।
चारों आयु के आस्रव के कारण क्या हैं, सो ही बताया है—
शील और व्रतों से रहितपना सभी आयु के आस्रव का कारण है। व्रत, शीलरहित मनुष्य यदि बहुत आरम्भी, बहुत परिग्रही, तीव्र कषाय आदि परिणाम से सहित होते हैं तो नरक आयु का आस्रव कर लेते हैं। यदि मायाचारी की बहुलता है तो तिर्यंचायु का आस्रव कर लेते हैं। यदि अल्पारम्भ—अल्प परिग्रह है, स्वभाव कोमल है तो मनुष्यायु का आस्रव कर लेते हैं और यदि भोगभूमिज मनुष्य या तिर्यंच हैं तो वहां पर व्रत और शील नहीं होते हुए भी सरल परिणाम और कषायों की मंदता से देवायु का आस्रव कर लेते हैं। चूँकि भोगभूमिया मरकर भवनत्रिक देवों में जन्म लेते हैं या सौधर्म, ईशान स्वर्ग में जन्म लेते हैं। इसलिये व्रत शील से रहित जीव चारों आयु के आस्रव में से किसी का भी आस्रव कर सकते हैं।
शील कितने हैं ? सात—३ गुणव्रत और ४ शिक्षाव्रत। अहिंसा, सत्य आदि ५ व्रत हैं। व्रतों से रहित अवस्था, शील से रहित अवस्था, जिन्होंने जीवन में कुछ भी व्रत नहीं ग्रहण किये हैं उनकी गति कैसी होती है? अंत में जैसे उनके परिणाम होते हैं वैसी ही उनकी गति हो जाती है, उनके चारों आयु का आस्रव हो सकता है।
चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सभी जीव शील, व्रतादि से रहित असंयमी होते हैं और चारों प्रकार की आयुकर्म का आस्रव कर सकते हैं। प्रथम गुणस्थान से तृतीय गुणस्थान तक के जीव बहुत आरम्भ और बहुत परिग्रह से नरकायु का आस्रव करते हैं, माया से तिर्यंचायु का आस्रव और अल्प आरम्भ और अल्प परिग्रह तथा सरल भावों से मनुष्य तथा देवायु का आस्रव करते हैं। व्रत और शील का अभाव कहते हुए जब कषायों में अत्यन्त तीव्रता और अत्यन्त मन्दता होती है तभी वे क्रम से चारों आयु के आस्रव के कारण बनते हैं।
देवायु के आस्रव के कारण कहते हैं—
छठे गुणस्थान से लेकर दसवें गुणस्थान तक के मुनियों का संयमसराग— संयम कहलाता है। पहली प्रतिमा से लेकर ग्यारहवीं प्रतिमा तक के व्रतों के पालन करने वालों का संयम संयमासंयम कहलाता है क्योंकि इसमें त्रसहिंसा से विरति है अत: संयम है और स्थावर हिंसा से पूर्ण विरति न होने से असंयम है अत: संयमासंयम नाम सार्थक है। इसे देशसंयम या देशव्रत भी कहते हैं, बिना इच्छा के भी कुछ कारणों से भूख, प्यास आदि सहन करना और परिणाम में शांति बनाए रखना, उस समय जो कर्म नष्ट होते हैं उसे अकाम निर्जरा कहते हैं। जैन शास्त्र से बाह्य पंचाग्नि तप आदि कायक्लेश करना या सम्यग्दर्शन के बिना घोर तपश्चरण करना ये सब बालतप कहलाते हैं। ये सब देवायु के कारण हैं। इनसे अतिरिक्त और भी कारण हैं, उसे बताते हैं—
हित करने वाले मित्रों की संगति करना, आयतन, सच्चे देव, शास्त्र, गुरु और इनके उपासकों की सेवा करना, सद्धर्म श्रवण करना, अपने देश, कुल आदि का गौरव रखना, निर्दोष प्रोषध उपवास करना, तप की भावना भाना, बहुत श्रुत का अभ्यास करना, आगम के स्वाध्याय में तत्पर रहना, कषायों का निग्रह करना, पात्रों को दान देना, पीत और पद्मलेश्या के परिणाम होना, मरणकाल में धर्मध्यान की परिणति रखना इत्यादि कारणों से सौधर्म स्वर्ग आदि में जन्म के लिये कारण ऐसी देवायु का आस्रव होता है।
अव्यक्त सामायिक और सम्यग्दर्शन की विराधना आदि से भवनवासी, व्यंतर या ज्योतिष देवों की आयु बंधती है अथवा सम्यग्दर्शन न होने से उपर्युक्त कारणों से उत्तम सुखसम्पन्न मनुष्यों में भी जन्म हो सकता है।
सम्यग्दर्शन और पाँच अणुव्रतों से सहित तिर्यंच या मनुष्य प्रथम सौधर्म स्वर्ग से लेकर सोलहवें अच्युत स्वर्ग पर्यंत जन्म लेते हैं। यदि सम्यग्दर्शन छूट जाए तो भवनत्रिक में जन्म ले लेते हैं। तत्वज्ञान से रहित बाल तप करने वाले अज्ञानी मनुष्य मंद कषाय के कारण कोई भवनत्रिक में उत्पन्न होते हैं, कोई सहस्रार नामक बारहवें स्वर्ग पर्यंत भी उत्पन्न हो जाते हैं, कोई मरकर मनुष्य भी हो जाते हैं, कोई तिर्यंच भी हो सकते हैं।
अकाम निर्जरा—बिना इच्छा के भी कारणवश भूख प्यास का सहना, ब्रह्मचर्य पालन करना, पृथ्वी पर सोना, मलधारण आदि परिषहों से खेदखिन्न न होना, बंधन में पड़ जाने पर भी नहीं घबड़ाना, दीर्घकालीन रोग होने पर भी संक्लेश नहीं करना या धर्मबुद्धि से पर्वत के शिखर से गिरकर मरना, उपवास करना, अग्नि में प्रवेश करना—सती होना, धर्मबुद्धि से विष भक्षण आदि करना, कुतप करना आदि कारणों से व्यंतर योनियों में जन्म हो जाता है।
जिनने व्रत या शील धारण नहीं किया है फिर भी जो पापभीरू हैं, दयालु हैं, जलरेखा के समान मंदकषायी हैं—जैसे जल में लकड़ी मारते ही रेखा बन जाती है और तत्क्षण मिट जाती है ऐसे ही जो क्रोध, मान आदि करते भी हैं किन्तु अधिक काल तक उसे टिकाते नहीं हैं ऐसे मनुष्य या भोगभूमिज मनुष्य, तिर्यंच भवनत्रिक आदि देवों की आयु का आस्रव कर लेते हैं। भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी इन तीन प्रकार के देव को भवनत्रिक कहते हैं। देवायु के और भी कारण हैं—
यदि किसी ने पहले मिथ्यात्व अवस्था में नरकायु, तिर्यंचायु या मनुष्यायु का बंध कर लिया है पुन: यदि वह सम्यक्त्व प्राप्त कर लेता है तो उसे नरक में तो जाना ही पड़ेगा, हाँ, उत्कृष्ट नरकायु घटकर मात्र पहले नरक की थोड़ी आयु ही भोगनी पड़ेगी जैसे राजा श्रेणिक की पहले मुनि के गले में मृतक सर्प डालने से सातवें नरक की तेतीस सागर की आयु बंध गई थी पुन: सम्यक्त्व ग्रहण कर लेने के बाद तीर्थंकर के पादमूल में क्षायिक सम्यक्त्व तथा तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर लेने से उनकी वह तेतीस सागर की आयु घट—घट कर मात्र प्रथम नरक की चौरासी हजार वर्ष की ही आयु रह गई अत: आगे आने वाली उत्र्सिपणी के चतुर्थकाल के वे प्रथम तीर्थंकर महापद्मनाथ भगवान होंगे।
ऐसी ही यदि किसी ने सम्यक्त्व के पहले तिर्यंचायु बांध ली है पुन: सम्यक्त्व पाया है तो वह नियम से भोगभूमि का तिर्यंच होगा न कि कर्मभूमि का। इसी प्रकार यदि किसी ने मनुष्यायु बांध ली थी तो वह भी सम्यक्त्व के साथ मरकर नियम से भोगभूमि का मनुष्य होगा।
अत: उपर्युक्त सूत्र से यह समझना कि जिनके पहले कोई आयु नहीं बंधी है वे सम्यक्त्व प्राप्त कर सम्यग्दृष्टि महानुभाव नियम से देवगति ही प्राप्त करते हैं और उसमें भी भवनवासी, व्यंतर, ज्योतिषदेव न होकर वैमानिक देव ही होते हैं। इन वैमानिक देवों में भी आभियोग्य या किल्विषिक जाति के देव नहीं होते हैं क्योंकि अभियोग्य जाति के देवों को तो मर्हिद्धक देवों का वाहन बनना पड़ता है। ऐरावत हाथी, घोड़े आदि का रूप धारण करना पड़ता है और किल्विषिक जाति के देव तो हमेशा इन्द्र सभा से बाहर ही रहते हैं। वे वाद्य बजाने आदि के कार्य में नियुक्त किए जाते हैं। इसके अतिरिक्त सम्यग्दृष्टि स्त्री या पुरुष मरकर देव ही होते हैं देवी नहीं। चूँकि सम्यक्त्वी मरकर स्त्री पर्याय में जन्म नहीं ले सकते हैं अत: सम्यक्त्व की सर्वोत्कृष्ट महिमा है।
अशुभ नामकर्म के आस्रव के कारणों को कहते हैं—
अन्य प्रकार से प्रवृत्ति करना या अन्य प्रकार से प्रतिपादन करना विसम्वाद है। इन कार्यों से अशुभ नाम कर्मों की प्रकृतियों का, नरक आदि गति, एवेंद्रिय आदि जाति का आस्रव होता है। सूत्र में जो ‘च’ शब्द है उससे और अनुक्त का समुच्चय करना चाहिये। यथा—मिथ्यादर्शन, चुगलखोरी, अस्थिरचित्त, झूठे बांट तराजू आदि रखना, नकली सोना, चाँदी, मणि, रत्न आदि बनाना, झूठी गवाही देना, अंग उपाँगों का छेदन करना, किसी वस्तु के वर्ण, रस, गंध, स्पर्श को विपरीत कर देना,हिंसा के कारण आदि यंत्र पींजरा आदि बनाना, माया की बहुलता होना, परनिंदा करना, आत्मप्रशंसा करना, मिथ्या भाषण करना, परद्रव्य हरण करना, महाआरंभ करना, महापरिग्रह रखना, शौकीन वेष धारण करना, रूप का घमंड करना, कठोर असभ्य वचन बोलना, गाली बकना, व्यर्थ बकवास करना, वशीकरण प्रयोग करना, दूसरों में कुतूहल उत्पन्न करना, आभूषणों में अधिक रुचि रखना, मन्दिर से गंध माल्य धूप आदि का चुराना, लम्बी हँसी हँसना, र्इंटों का भट्टा लगाना, वन में दावाग्नि जलाना, प्रतिमायतन विनाश—प्रतिमा या मंदिर को नष्ट करना, आश्रयविनाश—किसी के रहने के स्थान मकान, झौंपड़ी या धर्मशाला आदि को नष्ट कर देना, आराम—उद्यान विनाश—बगीचों को उजाड़ देना, तीव्र क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों को करना और पापकर्म की आजीविका करना जैसे पशुविक्रय, मदिरा, जूते आदि के व्यापार करना, इत्यादि कार्यों से अशुभ नामकर्म का आस्रव होता है।
शुभ नामकर्म के आस्रव के कारण कहते हैं—
योगों की वक्रता और विसम्वादन से विपरीत अर्थात् योगों की सरलता (मन, वचन और काय को सरल बनाये रखना) और अन्यथा प्रवृत्ति के अभाव से (जिनवाणी में जैसा कहा है उसी के अनुसार आज्ञा सम्यक्त्व का पालन करते हुए वैसी ही अपनी चर्या को बनाना, क्रिया को ध्याना) शुभ नामकर्म का आस्रव होता है। अच्छी पर्याय में जन्म लेना, शत्रुओं में मित्रता करा देना, किसी भी प्राणी को गलत मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगा देना, सम्यग्दर्शन, चित्त की स्थिरता आदि शुभ नामकर्म के आस्रव में कारण बनते हैं।
अब तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव में होने वाले कारणों को बताते हैं—
१. दर्शनविशुद्धि—जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित निर्ग्रन्थ मोक्षमार्ग में रुचि दर्शनविशुद्धि है। इसके आठ अंग हैं—इस लोक, परलोक, व्याधि, मरण, अगुप्ति, अरक्षण और आकस्मिक इन सात भयों से मुक्त रहना अथवा जिनोपदिष्ट तत्व में ‘यह है या नहीं’ इस प्रकार की शंका नहीं करना नि:शंकित अंग है।
धर्म को धारण करके इस लोक और परलोक में विषय भोगों की आकांक्षा नहीं करना और अन्य मिथ्यादृष्टि संबंधी आकांक्षाओं का त्याग करना नि:कांक्षित अंग है।
शरीर को अत्यन्त अशुचि मानकर उसमें शुचिपने के मिथ्या संकल्प को छोड़ देना अथवा अर्हंत द्वारा उपदिष्ट प्रवचन में यह अयुक्त है, घोर कष्ट है, यह सब नहीं बनता आदि प्रकार की अशुभ भावनाओं से चित्त विचिकित्सा नहीं करना र्नििवचिकित्सा अंग है।
बहुत प्रकार के मिथ्यानयवादियों के दर्शनों में तत्वबुद्धि और युक्तियुक्तता छोड़कर मोहरहित होना अमूढ़दृष्टि अंग है। उत्तम क्षमा आदि धर्मभावनाओं से आत्मा की धर्मवृद्धि करना उपवृंहण अंग है।
कषायोदय आदि से धर्मभ्रष्ट होने के कारण उपस्थित होने पर भी अपने धर्म से च्युत नहीं होना, उसका बराबर पालन करना स्थितिकरण अंग है।
जिनदेव द्वारा प्रणीत धर्मामृत से नित्य अनुराग करना वात्सल्य अंग है।
सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र रूप रत्नत्रय के प्रभाव से आत्मा को प्रकाशमान करना प्रभावना अंग है।
२. विनयसम्पन्नता—सम्यग्ज्ञान आदि मोक्ष के साधनों में तथा ज्ञान के निमित्त गुरु आदि का यथायोग्य आदर सत्कार आदि करना तथा कषाय की निवृत्ति करना विनयसंपन्नता है।
३. शीलव्रतेष्वनतिचार—अहिंसा आदि पाँच व्रत तथा उनके परिपालन के लिये क्रोधवर्जन आदि शीलों में मन, वचन, काय की निर्दोष प्रवृत्ति करना शीलव्रतेष्वनतिचार भावना है।
४. अभीक्ष्णज्ञानोपयोग—जीवादि पदार्थों को प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से जानने वाले मति, श्रुत आदि पांच ज्ञान हैं। अज्ञान अभाव इनका प्रत्यक्ष फल है तथा हितप्राप्ति, अहितपरिहार और उपेक्षा यह व्यवहित—परोक्षफल है। इस ज्ञान की भावना में सदा तत्पर रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना है।
५. संवेग—शरीर, मानस आदि अनेक प्रकार के प्रियवियोग, अप्रियसंयोग, इष्ट का अलाभ आदि सांसारिक दु:खों से नित्य भयभीत रहना संवेग भावना है।
६. शक्तितस्त्याग—पर की प्रीति के लिये अपनी वस्तु का देना त्याग है। आहार देने से पात्र को उस दिन प्रीति होती है। अभयदान से उस भव का दु:ख छूटता है अत: पात्र को संतोष होता है। ज्ञानदान तो अनेक सहस्र भवों के दु:खों से छुटकारा दिलाने वाला है। ये तीनों दान यदि विधिपूर्वक दिए गए हैं तो त्याग कहलाते हैं।
७. शक्तितस्तप—अपनी शक्ति को नहीं छिपाकर जैनमार्ग के अनुवूâल कायक्लेश आदि करना तप है। यह शरीर दु:ख का कारण है, अशुचि है, कितना भी विषय भोग सेवन किया जाय पर इसकी तृप्ति नहीं होती। यह अपवित्र होकर भी शीलव्रत आदि गुणों के संचय में आत्मा की सहायता करता है, ऐसा विचार कर विषयों से विरक्त हो आत्मकार्य के प्रति शरीर का नौकर की तरह उपयोग कर लेना उचित है अत: जिनमार्ग से अविरुद्ध कायक्लेश आदि करना तप है।
८. साधुसमाधि—जैसे भंडार में आग लगने पर वह प्रयत्नपूर्वक शांत की जाती है उसी तरह अनेक व्रत शीलों से समृद्ध मुनिगण के तप आदि में यदि कोई विघ्न उपस्थित हो जाए तो उसका निवारण करना साधुसमाधि भावना है।
९. वैयावृत्यकरण—गुणवान साधुओं पर आए हुए कष्ट, रोग आदि को निर्दोष विधि से दूर करना, उनकी सेवा आदि करना बहु उपकारी वैयावृत्यकरण भावना है।
१०. अर्हद्भक्ति—केवलज्ञान आदि अनंत गुणों के धारक, अठारह दोषों से रहित अर्हंतदेव में भावविशुद्धिपूर्वक अनुराग करना, उनकी पूजा, वन्दना, स्तुति करना अर्हद्भक्ति है।
११. आचार्यभक्ति—श्रुतज्ञान आदि दिव्यनेत्रधारी परहितप्रवण आचार्य में भावविशुद्धि से अनुराग करना, उनकी पूजा, वन्दना, स्तुति करना आचार्य भक्ति है।
१२. बहुश्रुतभक्ति—स्वसमय विस्तार के ज्ञाता बहुश्रुतज्ञानी गुरु के प्रति अनुरक्त हो उनकी वन्दना, भक्ति आदि करना बहुश्रुतभक्ति है।
१३. प्रवचनभक्ति—श्रुतदेवता के प्रसाद से कठिनता से प्राप्त होने वाले मोक्षमहल की सीढ़ी रूप प्रवचन में अनुराग करना, वन्दना, भक्ति करना प्रवचनभक्ति है।
१४. आवश्यक अपरिहाणि—सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह आवश्यक हैं। इन क्रियाओं को यथासमय बिना हानि के स्वाभाविक क्रम से करते रहना आवश्यक अपरिहाणि है। सर्वसावद्ययोग का त्याग कर चित्त को एकाग्ररूप से ध्यान में लगाना सामायिक है। तीर्थंकरों के गुणों का कीर्तन चतुर्विंशतिस्तव है। मन, वचन, काय की शुद्धिपूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्तपूर्वक वन्दना होती है। कृत दोषों की निवृत्ति प्रतिक्रमण है। भविष्य में दोष न होने देने के लिए सन्नद्ध होना प्रत्याख्यान है। अमुक समय तक शरीर से ममत्व का त्याग करना आवश्यक अपरिहाणि भावना है।
१५. मार्गप्रभावना—परसमयरूपी जुगनू के प्रकाश को पराभूत करने वाले ज्ञानसूर्य की प्रभा से इन्द्र के सिंहासन को वंâपा देने वाले महाउपवास आदि समीचीन तपों से तथा भव्यजन रूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्यप्रभा के समान जिनपूजा के द्वारा सद्धर्म का प्रकाश पैâलाना मार्ग प्रभावना नाम की भावना है।
१६. प्रवचनवत्सलत्व—जैसे गाय अपने बछड़े से अकृत्रिम स्नेह करती है उसी तरह र्धािमकजन को देखकर स्नेह से ओतप्रोत हो जाना प्रवचनवत्सलत्व है। जो र्धािमकों में स्नेह है वही तो प्रवचन स्नेह है। इस प्रकार धर्मात्मा के प्रति स्वाभाविक प्रेम होना ही प्रवचनवत्सलत्व भावना है।
ये सोलहकारण भावनाएं तीर्थंकर प्रकृति के आस्रव का कारण होती हैं।
कर्मभूमि के मनुष्य तीर्थंकर, केवली या श्रुतकेवली के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति को बांधते हैं। यद्यपि आज पंचमकाल में न तीर्थंकर हैं, न केवली हैं और न श्रुतकेवली ही हैं। फिर भी अच्छी तरह भाई गई, प्रवृत्ति में उतारी गई ये भावनाएं आगे भवों में तीर्थंकर प्रकृति का बंध करा सकती हैं अत: इन भावनाओंं को भाते हुए इनमें तन्मयरूप प्रवृत्ति बनाना चाहिए। यह जैनधर्म की ही विशेषता और उदारता है जो कि प्रत्येक व्यक्ति को तीर्थंकर प्रभु—मोक्षमार्ग के नेता बनने तक का अधिकार दे देती है बशर्ते अपनी प्रवृत्ति इस आगम कथित अनुसार बनानी चाहिए। इन उत्तम भावनाओं से इस भव में भी मानसिक शांति, परस्पर सौहार्द, यश और सुख प्राप्त होते हैं तथा परलोक में स्वर्ग, मोक्ष की विभूति मिलती ही मिलती है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
इन सभी भावनाओं में पहली दर्शनविशुद्धि भावना अति आवश्यक है इसलिये उसे सबसे पहले कहा गया है। इसके अभाव में अन्य सभी भावनाएँ हों तो भी तीर्थंकर नामकर्म का आस्रव नहीं होता है और अगर यह भावना है तो तीर्थंकर प्रकृति का आस्रव हो सकता है।
तीर्थंकर भी तीन प्रकार के होते हैं—(१) जिनके पंचकल्याणक हों, (२) जिनके तीन कल्याणक हों, (३) जिनके दो कल्याणक हों। जिन्होंने पूर्वभव में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध कर लिया है उनके पंचकल्याणक होते हैं। जिनके वर्तमान मनुष्य पर्याय में भी गृहस्थ अवस्था में तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध हो जाता है उनके तप, ज्ञान और निर्वाण ये तीन कल्याणक होते हैं और जिनके वर्तमान मनुष्य पर्याय में मुनि दीक्षा लेकर तीर्थंकर प्रकृति बंधती है उनके ज्ञान और निर्वाण ये दो कल्याणक होते हैं। दूसरे और तीसरे प्रकार के तीर्थंकर विदेह क्षेत्र में ही होते हैं और जिस क्षेत्र में दूसरे तीर्थंकर न हों वहाँ ही होते हैं।
विशेष बात यह है कि केवली और श्रुतकेवली के पादमूल में ही तीर्थंकर प्रकृति का बन्ध होता है।
नीचगोत्र कर्म के आस्रव के क्या कारण हैं, उसको बताते हुए कहा है—
निन्दा किसे कहते हैं ? सच्चे अथवा झूठे दोषों को प्रकट करने की आदत निन्दा कहलाती है। गुण तो स्वयमेव विकसित हो जाते हैं, सुगन्धि पैâल जाती है, अपने गुणों को स्वयं क्या बखान करना। हम तो जितना चाहें दूसरे के गुणों को ग्रहण करने की भावना रखें और वैसा नहीं करने से नीच गोत्र का आस्रव होता है, नीच कुल में जन्म लेना पड़ता है। इसलिये कभी भी किसी के गुणों को देखकर ढकना अथवा उसकी निन्दा कभी भी नहीं करनी चाहिये अन्यथा नीच गोत्र का आस्रव होगा। इक्ष्वाकुवंश आदि उत्तमवंश व ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य रूप उत्तम वर्ण में जन्म लेना उच्चगोत्र है और इनसे अतिरिक्त हीन कुलों में जन्म लेना नीचगोत्र से होता है।
जाति, कुल, बल, रूप, विद्या, ऐश्वर्य और तप का मद करना, पर की अवज्ञा करना, दूसरे की हँसी करना, परिंनदा की आदत बना लेना, र्धािमकजनों का परिहास करना, परयश का लोप करना, मिथ्यार्कीित अर्जन करना, गुरुजनों का तिरस्कार करना, दोषों का ख्यापन करना, गुणों का अवसादन करना, छिपाना तथा पूज्यजनों को अंजलि जोड़कर नमस्कार नहीं करना, स्तुति नहीं करना, उनका अभिवादन नहीं करना, उनके आने पर उठकर खड़े नहीं होना, तीर्थंकरों के प्रति आक्षेप लगाना आदि कारणों से नीचगोत्र का आस्रव होता है।
उच्चगोत्र कर्म के आस्रव के कारण बताते हैं—
जाति, कुल, बल, रूप, वीर्य, ज्ञान, ऐश्वर्य और तप आदि की विशेषता होने पर भी अपने में अहंकार—बड़प्पन का भाव नहीं आने देना, पर का तिरस्कार न करना, उद्धत प्रवृत्ति को छोड़ना, असूया, उपहास, बदनामी आदि न करना, सहधर्मी व्यक्तियों का सम्मान करना, उनके सामने आने पर उठकर खड़े होकर उनका स्वागत करना, हाथ जोड़कर उन्हें नमस्कार करना, इस युग में अन्य जनों में न पाए जाने वाले ज्ञान आदि गुणों के होने पर भी उनका रंचमात्र अहंकार नहीं करना, विनम्र प्रवृत्ति रखना, भस्म से ढकी हुई अग्नि की तरह अपने गुणों से सहित रहना, जन—जन में उनका ढिंढोरा नहीं पीटना और धर्मकार्यों में अत्यन्त आदरबुद्धि रखना आदि कारणों से उच्चगोत्र का आस्रव होता है।
अब इस अध्याय के अन्तिम सूत्र में आचार्यश्री अन्तराय कर्म के आस्रव के कारणों को कहते हैं—
क्रम-क्रम से आठों कर्मों के आस्रव का कारण बताया है। दूसरे के द्वारा दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य में विघ्न डालने से अन्तराय कर्म का आस्रव होता है, जैसे कोई पढ़ रहा है उसे रोकना, कोई दान दे रहा है उसे मना करना, अपने से नहीं दिया जाता है उसमें विघ्न उपस्थित कर दिया। अरे! वहाँ लगाएगा तो लोग खा जायेंगे। खा जाएंगे तो उनको पाप का बन्ध होगा ना, लेकिन तुमने कहकर उसके भावों को परिवर्तित कर दिया, वह दान देना चाहता था उसमें विघ्न उपस्थित कर दिया। इससे अंतराय कर्म का आस्रव होता है अत: पर के दान में, लाभ में, भोग-उपभोग और वीर्य में विघ्न उपस्थित करना यह अन्तराय कर्म के आस्रव का कारण है।
ज्ञान प्रतिषेध, सत्कारोपघात, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, स्नान, अनुलेपन, गंध, माल्य, वस्त्र, आभूषण, शयन, आसन, भक्ष्य, भोज्य, लेह्य, पेय और परिभोग आदि में विघ्न करना, विभव समृद्धि में विस्मय करना, द्रव्य का त्याग नहीं करना, द्रव्य के उपयोग के समर्थन में प्रमाद करना, देवता के लिए चढ़ाए गए द्रव्य का अपहरण करना, निर्दोष उपकरणों को छोड़ देना, दूसरे की शक्ति का अपहरण करना, धर्म का व्यवच्छेद करना, कुशल चारित्र वाले तपस्वी गुरु तथा जिनप्रतिमा की पूजा में विघ्न करना, दाक्षिण दीन अनाथ को दिए जाने वाले वस्त्र पात्र आश्रय आदि में विघ्न करना, परनिरोध, गुह्य अंगच्छेद, कान, नाक, ओंठ आदि को काट देना तथा प्राणियों का वध करना आदि से भी अन्तराय कर्म का आस्रव होता है।
जैसे शराबी मदमोह विभ्रमकारी सुरा को पीकर उसके नशे में अनेक विकारों को प्राप्त हो जाता है अथवा जैसे रोगी अपथ्य भोजन करके अनेक वात, पित्त आदि विकारों से ग्रस्त हो जाता है; उसी तरह ऊपर कही हुई आस्रव विधि से ग्रहण किए गए ज्ञानावरण आदि आठ कर्मों से यह आत्मा चतुर्गति के भ्रमणरूप अनेक संसार विकारों को प्राप्त करता रहता है।
इन सभी कारणों को समझकर हमें यह निर्णय करना है कि हमें इन कर्मों को आने देना है अथवा नहीं आने देना है। निर्णय आपके ऊपर है अगर आने देना है फिर तो आप खुले मन से सारे पाप, सारी कषाय करते चले जाइए और सब कर्म आते चले जाएंगे लेकिन यदि नहीं आने देना है आपकी इच्छा है कि हमें जल्दी से जल्दी मोक्ष मिले तो आपको इन कारणों को समझकर इन कारणों को दूर करके अपने जीवन को समुन्नत बनाना पड़ेगा और यही इस अध्याय के पारायण की सार्थकता होगी।