द्वादशांग जिनवाणी को ग्रंथरूप में नहीं लिखा जा सकता
(दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान महावीर के बाद ६८३ वर्ष तक ही द्वादशांग श्रुत एवं उसके ज्ञाता आचार्य रहे हैं)
जैन वाङ्गमय द्वादशांगरूप है और दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार आज द्वादशांग उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि द्वादशांग लिखे ही नहीं जा सकते, लिपिबद्ध नहीं हो सकते। आज उपलब्ध जैन वाङ्गमय उस द्वादशांग का अंशमात्र ही है, जैसे नदी का जल कटोरी अथवा शीशी में भर लिया जाये। जैन श्रुत अर्थात् द्वादशांग अनादि-अनंत है और चौबीसों तीर्थंकर भगवान अपने-अपने काल में दिव्यध्वनि के द्वारा उसे प्रगट करते हैं। भगवान की दिव्यध्वनि को गणधर देव द्वादशांगरूप में निबद्ध करके भव्यजीवों को उसका पान कराते हैं।
भगवान महावीर आज से २६१२ वर्ष पूर्व जन्में और २५७० वर्ष पूर्व भगवान ने केवलज्ञान प्राप्त किया, ६६ दिन तक भगवान की दिव्यध्वनि नहीं खिरी, तब सौधर्म इन्द्र ने वेद-वेदांगों के पारंगत श्रेष्ठ ब्राह्मण इन्द्रभूति गौतम को उनके पाँच सौ शिष्यों के साथ भगवान के समवसरण में उपस्थित किया। मानस्तंभ को देखते ही गौतम गोत्रीय इन्द्रभूति ब्राह्मण का मान गलित हो गया, ‘जयति भगवान् हेमाम्भोजप्रचार……..’ इत्यादि रूप से उन्होंने भगवान की स्तुति की। केशलोंच करके जैनेश्वरी दीक्षा को धारण करते ही उन्हें सभी ऋद्धियाँ एवं मन:पर्ययज्ञान प्रगट हो गया तथा भगवान के प्रथम गणधर का पद उन्हें प्राप्त हो गया। वीर शासन जयंती, श्रावण कृ. एकम् के इस पावन दिवस भगवान की प्रथम दिव्यध्वनि खिरी एवं अन्तर्मुहूर्त में ही गौतम गणधर स्वामी ने इस दिव्यध्वनि को द्वादशांगरूप में निबद्ध कर दिया।
धवला पुस्तक १, पृ. ६५ पर उल्लिखित है-
तेण महावीरेण केवलणाणिणा कहिदत्थो तम्हि चेव काले तत्थेव खेत्ते खयोवसम-जणिद-चउरमल-बुद्धि-संपण्णेण बम्हणेण गोदम-गोत्तेण सयलदुस्सुदि-पारएण जीवाजीव-विसय-संदेह-विणासणट्ठमुवगय-वड्ढमाण-पाद-मूलेण इंदभूदिणावहारिदो।
इस प्रकार केवलज्ञान से विभूषित उन भगवान् महावीर के द्वारा कहे गये अर्थ को, उसी काल में और उसी क्षेत्र में क्षयोपशमविशेष से उत्पन्न हुए चार प्रकार के निर्मल ज्ञान से युक्त, वर्ण से ब्राह्मण, गौतमगोत्री, संपूर्ण दु:श्रुति में पारंगत और जीव-अजीवविषयक संदेह को दूर करने के लिए श्री वद्र्धमान के पादमूल में उपस्थित हुए ऐसे इन्द्रभूति ने अवधारण किया।
अर्थात् अर्थकर्ता भगवान महावीर हैं और ग्रंथकर्ता इन्द्रभूति गौतम गणधर स्वामी हैं। धवला पुस्तक ९ में भी पृ. १०७ पर विस्तार से इस विषय का एवं गौतम स्वामी की ऋद्धियों का वर्णन है।
भगवान महावीर के पश्चात् द्वादशांग श्रुत की परम्परा-
भगवान महावीर के मोक्ष जाने के बाद ६२ वर्ष तक अनुबद्ध केवली हुए हैं और १०० वर्ष तक श्रुतकेवली हुए हैं अर्थात् १६२ वर्ष तक ही द्वादशांग श्रुतज्ञान रहा है, इसके बाद द्वादशांग श्रुतज्ञान नहीं रहा।
धवला पुस्तक ९, पृ. १३० एवं जयधवला (कषायपाहुड़) पुस्तक-१, पृ. ६८७ के आधार पर यह स्पष्ट है कि-
जिस दिन भगवान महावीर मोक्ष गये, उसी दिन सायंकाल गौतम स्वामी को केवलज्ञान हो गया। केवली भगवान गौतम स्वामी १२ वर्ष तक रहे, जिस दिन उन्हें मोक्ष की प्राप्ति हुई, उसी दिन भगवान महावीर के द्वितीय गणधर श्री सुधर्माचार्य को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गयी, वह भी १२ वर्ष तक केवली अवस्था में रहे, पुन: उनके मोक्षगमन के दिन ही जम्बूस्वामी ने केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया। ये जम्बूस्वामी ३८ वर्ष तक केवली रहे हैं, इस प्रकार भगवान महावीर के पश्चात् १२±१२±३८·६२ वर्ष तक अनुबद्ध केवली रहे हैं।
पुन: नंदी आचार्य, नंदिमित्र आचार्य, अपराजित आचार्य, गोवर्धन आचार्य और भद्रबाहु आचार्य, ये पाँच श्रुतकेवली १०० वर्ष की अवधि में क्रम से हुए हैं।
इसके पश्चात् ११ अंग और १४ पूर्व रूप द्वादशांग श्रुत नहीं रहा। जो रहा, वो इस प्रकार है-
ग्यारह आचार्य ११ अंग और १० पूर्व के ज्ञाता हुए, जिनका काल रहा १८३ वर्ष। ये ग्यारह आचार्य थे-विशाख, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिषेण, विजय, बुद्धिल, गंगदेव एवं सुधर्माचार्य। अनंतर ५ आचार्य ११ अंग के धारी हुए, पूर्व का ज्ञान इनको नहीं रहा, इनका काल २२० वर्ष था। ये पाँच आचार्य थे-नक्षत्राचार्य, जयपाल आचार्य, पांडु आचार्य, ध्रुवसेन आचार्य और कंस आचार्य। पुन: सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु, लोहाचार्य ये चार आचार्य मात्र एक अंग-आचारांग के ज्ञाता हुए अर्थात् शेष १० अंग एवं १४ पूर्वों का ज्ञान लुप्त हो गया। इनका काल रहा ११८ वर्ष।
इस प्रकार गौतम स्वामी से लेकर आचारांग धारी आचार्यों तक का काल ६२±१००±१८३±२२०±११८·६८३ वर्ष प्रमाण हैं।
इसके पश्चात् श्री धरसेनाचार्य को अग्रायणीय पूर्व अर्थात् द्वितीय पूर्व के कुछ अंश का ज्ञान था, जिसे उन्होंने श्री पुष्पदंत-भूतबलि आचार्य को दिया, जिन्होंने श्री धरसेनाचार्य से प्राप्त ज्ञान के आधार पर षट्खण्डागम ग्रंथ की रचना की अर्थात् अंशज्ञान से षट्खण्डागम ग्रंथ की रचना हुई, जिसकी धवला टीका १६ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुई है।
कषायप्राभृत ग्रंथ के कर्ता श्री गुणधर आचार्य को पाँचवें पूर्व के कुछ अंश का ज्ञान था, जिससे उन्होंने कषायप्राभृत ग्रंथ रचा, जिसकी टीका जयधवला की १६ पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हो चुकी है।
द्वादशांग श्रुत अर्थात् ११ अंग एवं १४ पूर्वों का ज्ञान दिगम्बर मुनिराज को ही हो सकता है। आर्यिकाएँ ११ अंग तक का ही ज्ञान प्राप्त कर सकती हैं, जबकि ऐलक, क्षुल्लक एवं श्रावक वर्ग को द्वादशांग (एवं प्रायश्चित्त ग्रंथों) की ज्ञान-प्राप्ति का अधिकार नहीं है। देखें आचार्य वसुनन्दि कृत वसुनन्दि श्रावकाचार में पृष्ठ ११२ पर-
सिद्धंत-रहस्साण वि अज्झयणं देसविरदाणं।।३१२।।
यद्यपि आर्यिकाएँ पंचमगुणस्थान वाली हैं, फिर भी ये ग्यारहवीं प्रतिमाधारी क्षुल्लक, ऐलक की अपेक्षा उत्कृष्ट हैं, क्योंकि ये उपचार से महाव्रती संयतिका कहलाती हैं। मुनि के समान सर्व मूलगुणों को और समाचार क्रियाओं को पालन करती हैं। ग्यारह अंग तक श्रुत का अध्ययन करने का भी इनको अधिकार है।
पुराण ग्रंथ में भी सुना जाता है। उसे ही कहते हैं-
‘‘वह सुलोचना आर्यिका भी ग्यारह अंग के ज्ञान को धारण करने वाली हो गई।’’
द्वादशांग रचना गणधर ही करते हैं-
अब एक विशेष बात यह है कि कभी कोई विद्वान् अथवा साधुजन वर्तमान में यह प्रयास करें कि आचारांग आदि द्वादशांगों को ग्रंथ रूप में लिख लिया जाये, तो यह प्रयास कदापि भी नहीं किया जाना चाहिए। क्योंकि-
(१) दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार द्वादशांग श्रुत को निबद्ध करने का अधिकार मात्र गणधर देव को ही है, अन्य किन्हीं को नहीं है, श्रुतकेवली यद्यपि इस सम्पूर्ण द्वादशांग के ज्ञाता होते हैं तथापि वो भी इसे रचते नहीं है, गुरुमुख से पढ़कर ही इसका ज्ञान प्राप्त करते हैं। महान क्षयोपशम के धारी सभी श्रुतकेवली एकपाठी थे, मात्र सुनकर ही उन्होंने इस महान श्रुत को धारण कर लिया था।
श्रुतभक्ति में आचार्य पूज्यपाद स्वामी ने लिखा है-
अंगांगबाह्यभावितमनंतविषयं नमस्यामि।।
अर्थात्,
द्वादश भेद अनेक अनंत, विषययुत वंदूँ मैं जिनश्रुत।।
स्पष्ट है कि जिनवर द्वारा कथित बारह अंग एवं अंगबाह्य से संयुक्त जिनश्रुत गणधर स्वामी द्वारा रचित होता है। लघु श्रुतभक्ति की निम्न पंक्तियाँ भी दृष्टव्य हैं-
चित्रं बह्वर्थयुत्तंकं, मुनिगण वृषभैर्धारितं बुद्धिमद्भि:।।
मोक्षाग्रद्वारभूतं, व्रतचरणफलं श्रेयभावप्रदीपं।
भक्त्या नित्यं प्रवन्दे, श्रुतमहमखिलं सर्वलोवैककसारम् ।।१।।
श्रुतं धृतं तैश्च पुनः प्रकाशितं, द्विषट्प्रकारं प्रणमाम्हं श्रुतं।।२।।
पंचाशदष्टौ च सहस्रसंख्यमेतच्छ्रुतं पंचपदं नमामि।।३।।अरहंतभासियत्थं, गणहरदेवेिंह गंथियं सम्मं।
पणमामि भत्तिजुत्तो, सुदणाणमहोवहिं सिरसा।।४।।
अर्थात्
बुद्धिमंत मुनिपुंगव से, धारित बहुअर्थ सहित अमलान।।
मोक्ष अग्र का द्वार चरित, व्रत फलयुत ज्ञेयजगत् दीपक।
सर्वजगत् में सार सर्वश्रुत, को नित वंदूँ भक्तीयुत।।१।।
इन्द्रभूति यतिपति गणधर ने,श्रुत को धारण किया अनूप।।
उन गणधर देवों ने द्वादश, अंग सहित द्रव्यश्रुत को।
किया प्रकाशित इस पृथ्वी पर, नमूँ नमूँ मैं सब श्रुत को।।२।।
द्वादशांग श्रुत के पद इतने, वंदन करूँ नमाकर माथ।।३।।
उस श्रुतज्ञान जलधि को शिर से, प्रणमूँ भक्ति समन्वित मैं।।४।।
तीर्थंकर की धुनि, गणधर ने सुनि, अंग रचे चुनि ज्ञानमई।
सो जिनवर वानी शिवसुख दानी, त्रिभुवन मानी पूज्य भई।।
(२) इस संदर्भ में एक मुख्य तथ्य यह है कि द्वादशांग का एक मध्यम पद १६३४ करोड़, ८३ लाख ७८८८ अक्षर का होता है तथा द्वादशांग में कुल ११२ करोड़ ८३ लाख ५८ हजार ५ पद होते हैं, अत: द्वादशांग तो दूर एक पद की रचना करना ही कठिन है, तब द्वादशांग की रचना करने का विचार करना ही जिनवाणी के अवर्णवाद के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है।
(३) एक विचारणीय बिन्दु यह भी है कि यदि द्वादशांग श्रुत को लिखना संभव था तो श्रुतकेवली भद्रबाहु आचार्य ने द्वादशांग को क्यों नहीं रचा ? इसी प्रकार श्री धरसेनाचार्य जी के शिष्य श्री पुष्पदंत-भूतबलि आचार्यों ने द्वितीय पूर्व के किंचित् अंशमात्र से षट्खण्डागम ग्रंथ की रचना तो की, पुन: द्वादशांग को क्यों नहीं लिखा ?
कषायप्राभृत ग्रंथ के कर्ता श्री गुणधर आचार्य ने द्वादशांग की रचना क्यों नहीं की ?
कुंद-कुंद स्वामी जो साक्षात् विदेह क्षेत्र में विराजमान सीमंधर भगवान के समवसरण में जाकर आये, उन्होंने द्वादशांग की रचना का साहस नहीं किया, श्री उमास्वामी आचार्य ने तत्त्वार्थसूत्र की रचना की परन्तु द्वादशांग की रचना नहीं की, इसका कारण यही है कि द्वादशांग को निबद्ध करना शक्य ही नहीं है, इसलिए वर्तमान में ऐसा प्रयास दिगम्बर परम्परा का श्वेताम्बरीकरण करने जैसा ही है क्योंकि श्वेताम्बर परम्परा में ही आचारांग इत्यादि अंग लिखे गये हैं।
अत: वास्तविकता को समझकर किन्हीं को भी द्वादशांग की रचना करने का विचार कभी भी नहीं करना चाहिए। द्वादशांग के अंश के रूप में जो भी साहित्य-कषायपाहुड़, षट्खण्डागम, महाबंध एवं उन पर आधारित गोम्मटसार जीवकाण्ड, गोम्मटसार कर्मकाण्ड आदि ग्रंथों का स्वाध्याय-मनन-चिंतन करके अपने जीवन को सफल करना चाहिए तथा आगम-विरुद्ध किसी भी प्रक्रिया से स्वयं को सर्वथा पृथक् रखना चाहिए।
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