प्र.१. संवर का लक्षण क्या है ?
उत्तर— ‘‘आस्रव निरोधः संवर:’’ आस्रव का निरोध करना संवर है।
प्र.२. संवर के कितने भेद हैं ?
उत्तर— संवर के २ भेद हैं :- (१) द्रव्य संवर (२) भाव संवर।
प्र.३. संवर के हेतु कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘स गुप्ति समिति धर्मानुप्रेक्षापरीषहजय चारित्रै:।’’ संवर गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषह जय और चारित्र से होता है।
प्र.४. गुप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके बल से संसार के कारणों से आत्मा की रक्षा होती है वह गुप्ति है।
प्र.५. समिति किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्राणीपीड़ा परिहार के लिये भले प्रकार आना-जाना, उठाना- धरना, ग्रहण करना व मोचन करना समिति है।
प्र.६. धर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो इष्ट स्थान में धारण करता है वह धर्म है ।
प्र.७. अनुप्रेक्षा क्या है ?
उत्तर— शरीर आदि के स्वभाव का बार-बार चिंतन करना अनुप्रेक्षा है।
प्र.८. परीषह जय का लक्ष्ण बताईये।
उत्तर— क्षुधादि वेदना होने पर कर्मों की निर्जरा करने के लिये उसे सह लेना परीषह जय है।
प्र.९. चारित्र का लक्षण क्या है ?
उत्तर— कर्मों के आस्रव में कारणभूत बाह्य और आभ्यंतर क्रियाओं के त्याग करने को चारित्र कहते हैं।
प्र.१०. संवर और निर्जरा का हेतु क्या है ?
उत्तर— ‘‘तपसा निर्जरा च’’ तप से संवर और निर्जरा होती है।
प्र.११. गुप्ति का स्वरूप बताईये।
उत्तर— ‘‘सम्यग्योग निग्रहो गुप्ति:।’’ योगों का सम्यक् प्रकार से निग्रह करना गुप्ति है।
प्र.१२. योग क्या है ?
उत्तर— मन, वचन, काय की क्रिया को योग कहते हैं।
प्र.१३. निग्रह किसे कहते हैं ?
उत्तर— योगों की स्वच्छंद प्रवृत्ति को रोकना निग्रह है।
प्र.१४. गुप्ति के कितने भेद हैं ?
उत्तर— गुप्ति के ३ भेद हैं- (१) मनगुप्ति (२) वचन गुप्ति (३)कायगुप्ति।
प्र.१५. समितियाँ कितनी होती हैं ?
उत्तर— ‘‘ईर्याभाषैषणादाननिक्षेपोत्सर्गा:समितय: ’’ (१) ईर्यासमिति, (२) भाषासमिति,(३) एषणा समिति (४) आदान निक्षेपणसमिति (५) उत्सर्ग समिति। ये ५ समितियां हैं।
प्र.१६. ईर्या समिति क्या है ?
उत्तर— ‘‘मुनियों द्वारा दया युक्त भाव से चार हाथ आगे पृथ्वी को देखकर चलना सम्यक् ईर्यासमिति है।
प्र.१७. भाषा समिति क्या है ?
उत्तर— हित- मित और प्रिय वचन बोलना भाषा समिति है।
प्र.१८. एषणा समिति क्या है ?
उत्तर— छियालिस दोषों से रहित श्रावक के द्वारा बनाये गये भोजन को योग्य काल में ग्रहण करना एषणा समिति है।
प्र.१९. आदान—निक्षेपण समिति क्या है ?
उत्तर— संयम के उपकरणों को ध्यान पूर्वक सावधानी से रखना एवम् ग्रहण करना आदान— निक्षेपण समिति है।
प्र.२०. उत्सर्ग समिति क्या है ?
उत्तर— जीवरहित स्थान में मल — मूत्र का त्याग करना उत्सर्ग समिति है।
प्र.२१. समितियों का पालन क्यों किया जाता है ?
उत्तर— समितियां प्राणी— पीड़ा के परिहार का उपाय है।
प्र.२२. संवर के कारणभूत दस धर्म कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘उत्तम क्षमा मार्दवार्जव शौचसत्य संयम तपस्त्याग आकिंचन ब्रह्मचर्याणि धर्म: । उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव, उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन, उत्तम ब्रह्मचर्य ये दस धर्म हैं।’’
प्र.२३. धर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— ‘‘धारयति इति धर्म’’ जो धारण किया जाता है वह धर्म है।
प्र.२४. उत्तम क्षमा क्या है ?
उत्तर— दुष्ट स्वभावी व्यक्तियों द्वारा दुर्वचन बोलने अथवा दुर्व्यवहार करने के बाद भी कलुषता या क्रोध का उत्पन्न नहीं होना क्षमा भाव है ।
प्र.२५.उत्तम मार्दव क्या है ?
उत्तर— जाति, कुल आदि अष्ट मदों से उत्पन्न अभिमान का अभाव होना मार्दव धर्म है।
प्र.२६. उत्तम आर्जव धर्म क्या है ?
उत्तर— योगों का वक्र ना होना अथवा सरल परिणाम रखना उत्तम आर्जव धर्म है ।
प्र.२७. उत्तम शौच धर्म क्या है ?
उत्तर— लोभ का त्याग करना, उत्तम शौच धर्म है।
प्र.२८. उत्तम सत्य — धर्म क्या है ?
उत्तर— सज्जन पुरुषों के साथ सत्य एवम् साधु वचन बोलना उत्तम सत्य धर्म है।
प्र.२९. संयम धर्म क्या है ?
उत्तर— पांच इंद्रिय और मन पर नियंत्रण, अहिंसादि पांच व्रतों का धारण करना तथा षट्काय जीवों की रक्षा करना उत्तम संयम है।
प्र.३०. उत्तम तप क्या है?
उत्तर— कर्मक्षय के लिये व्रतादि धारण करके योग धारण करना तप है।
प्र.३१. उत्तम त्याग धर्म क्या है ?
उत्तर— संयम के उपकरण पिच्छी, कमण्डलु का दान करना तथा औषधि, शास्त्र, आहार व अभय दान देना उत्तम त्याग धर्म है।
प्र.३२. उत्तम अकिंचन्य धर्म क्या है ?
उत्तर— पर पदार्थों से ममत्व हटाकर , अंतरंग व बहिरंग चौबीस प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना उत्तम आकिंचन्य धर्म है।
प्र.३३. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म क्या है ?
उत्तर— पर स्त्री से संसर्ग का विचार भी ना करके, अपनी आत्मा में रमण करना उत्तम ब्रह्मचर्य है।
प्र.३४. धर्म क्या है ?
उत्तर— परमार्थ से जीव की सम्यग्दर्शन, सम्यक्ज्ञान, सम्यक्चारित्र रूप विशुद्धि को धर्म कहते हैं।
प्र.३५. अनुप्रेक्षाएँ कितनी होती हैं ?
उत्तर— ‘‘अनित्याशरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुच्यास्रव संवर निर्जरा लोकबोधिदुर्लभ धर्म स्वाख्या— तत्वानुचिंतनमनुप्रेक्षा:।’’ अनित्य,अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचि, आस्रव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ, धर्म का बार-बार चिंतन करना, ये १२ संवर की कारण-भूत अनुप्रेक्षा हैं।
प्र.३६. अनुप्रेक्षा किसे कहते हैं ?
उत्तर— अनुप्रेक्षा का अर्थ है बार-बार चिंतन करना।
प्र.३७. अनित्य भावना क्या है ?
उत्तर— जो नित्य नहीं है उसे अनित्य कहते हैं।
प्र.३८. अशरण भावना क्या है ?
उत्तर— जो शरणभूत नहीं है वह अशरण है।
प्र.३९. संसार किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसमें भ्रमण होता है वह संसार है।
प्र.४०. एकत्व भावना क्या है ?
उत्तर— एक आत्मा का भाव एकत्व है।
प्र.४१. अन्यत्व क्या है ?
उत्तर— शरीर आदि आत्मा से भिन्न है वह अन्यत्व है।
प्र.४२. अशुचि भावना क्या है ? उत्तर— कायादि की अपवित्रता अशुचि है।
प्र.४३. आस्रव क्या है ?
उत्तर— कर्मों का आना आस्रव है।
प्र.४४. संवर क्या है ?
उत्तर— नवीन कर्मों को रोकना संवर है।
प्र.४५. निर्जरा क्या है ?
उत्तर— एक देश कर्मों का गलन निर्जरा है।
प्र.४६. लोक क्या है ?
उत्तर— जीवादि पदार्थ जहाँ देखें जावें वह लोक है।
प्र.४७. बोधिदुर्लभ भावना क्या है ?
उत्तर— संसार, शरीर और भोगों से विरक्ति बोधि है और उसकी दुर्लभता बोधि दुर्लभता है।
प्र.४८. धर्म क्या है ?
उत्तर— जो उत्तम पद में धरता है वह धर्म है।
प्र.४९. परीषह सहन क्यों करना चाहिए ?
उत्तर— ‘‘मार्गाच्यवननिर्जरार्थं परिषोढव्या: परीषहा:।’’ मार्ग से च्युत ना होने के लिये तथा कर्मों की निर्जरा करने के लिये जो सहन करने योग्य है वह परीषह है।
प्र.५०. परीषह कितने और कौन से हैं ?
उत्तर—‘‘क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकनाग्न्यारति स्त्री चर्या निषद्याशय्या क्रोशवधयाचना लाभ रोगतृणस्पर्शमल सत्कार पुरस्कार प्रज्ञाज्ञानादर्शनानि।’’ परीषह २२ हैं —
(१)क्षुधा (२) पिपासा (३) शीत (४) उष्ण (५) दंशमशक (६) नग्नता (७) अरति (८) स्त्री(९) चर्या (१०) निषद्या (११) शय्या (१२) आक्रोश (१३) वध (१४) याचना (१५) अलाभ (१६) रोग (१७) तृणस्पर्श (१८) मल (१९) सत्कार पुरस्कार (२०) प्रज्ञा (२१) अज्ञान (२२) अदर्शन।
प्र.५१. क्षुधा किसे कहते हैं ? क्षुधा परीषहजय क्या है ?
उत्तर— क्षुधा का अर्थ है भूख लगना । क्षुधा जन्य बाधा का चिंतन नहीं करना क्षुधा परीषहजय होता है।
प्र.५२. पिपासा किसे कहते हैं ? पिपासा परीषह जय क्या है ?
उत्तर—पिपासा का अर्थ है पानी पीने की इच्छा करना। जो मुनि प्यास रूपी अग्नि शिखा को संतोष रूपी शीतल सुगंधित जल से शांत करते हैं उन मुनिराज के तृषा अथवा पिपासा परीषहजय होता है।
प्र.५३. शीत परीषहजय का स्वरूप क्या है ?
उत्तर— शीत के प्रतीकार हेतु भूत वस्तुओं का जो शीतल हिमपात या झंझावात होने पर भी स्मरण नहीं करते हैं उनके शीत परीषहजय होता है।
प्र.५४. उष्ण परीषहजय क्या है ?
उत्तर— दावाग्निजन्य दाह, अति कठोर वायु और आतप के प्रतिकार करने वाले साधनों को जानते हुए भी उनका चिंतन नहीं करना उष्ण परीषहजय है।
प्र.५५. दंशमशक परीषह जय का स्वरूप क्या है ?
उत्तर— खटमल, मच्छर, चींटी, पिस्सू आदि के द्वारा उपद्रव होने पर भी प्रतीकार नहीं करना दंशमशक परीषहजय है।
प्र.५६. नाग्न्य परीषहजय किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो बालक के स्वरूप के समान निष्कलंक रूप है, ऐसे नाग्न्यरूप को धारण करने वाले मुनिराज को नाग्न्य परीषहजय होता है।
प्र.५७. अरति परीषहजय क्या है ?
उत्तर— जो मुनिजन इंद्रिय विषयों से विरत रहते हैं उन्हें अरति परीषहजय होता है।
प्र.५८. स्त्री बाधा परीषहजय क्या है ?
उत्तर— काम वासना से पीड़ित स्त्रियों द्वारा बाधा पहुँचाने पर भी जिन्होंने अपनी इंद्रियों को कछुए के समान समेट लिया है उन्हें स्त्रीबाधा परीषहजय होता है।
प्र.५९. चर्यापरीषहजय क्या है ?
उत्तर— जो वायु के समान नि:संग हैं और गुरुजनों की अनुज्ञा पाकर देशान्तरों में नंगे पैर विहार करते हैं। यान, वाहन आदि का स्मरण नहीं करते हैं, ऐसे मुनिराजों को चर्यापरीषह जय होता है।
प्र.६०.निषद्या परीषहजय से क्या आशय है ?
उत्तर— अनेकों प्रकार के उपसर्गों के आने पर भी जो ध्यान से विमुख नहीं होते उन मुनियों के निषद्या परीषहजय होता है।
प्र.६१. शय्या परीषहजय क्या है ?
उत्तर— जो मुनिराज अंगों को अचल करके एक करवट से पत्थर और खप्पर के टुकड़ों से व्याप्त अतिशीतोष्ण भूमि पर एक मुहूर्त प्रमाण निद्रा का अनुभव करते हैं। उन्हें शय्या परीषहजय होता है।
प्र.६२. आक्रोश परीषहजय से क्या आशय है ?
उत्तर— जो मुनिजन क्रोधादि कषायरूपी विष के कण (लेश मात्र) को अपने हृदय में अवकाश नहीं देते हैं उन्हें आक्रोश परीषहजय होता है।
प्र.६३. वध परीषहजय से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर— जो मुनि तीक्ष्ण शस्त्र,मूशल, भाला आदि के द्वारा पीड़ित शरीर होने पर भी मारने वाले पर लेशमात्र भी कलुषता नहीं करते हैं, जिनके शत्रु—मित्र में समभाव हैं वे मुनि वध परीषहजयी होते हैं ।
प्र.६४.याचना परीषहजय क्या है ?
उत्तर— जो मुनिराज तपस्या के द्वारा अपने शरीर को कृश करके, जले हुए वृक्ष के से निष्कांति रूप, अस्थि—पिंजर से शरीर वाले होने पर भी किसी से याचना भाव नहीं रखते हैं उन्हें याचना परीषहजय होता है
प्र.६५. अलाभ परीषहजय किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो निरंतर विहार करते हैं, एक समय आहर लेते हैं, भाषा समिति का पालन करते हैं और विधिपूर्वक अंतराय रहित आहार ना मिलने पर भी किसी प्रकार से संश्लेषित नहीं होते हैं, बल्कि उसे परम तप मानकर आनंदित होते हैं उन मुनिराज के अलाभ परीषहजय होता है।
प्र.६६. रोग परीषहजय का स्वरूप क्या है ?
उत्तर— जिन मुनिराज के प्रकृति विरुद्ध आहार—पान के सेवनरूप विषमता से वातादि विकारमय रोग उत्पन्न हो गये हैं तथा जल्लौषधि, सर्वौषधि आदि अनेक ऋद्धियों से संपन्न होने पर भी जो शरीर से निस्पृह होने के कारण रोग का प्रतिकार नहीं करते हैं उनके रोगपरीषहजय होता है।
प्र.६७. तृणस्पर्श परीषहजय क्या है ?
उत्तर— सूखे तिनके, कठोर कंकड़, काँटा, तीखा पत्थर—मट्टी आदि के बिंधने से वेदना होने पर भी जिनका चित्त चलायमान नहीं है उन मुनिराज के तृणस्पर्श परीषहजय होती है।
प्र.६८.सत्कार—पुरस्कार परीषहजय का स्वरूप बताईये।
उत्तर— अपने व्रत पालन तप का, अपनी वाक्पटुता का अहंकार न करके आदर सत्कार पाने की लालसा से विरत रहना सत्कार—पुरस्कार परीषहजय है।
प्र.६९— मलपरिषहजय किसे कहते हैं ?
उत्तर— जलकायिक जीवों की हिंसा से बचने के लिये स्नान न करना तथा अपने मलिन शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना मल परिषहजय है।
प्र.७०— प्रज्ञा परिषहजय परिषह क्या है ?
उत्तर— ज्ञान की अधिकता होने पर भी मान नहीं करना प्रज्ञा परिषहजय है।
प्र.७१— अज्ञान परिषहजय का क्या स्वरूप है ?
उत्तर— ज्ञानादि की हीनता होने पर लोगों के द्वारा किये हुये तिरस्कार को शांत भाव से सह लेना अज्ञान परिषहजय है।
प्र.७२— अदर्शन परिषहजय से क्या तात्पर्य है?
उत्तर— बहुत समय तक कठोर तपश्चर्या करने पर भी मुझे अवधिज्ञान तथा चारण आदि ऋद्धियों की प्राप्ति नहीं हुई इसलिये व्रत धारण करना व्यर्थ है, इस प्रकार अश्रद्धान के भाव नहीं होना अदर्शन परिषहजय है।
प्र.७३— १०,११,१२ वें गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं ?
उत्तर— ‘‘सूक्ष्म सांपरायछद्मस्थवीतरागयोश्चतुर्दश’’ सूक्ष्मसांपराय नामक दशवें और छद्मस्थ वीतराग अर्थात् ग्यारहवें उपशांत मोह तथा बारहवें क्षीणमोह नामक गुणस्थान में १४ परीषह होते हैं।
प्र.७४— वे १४ परिषह कौन से हैं ?
उत्तर— (१) क्षुधा, (२) तृषा, (३) शीत (४) उष्ण, (५) दंशमशक (६) चर्या, (७) शय्या,(८) वध, (९) अलाभ, (१०) रोग, (११) तृणस्पर्श, (१२) मल, (१३) प्रज्ञा और (१४) अज्ञान।
प्र.७५— गुणस्थान किसे कहते हैं ?
उत्तर— मोह और योग के निमित्त से होने वाली आत्मपरिणामों की तरमता को गुणस्थान कहते हैं।
प्र.७६— गुणस्थान कितने होते हैं ? उनके नाम क्या हैं ?
उत्तर— गुणस्थान १४ होते हैं— १. मिथ्यात्व, २. सासादन, ३. मिश्र, ४. असंयत सम्यग्दृष्टि, (५) देशविरत (६) प्रमत्तसंयत (७) अप्रमत्तसंयत (८) अपूर्वकरण (९) अनिवृत्तिकरण, (१०) सूक्ष्मसांपराय, (११) उपशांतमोह (१२) क्षीणमोह (१३) सयोग केवली और (१४) अयोग केवली।
प्र.७७— १३ वें गुणस्थान में कितने परिषह होते हैं ?
उत्तर— ‘‘एकादश जिने’’ सयोगकेवली नामक १३ वें गुणस्थान में ऊपर लिखे १४ परिषहों में से अलाभ प्रज्ञा और अज्ञान को छोड़कर शेष ११ परिषह होते हैं।
प्र.७८— सयोग केवली के ११ परिषह किस कारण से कहे गये हैं?
उत्तर— जिनेन्द्र भगवान के वेदनीय कर्म का उदय होने से उसके उदय से होने वाले ११ परिषह कहे गए हैं। इसलिए उपचार से ११ परिषह कहे गए हैं । वास्तव में उनके एक भी परिषह नहीं होता है।
प्र.७९— छठे से नवमें गुणस्थान तक कितने परिषह होते हैं ?
उत्तर— ‘‘बादरसाम्पराये सर्वे’’ बादर सांपराय अर्थात् स्थूल कषायवाले छटवें से नवमें गुणस्थान तक सब परिषह होते हैं क्योंकि इन गुणस्थानों में परिषहों के कारणभूत सब कर्मों का उदय है।
प्र.८०— ज्ञानावरण कर्म के उदय से कौन से परिषह होते हैं ?
उत्तर— ‘‘ज्ञानावरणे प्रज्ञाज्ञाने’’ प्रज्ञा और अज्ञान ये दो परिषह ज्ञानावरण कर्म के उदय से होते हैं।
प्र.८१— दर्शनमोहनीय और अंतराय कर्म के उदय से कौन से परिषह होते हैं ?
उत्तर— दर्शनमोहनीय और अंतराय कर्म का उदय होने पर क्रम से अदर्शन और अलाभ परिषह होते हैं।
प्र.८२— कौन से परिषह चारित्रमोहनीय कर्म के उदय से होते हैं ?
उत्तर— ‘‘चारित्रमोहे नाग्न्यारतिस्त्रीनिषद्याक्रोशयाचना सत्कारपुरस्कारा:’’ चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने पर नाग्न्य , अरति, स्त्री, निषद्या, आक्रोश, याचना और सत्कार पुरस्कार ये ७ परिषह होते हैं।
प्र.८३— वेदनीय कर्म के उदय से होने वाले परिषह कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘वेदनीये शेषा:’’ वेदनीय कर्म के उदय से शेष ११ परिषह होते हैं वे हैं — क्षुधा, तृषा, शीत, उष्ण, दंशमशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श और मल।
प्र.८४— एक साथ एक जीव के कितने परिषह होते हैं ?
उत्तर— ‘‘एकादयोभाज्यायुगपदेकस्मिन्नैकोनविंशति:’’ एक साथ एक जीव में एक को आदि लेकर १९ परिषह तक हो सकते हैं।
प्र.८५— एक साथ किसी जीव के २२ परीषह क्यों नहीं हो सकते हैं ?
उत्तर— शीत और उष्ण में से कोई एक परिषह, तथा चर्या, शय्या तथा निषद्या इन तीन में से एक काल में कोई एक ही होगा। इस प्रकार ३ परिषह कम होने से १९ परिषह ही हो सकते हैं।
प्र.८६— चारित्र के कितने भेद होते हैं ?
उत्तर— ‘‘सामायिकच्छेदोपस्थापना परिहार विशुद्धि सूक्ष्मसांपराय यथाख्यातमिति चारित्रम्’’। सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसांपराय और यथाख्यात ये चारित्र के पाँच भेद हैं।
प्र.८७— सामायिक चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर— भेद रहित संपूर्ण पापों के त्याग करने को सामायिक चारित्र कहते हैं ।
प्र.८८— छेदोपस्थापना से क्या आशय है ?
उत्तर— प्रमाद के वश से चारित्र में कोई दोष लग जाने पर प्रायश्चित्त के द्वारा उसको दूर कर पुन: निर्दोष चारित्र को स्वीकार करना छेदोपस्थापना है।
प्र.८९— परिहारविशुद्धि चारित्र का क्या लक्षण है ?
उत्तर— जिस चारित्र में जीवों की हिंसा का त्याग हो जाने से विशेष शुद्धि प्राप्त होती है उसको परिहार विशुद्धि चारित्र कहते हैं।
प्र.९०— सूक्ष्मसांपराय चारित्र का क्या स्वरूप है ?
उत्तर— अत्यंत सूक्ष्म लोभ कषाय का उदय होने पर जो चारित्र होता है उसे सूक्ष्मसांपराय चारित्र कहते हैं ।
प्र.९१— यथाख्यात चारित्र किसे कहते हैं ?
उत्तर— संपूर्ण मोहनीय कर्म के क्षय अथवा उपशम से आत्मा के शुद्ध स्वरूप में स्थिर होने को यथाख्यात चारित्र कहते हैं।
प्र.९२— कौन से गुणस्थान में कौन सा चारित्र होता है ?
उत्तर— सामायिक और छेदोपस्थापना ये दो चारित्र ६,७,८,९ वें गुणस्थान में होते हैं। परिहारविशुद्धि ६ वें और ७ वें गुणस्थान में तथा सूक्ष्मसांपराय १० वें गुणस्थान में और यथाख्यात चारित्र ११ वें, १२ वें, १३ वें और १४ वें गुणस्थान में होता है।
प्र.९३— तप कितने प्रकार का होता है ?
उत्तर— तप के १२ भेद हैं— (१) ६ बाह्य तप (२) ६ आभ्यन्तर तप।
प्र.९४— बाह्य तप के ६ भेद कौन—कौन से हैं ?
उत्तर— अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तप:। (१) अनशन (२) अवमौदर्य (३) वृत्तिपरिसंख्यान (४) रसपरित्याग (५) विविक्तशय्यासन और (६) कायक्लेश। ये ६ बाह्य तप हैं।
प्र.९५— बाह्य तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो तप बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा होते हैं तथा बाह्य में सबके देखने में आते है उन्हें बाह्य तप कहते हैं।
प्र.९६— अनशन तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— संयम की वृद्धि के लिये चार प्रकार के आहार का त्याग करना अनशन है।
प्र.९७— अवमौदर्य तप का क्या लक्षण है ?
उत्तर— रागभाव दूर करने के लिये भूख से कम खाना अवमौदर्य कहलाता है।
प्र.९८— वृत्तिपरिसंख्यान से क्या आशय है ?
उत्तर— आहार को निकलते समय दातारों के घर का या किसी दातार आदि का नियम करना वृत्तिपरिसंख्यान तप है।
प्र.९९— रस परित्याग किसे कहते हैं ?
उत्तर— इन्द्रियों का दमन करने के लिये घी, दूध आदि रसों का त्याग करना रस परित्याग तप है।
प्र.१००— विविक्तशय्यासन तप का लक्षण बताओ ?
उत्तर— स्वाध्याय, ध्यान आदि की सिद्धि के लिये एकांत तथा पवित्र स्थान में सोना, बैठना आदि विविक्तशय्यासन तप है।
प्र.१०१— कायक्लेश तप का क्या स्वरुप है ?
उत्तर— शरीर से ममत्व न रखकर आतापन, अभ्रावकाश आदि धारण कर शरीर को कृष करना कायक्लेश तप है।
प्र.१०२— आभ्यन्तर के ६— प्रकार कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘प्रायश्चितविनयवैय्यावृत्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्’’ प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान ये ६ आभ्यंतर तप हैं।
प्र.१०३— आभ्यन्तर तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिन तपों का आत्मा से घनिष्ठ संबंध है उन्हें आभ्यंतर तप कहते हैं।
प्र.१०४— प्रायश्चित तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे हुए दोषों की शुद्धि करना अर्थात् पूर्व में किये हुए अपराधों का शोधन करना प्रायश्चित तप है।
प्र.१०५— विनय तप का क्या लक्षण है ?
उत्तर— अपने से बड़ों का,पूज्य पुरुषों का आदर करना, नम्रवृत्ति का होना विनय है।
प्र.१०६— वैय्यावृत्य किसे कहते हैं ?
उत्तर— शरीर से अथवा अन्य द्रव्यों से मुनियों आदि की सेवा करना अथवा अपनी शक्ति के अनुसार उपकार करना वैय्यावृत्य कहलाता है।
प्र.१०७— स्वाध्याय तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— सिद्धांत आदि ग्रंथों का अध्ययन करना स्वाध्याय है अथवा आलस्य का त्याग कर ज्ञान की आराधना करना स्वाध्याय तप है।
प्र.१०८— व्युत्सर्ग से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— बाह्य और आभ्ंयतर परिग्रह का त्याग करना अर्थात् उपधि का त्याग करना व्युत्सर्ग तप है।
प्र.१०९— ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर— चित्त की चंचलता को रोककर उसे किसी एक पदार्थ के चिंतवन में लगाना ध्यान है ।
प्र.११०— आभ्यंतर तपों के उत्तर भेद कितने हैं ?
उत्तर— ‘‘नवचतुर्दशपंचद्विभेदा यथाक्रमं प्राग्ध्यानात्’’ ध्यान से पहले के पांच तप क्रम से ९,४,१०,५ और २ भेद वाले हैं।
प्र.१११— प्रायश्चित के ९ भेद कौन—२ से हैं ?
उत्तर— ‘‘आलोचनाप्रतिक्रमणतदुभयविवेकव्युत्सर्गतपच्छेदपरिहारोपस्थापना:’’ आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार, और उपस्थापन ये ९ प्रायश्चित तप के भेद हैं।
प्र.११२— आलोचना किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्रमाद के वश से लगे हुए दोषों को गुरु के पास जाकर निष्कपट रिति से कहना आलोचना है।
प्र.११३— प्रतिक्रमण का क्या लक्षण है ?
उत्तर— ‘‘मेरा दोष मिथ्या हो’’ गुरु से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना अथवा दिवस और पाक्षिक संबंधी प्रतिक्रमण करना प्रतिक्रमण कहलाता है।
प्र.११४— तदुभय प्रायश्चित किसे कहते हैं ?
उत्तर— आलोचना और प्रतिक्रमण दोनों करना तदुभय प्रायश्चित है।
प्र.११५— विवेक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— संसक्त हुए अन्न पान और उपकरण आदि का विभाग करना विवेक प्रायश्चित है।
प्र.११६— व्युतसर्ग किसे कहते हैं ?
उत्तर— कायोत्सर्ग आदि करना व्युत्सर्ग है।
प्र.११७— तप प्रायश्चित किसे कहते हैं ?
उत्तर— अनशन, अवमौदर्य आदि करना तप प्रायश्चित है।
प्र.११८— छेद प्रायश्चित किसे कहते हैं ?
उत्तर— दिन,पक्ष, महीना आदि की दीक्षा का छेद करना छेद प्रायश्चित है।
प्र.११९— परिहार प्रायश्चित से क्या आशय है ?
उत्तर— दिन,पक्ष, महीना आदिनियत समय के लिये संघ से पृथक कर देना परिहार कहलाता है।
प्र.१२०— उपस्थापना प्रायश्चित क्या है ?
उत्तर— संपूर्ण दीक्षा छेदकर फिर से नवीन दीक्षा देना उपस्थापना प्रायश्चित है।
प्र.१२१— विनय तप के ४ भेद कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘ज्ञानदर्शनचारित्रोपचारा:’’ (१) ज्ञान विनय (२) दर्शन विनय (३) चारित्र विनय और (४) उपचार विनय ये विनय के ४ भेद हैं।
प्र.१२२— ज्ञान विनय किसे कहते हैं ?
उत्तर— बहुत आदर से मोक्ष के लिये ज्ञान का ग्रहण करना, अभ्यास करना और स्मरण करना आदि ज्ञान विनय तप है ।
प्र.१२३— दर्शन विनय का क्या लक्षण है ?
उत्तर— शंकादि दोषों से रहित तत्वार्थ का श्रद्धान करना दर्शन विनय है।
प्र.१२४— चारित्र विनय तप का क्या स्वरूप है ?
उत्तर— सम्यग्दृष्टि का चारित्र में चित्त का लगाना अर्थात् निर्दोष रीति से चारित्र पालन करना चारित्र विनय कहलाता है।
प्र.१२५— उपचार विनय की क्या परिभाषा है ?
उत्तर— आचार्य आदि पूज्य पुरुषों को देखकर खड़े होना, नमस्कार करना, उनके गुणों का कीर्तन करना आदि उपचार विनय है।
प्र.१२६— वैय्यावृत्य तप के १० भेद कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘आचार्योपाध्यायतपस्विशैक्ष्यग्लानगणकुलसंघसाधुमनोज्ञानाम्’’ आचार्य , उपाध्याय, तपस्वी, शैक्ष्य, ग्लान, गण, कुल, संज्ञ, साधु और मनोज्ञ ये वैय्यावृत्य तप के १० भेद हैं।
प्र.१२७— आचार्य, उपाध्याय में क्या विशेषता है ?
उत्तर— आचार्य— जो मुनि पंचाचार का स्वयं पालन करते हैं और अपने शिष्यों पलवाते हैं, दीक्षा, प्रायश्चित आदि देते हैं उन्हे आचार्य कहते हैं। उपाध्याय— जो शास्त्रों का अध्ययन कराते हैं, वे उपाध्याय कहलाते हैं।
प्र.१२८— तपस्वी, शैक्ष्य और ग्लान किसे कहते हैं ?
उत्तर— तपस्वी— महान उपवास करने वाले साधुओं को तपस्वी कहते हैं। शैक्ष्य— शास्त्र के अध्ययन में तत्पर मुनि शैक्ष्य कहलाते हैं। ग्लान— रोग से पीड़ित मुनि ग्लान कहलाते हैं।
प्र.१२९— गण से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर— वृद्ध मुनियों के अनुसार चलने वाले मुनियों के समुदाय को गण कहते हैं।
प्र.१३०— कुल और संघ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— कुल— दीक्षा देनेवाले आचार्य के शिष्यों को कुल कहते हैं। संघ— ऋषि, यति, मुनि, अनगार इन चार प्रकार के मुनियों के समूह को संघ कहते हैं।
प्र.१३१— साधु और मनोज्ञ में क्या अंतर है ?
उत्तर— साधु— चिरकाल से प्रव्रजित अर्थात् दीक्षित को साधु कहते हैं। मनोज्ञ— लोक में जिनकी प्रशंसा बढ़ रही हो उन्हें मनोज्ञ कहते हैं।
प्र.१३२— स्वाध्याय तप के ५ भेद कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘वाचनापृच्छनानुप्रेक्षाम्नायधर्मोपदेशा:’’ वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये ५ स्वाध्याय तप के भेद हैं।
प्र.१३३— वाचना एवं पृच्छना तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— निर्दोष ग्रंथों को, उसके अर्थ को तथा दोनों को भव्य जीवों को श्रवण कराना वाचना है तथा संशय को दूर करने के लिये अथवा कृत निश्चय को दृढ़ करने के लिये प्रश्न पूछना पृच्छना तप है।
प्र.१३४— अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश तप क्या है
उत्तर— जाने हुये पदार्थ का बार—बार चिंतवन करना अनुप्रेक्षा है। शुद्ध उच्चारण करते हुए पाठ को दुहराना आम्नाय है। धर्म का उपदेश देना धर्मोपदेश कहलाता है।
प्र.१३५— व्युत्सर्ग तप के दो भेद कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘बाह्याभ्यन्तरोपध्यो:’’ बाह्योपधिव्युत्सर्ग और आभ्यन्तरोपधि व्युत्सर्ग ये दो व्युत्सर्ग तप के दो भेद हैं।
प्र.१३६— बाह्यउपधि व्युत्सर्ग तप किसे कहते हैं ?
उत्तर— वास्तु , धन—धान्यादि बाह्य पदार्थों का त्याग करना बाह्य उपधि व्युत्सर्ग तप है।
प्र.१३७— आभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग तप का क्या लक्षण है ?
उत्तर— क्रोध,मान आदि खोटे भावों का त्याग करना आभ्यंतर उपधि व्युत्सर्ग तप कहलाता है।
प्र.१३८— ध्यान तप का क्या स्वरूप है ?
उत्तर—‘‘उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधोध्यानमान्तर्मुहूर्तात्’’ उत्तम संहनन वाले का अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एकाग्रता से चित्त को रोकना ध्यान कहलाता है।
प्र.१३९— उत्तम संहनन कौन से होते हैं?
उत्तर— वज्रवृषभनाराच, वज्रनाराच और नाराच ये तीन संहनन उत्तम कहलाते हैं।
प्र.१४०. ध्यान के कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘‘आर्तरौद्रधर्म्यशुक्लानि’’ आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान ये ध्यान के ४ भेद हैं।
प्र.१४१— मोक्ष के कारण कौन से ध्यान हैं ?
उत्तर— ‘‘परे मोक्षहेतू’’ इनमें से धर्मध्यान और शुक्लध्यान मोक्ष के कारण हैं।
प्र.१४२— संसार के कारण कौन से ध्यान हैं ?
उत्तर— आर्तध्यान और रौद्रध्यान ये दो ध्यान संसार के कारण हैं।
प्र.१४३— आर्तध्यान किसे कहते हैं ? उसके कितने भेद हैं ?
उत्तर— दु:ख में होने वाले ध्यान को आर्तध्यान कहते हैं । इसके ४ भेद हैं, (१) अनिष्ट संयोगज, (२) इष्ट वियोगज (३) वेदनाजन्य (४) निदानज ।
प्र.१४४— अनिष्ट संयोगज आर्तध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर— ‘‘आर्तममनोज्ञस्य संप्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहार:’’ अमनोज्ञ अर्थात् अनिष्ट पदार्थ का संयोग होने पर उसे दूर करने के लिये बार—बार विचार करना अनिष्ट संयोगज नामक आर्तध्यान है।
प्र.१४५— इष्ट वियोगज आर्तध्यान का क्या लक्षण है ?
उत्तर— ‘‘विपरीतं मनोज्ञस्य’’ अपनी स्त्री, पुत्र, धनादिक इष्टजनों का वियोग होने पर उनके संयोग के लिये बार—बार चिंतवन करना इष्ट वियोगज आर्तध्यान है।
प्र.१४६— वेदनाजन्य ध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर— ‘‘वेदनायाश्च’’ वातादि विकार जनित दु:ख वेदना के होने पर उसका अभाव मेरे कैसे होगा इसका निरंतर चिंतन करना तीसरा वेदनाजन्य आर्तध्यान है।
प्र.१४७— निदानज आर्तध्यान क्या है ?
उत्तर— ‘‘निदानं च’’आगामी काल संबंधी विषय भोगों की आकांक्षा में चित्त को तल्लीन करना निदानज आर्तध्यान कहलाता है।
प्र.१४८— गुणस्थानों की अपेक्षा ४ प्रकार के आर्तध्यान के स्वामी कौन हैं ?
उत्तर— ‘‘तदविरतदेशविरतप्रमत्तसंयतानाम्’’ अविरत अर्थात् आदि के चार गुणस्थान और देश विरत अर्थात् पंचम गुणस्थान के जीवों के चारों ही प्रकार का आर्तध्यान होता है तथा प्रमत्तसंयत अर्थात छठे गुणस्थानवर्ती जीव के निदान को छोड़कर शेष ३ आर्तध्यान होते हैं।
प्र.१४९— रौद्रध्यान किसे कहते हैं यह किन गुणस्थानवर्ती जीवों के होता है।
उत्तर— ‘‘हिंसानृतस्तेयविषयसंरक्षणेभ्यो रौद्रमविरतदेशविरतयो:’’ हिंसा, असत्य (झूठ), चोरी और विषयसंरक्षण से उत्पन्न हुआ ध्यान रौद्रध्यान कहलाता है यह अविरत और देशविरत (आदि के पांच) गुणस्थानों में होता है।
प्र.१५०— रौद्र ध्यान के कितने व कौन से भेद हैं ?
उत्तर— रौद्र ध्यान के ४ भेद हैं— हिंसानंदी, मृषानंदी, चौर्यानंदी, और परिग्रहानंदी ।
प्र.१५१—हिंसानंदी रौद्रध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर— हिंसा में आनंद मानकर उसी के साधन जुटाने में तल्लीन रहना हिंसानंदी रौद्रध्यान कहलाता है।
प्र.१५२— मृषानंदी रौद्रध्यान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर— असत्य बोलने में आनंद मानकर उसी का चिंतवन करना मृषानंदी रौद्रध्यान है।
प्र.१५३— चौर्यानंदी और परिग्रहानंदी रौद्रध्यान का लक्षण बताओ ?
उत्तर— चोरी में आनंद मानकर उसका चिंतवन करना चौर्यानंदी रौद्रध्यान तथा परिग्रह की रक्षा की चिंता करना परिग्रहानंदी रौद्रध्यान है।
प्र.१५४—धर्मध्यान किसे कहते हैं और उसके कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘‘आज्ञापायविपाकसंस्थानविचयाय धर्म्यम्’’ आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के लिये चिंतवन करना धर्मध्यान है । यही इसके ४ भेद हैं।
प्र.१५५— आज्ञाविचय धर्मध्यान किसे कहते हैं ?
उत्तर— आगम की प्रमाणता से अर्थ का विचार करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है।
प्र.१५६— अपाय विचय धर्मध्यान का क्या स्वरूप है ?
उत्तर— संसार, शरीर भोगों से विरक्ति का चिंतवन करना अपाय विचय धर्मध्यान है।
प्र.१५७— विपाक विचय, संस्थान विचय धर्मध्यान से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर— कर्म के फल का और उसके कारणों का विचार करना विपाक विचय तथा लोक के आकार का विचार करना संस्थान विचय धर्मध्यान है।
प्र.१५८— शुक्लध्यान किसे कहते हैं ? इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘‘पृथक्त्वैकत्ववितर्कसूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिव्युपरतक्रियानिवर्तीनि”’’शुद्ध ध्यान को शुक्ल ध्यान कहते हैं । इसके ४ भेद हैं— (१) प्रथक्त्ववितर्क (२) एकत्ववितर्क (३) सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति (४)व्युपरत क्रियानिवर्ति ।
प्र.१५९— शुक्ल ध्यान किनको होता है ?
उत्तर— ‘‘शुक्ले चाद्ये पूर्वविद:’’। ‘‘परे केवलिन:’’। प्रारंभ के पृथक्त्ववितर्क और एकत्ववितर्क नामक दो शुक्लध्यान पूर्व ज्ञानधारी श्रुतकेवली के होते हैं। तथा अन्त के सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवर्ति ये दो शुक्लध्यान सयोग केवली और अयोगकेवली के ही होते हैं।
प्र.१६०— पृथक्त्व वितर्क और एकत्व वितर्क शुक्लध्यान में क्या अंतर है ?
उत्तर— जिसमें वितर्क और विचार दोनों हों उसे पृथक्त्ववितर्क तथा जो केवल वितर्क से सहित हो उसे एकत्ववितर्क नामक शुक्लध्यान कहते हैं।
प्र.१६१— सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान में क्या विशेषता है ?
उत्तर— सूक्ष्मकाययोग के आलंबन से जो ध्यान होता है उसे सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान कहते हैं।
प्र.१६२— व्युपरतक्रियानिवर्ति शुक्ल ध्यान का क्या लक्षण है ?
उत्तर— जिसमें आत्म प्रदेशों में परिस्पंदन पैदा करने वाली श्वासोच्छवास आदि समस्त क्रियाएँ निवृत हो जाती हैं अर्थात रुक जाती हैं उसे व्युपरतक्रियानिवर्ति नामक शुक्ल ध्यान कहते हैं।
प्र.१६३— शुक्लध्यान किन योगधारी जीवों के होता है ?
उत्तर— ‘‘त्र्यैकयोगकाययोगायोगानाम्’’ उक्त चार ध्यान क्रम से तीन योग, एक योग, काययोग और योगरहित जीवों के होते हैं अर्थात् तीन योग वाले के पृथक्त्ववितर्क होता है। तीन योगों में से एक योग वाले के एकत्ववितर्क तथा काययोग वाले को सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति होता है अयोगी जीवों के व्युपरतक्रिया निवर्ति ध्यान होता है।
प्र.१६४— आदि के दो ध्यानों की क्या विशेषता है ?
उत्तर— ‘‘एकाश्रये सवितर्कवीचारे पूर्वे’’। ‘‘अवीचारं द्वितीयम्’’ । एक परिपूर्ण श्रुतज्ञानी के आश्रित रहने वाले प्रारंभ के दो ध्यान वितर्क और वीचारकर सहित हैं किन्तु दूसरा शुक्लध्यान वीचार से रहित है अर्थात् पहला पृथक्त्वविचार सवितर्क और सवीचार होता है तथा दूसरा एकत्ववितर्क सवितर्क और अवीचार होता है।
प्र.१६५— वितर्क का लक्षण क्या है ?
उत्तर— ‘‘वितर्क: श्रुतम्’’ । वितर्क का अर्थ श्रुत है। विशेष रूप से तर्वणा करना अर्थात् ऊहापोह करना वितर्क श्रुतज्ञान कहलाता है।
प्र.१६६— वीचार किसे कहते हैं ?
उत्तर— ‘‘वीचारोऽर्थव्यंजनयोगसंक्राति:’’ अर्थ, व्यंजन और योग की संक्रांति (परिवर्तन ) को वीचार कहते हैं।
प्र.१६७— अर्थ संक्रांति किसे कहते हैं ?
उत्तर— अर्थ ध्येय को कहते हैं। ध्यान करने योग्य पदार्थ को छोड़कर उसकी पर्याय को ध्यावे और पर्याय को छोड़कर द्रव्य को ध्यावे वह अर्थ संक्राति है।
प्र.१६८— व्यंजन संक्राति की क्या परिभाषा है ?
उत्तर— व्यंजन का अर्थ वचन है । श्रुत के एक वचन को छोड़कर दूसरे का आलंबन करना और उसे भी छोड़कर किसी अन्य का आलंबन करना सो व्यंजन संक्रांति कहलाता है।
प्र.१६९— योग संक्रांति से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर— काय वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं। काय योग को छोड़कर दूसरे योग का ग्रहण करना और उन्हें छोड़कर किसी अन्य योग को ग्रहण करना सो योगसंक्रांति है।
प्र.१७०— पात्र की अपेक्षा कर्मों की निर्जरा में न्यूनाधिकता किस प्रकार होती है ।
उत्तर— ‘‘सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानंतवियोजकदर्शशनमोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिना: क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जरा:’’ (१) सम्यग्दृष्टि ,(२) पञ्चमगुणस्थानवर्ती श्रावक (३) विरति (मुनि) (४) अनंतानुबंधी की विसंयोजना करने वाला (५) दर्शनमोह का क्षय करने वाला (६) चारित्र मोह का उपशम करने वाला (७) उपशांतमोहवाला (८) क्षपकश्रेणि चढ़ता हुआ (९) क्षीण मोह (बारहवें गुणस्थान वाला) और (१०) जिनेंद्र भगवान। इन सबके परिणामों की विशुद्धता की अधिकता से आयुकर्म को छोड़कर प्रतिसमय क्रम से असंख्यातगुणी निर्जरा होती है।
प्र.१७१— साधु कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर— ‘‘पुलाकवकुशकुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्था:’’। पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातक ये पांच प्रकार के निर्ग्रन्थ साधु होते हैं।
प्र.१७२— पुलाक व वकुश साधु में क्या अंतर है ?
उत्तर— जो उत्तर गुणों की भावना से रहित हों तथा किसी क्षेत्र व काल में मूलगुणों में भी दोष लगावें उन्हें पुलाक कहते हैं। तथा जो मूलगुणों का निर्दोष पालन करते हों परंतु अपने शरीर व उपकरण आदि की शोभा बढ़ाने की इच्छा रखते हों उन्हें वकुश मुनि कहते हैं।
प्र.१७३— कुशील मुनि कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर— कुशील मुनि दो प्रकार के होते हैं— (१) प्रतिसेवना कुशील और (२) कषाय कुशील।
प्र.१७४— प्रतिसेवना कुशील किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिनके उपकरण तथा शरीरादि से विरक्तता न हो और मूलगुण तथा उत्तर गुण की परिपूर्णता है, परंतु उत्तरगुणों में कुछ विराधना दोष हों, उन्हें प्रतिसेवना कुशील कहते हैं।
प्र.१७५— कषाय कुशील का क्या लक्षण है ?
निर्ग्रन्थ उत्तर— जिन्होंने संज्वलन के सिवाय अन्य कषायों को जीत लिया हो उन्हें कषाय कुशील कहते हैं।
प्र.१७६— निर्ग्रन्थ और स्नातक मुनि कौन होते हैं ?
उत्तर— निर्ग्रन्थ— जिनका मोहकर्म क्षीण हो गया हो ऐसे बारहवें गुणस्थानवर्ती मुनि निर्ग्रन्थ हैं।
स्नातक— समस्त घातिया कर्मों का नाश करने वाले केवली भगवान स्नातक कहलाते हैं।
प्र.१७७— पांच प्रकार के पुलाकादि मुनियों में क्या विशेषता है ?
उत्तर— ‘‘संयमश्रुतप्रतिसेवनातीर्थलिङगलेश्योपपादस्थान विकल्पत: साध्या:’’ उक्तमुनि संयम, श्रुत, प्रतिसेवना, तीर्थ, लिङ्ग, लेश्या, उपपाद और स्थान इन आठ अनुयोगों के द्वारा भेदरूप से साध्य हैं । अर्थात् इन आठ अनुयोगों के पुलाक आदि मुनियों के विशेष भेद होते हैं।
प्र.१७८— तत्वार्थसूत्र की नवमी अध्याय में किसका वर्णन है ?
उत्तर— तत्वार्थ सूत्र की नवमी अध्याय में संवर और निर्जरा तत्व का वर्णन है।