प्र.१. बंध के कौन से कारण हैं ?
उत्तर — ‘मिथ्यादर्शनाविरति प्रमादकषाययोगा बंधहेतव:’ मिथ्यादर्शन, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग ये बंध के हेतु हैं।
प्र.२. मिथ्यादर्शन किसे कहते हैं ?
उत्तर— मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से सातों तत्वों के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यादर्शन कहते हैं।
प्र.३. अविरति किसे कहते हैं ?
उत्तर— छह काय के जीवों की दया ना करना तथा पांच इंद्रिय व मन को वश में नहीं रखना अविरति है। ये १२ होती हैं।
प्र.४. प्रमाद किसे कहते हैं ?
उत्तर— अच्छे अर्थात् पुण्य कार्यों के करने में आदर ना होना ही प्रमाद है । ये १५ होते हैं।
प्र.५. कषाय किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो आत्मा को कसे अर्थात् दु:ख दे उसे कषाय कहते हैं। कषाय के कुल २५ भेद हैं।
प्र.६. योग के कितने भेद हैं ?
उत्तर— योग मुख्यत: ३ हैं — १. मनोयोग, २. वचनयोग, ३. काययोग तथा भेदानुसार योग १५ हैं ।
प्र.७. बंध का स्वरूप क्या है ?
उत्तर— ‘सकषायत्वाज्जीव: कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बंध:’ कषायसहित होने से जीव कर्म के योग्य पुद्गलों को ग्रहण करता है वह बंध है।
प्र.८. बंध के कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशा स्तद्विधय:।’ प्रकृति, स्थिति, प्रदेश और अनुभाग ये बंध के चार भेद हैं।
प्र.९. प्रकृति किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्रकृति का अर्थ स्वभाव है। जैसे गुड़ की प्रकृति है मीठापन।
प्र.१०. स्थिति क्या है ?
उत्तर— अपने स्वभाव से च्युत ना होना स्थिति है।
प्र.११. अनुभाग से क्या आशय है ?
उत्तर— कर्मों का रस विशेष का नाम अनुभाग (अनुभव) है।
प्र.१२. प्रदेश बंध से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— कर्मरूप से परिणत पुद्गल स्कंधों का परमाणुओं की जानकारी करके निश्चय करना प्रदेशबंध है।
प्र.१३. योग और कषाय का क्या कार्य है ?
उत्तर— योग का कार्य निमंत्रण देना तथा कषाय का कार्य स्वागत करना है।
प्र.१४. प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग बंध के कारण बताएं ?
उत्तर— यह जीव योग से प्रकृति और प्रदेश बंध को तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध को करता है।
प्र.१५. प्रकृतिबंध के कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘आद्योज्ञानदर्शनावरण वेदनीय मोहनीयायुर्नामगोत्रान्तराया:।’ आदि का प्रकृतिबंध ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतरायरूप है।
प्र.१६. आवरण से आशय बताईये ?
उत्तर— आवरण का अर्थ आच्छादन या ढंकना है। जो आवृत्त करता है और जिसके द्वारा आवृत्त किया जाता है वह आवरण कहलाता है।
प्र.१७. कर्म कितने हैं ?
उत्तर— कर्म आठ हैं— ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय।
प्र.१८. उपरोक्त आठ कर्मों के कितने भेद हैं?
उत्तर— आठ कर्मों के २ भेद हैं — १. घातिया कर्म, २. अघातिया कर्म।
प्र.१९. घातिया कर्म किन्हें कहते हैं ?
उत्तर— जो जीव के देवत्वरूप गुणों का घात करते हैं वे घातिया कर्म कहलाते हैं। ये ४ हैं—
- ज्ञानावरण
- दर्शनावरण
- मोहनीय
- अंतराय ।
प्र.२०. अघातिया कर्म किसे कहते हैं और वे कौन से हैं ?
उत्तर— जो जीव के देवत्वरूप गुणों का घात नहीं करते हैं वे अघातिया कर्म कहलाते हैं। ये भी ४ हैं— १. वेदनीय, २. आयु, ३. नाम, ४. गोत्र।
प्र.२१. अरिहंत परमेष्ठी के कितने कर्मों का नाश होता है ?
उत्तर— चार घातिया कर्मों का नाश होता है।
प्र.२२. सिद्ध परमेष्ठी के कितने कर्मों का नाश होता है ?
उत्तर— आठों कर्मों का नाश होता है।
प्र.२३. आठों कर्मों का स्वभाव कैसा है ?
उत्तर—ज्ञानावरणी कर्म का स्वभाव— परदे के समान । दर्शनावरणी कर्म का स्वभाव— द्वारपाल के समान । वेदनीय कर्म का स्वभाव — शहद लपेटी तलवार के समान । मोहनीय कर्म का स्वभाव — मदिरा के समान । आयु कर्म का स्वभाव — हलि (खोड़ा) के समान । नाम कर्म का स्वभाव — चित्रकार के समान । गोत्र कर्म का स्वभाव — कुंभकार के समान । अंतराय कर्म का स्वभाव — भंडारी के समान ।
प्र.२४. प्रकृति बंध अथवा आठों कर्मों के उत्तर भेद कितने हैं ?
उत्तर— ‘पंचनवद्वयष्टा—वशंति— चतुद्र्विचत्वारिंशद्—द्विपंचभेदा—यथाक्रमम् । आठ मूल प्रकृतियों के अनुक्रम से पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, बयालीस, दो और पांच भेद हैं ।
प्र.२५.ज्ञानावरण कर्म के कितने भेद हैं और कौन से हैं ?
उत्तर— ‘मतिश्रुतावधिमन: पर्यय केवलानाम्। ’मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान और केवलज्ञान को आवरण करने वाले पांच कर्म ज्ञानावरण कर्म है।
प्र.२६. दर्शनावरण कर्म के कितने भेद हैं और कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘चक्षुरचक्षुरवधिकेवलानां निद्रा—नद्रानिद्राप्रचला—प्रचलाप्रचला स्त्यानगृद्धयश्च’’ चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन इन चारों के चार आवरण तथा निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचला—प्रचला और स्त्यानगृद्धि ये पांच निद्रादिक के भेद से दर्शनावरणीय कर्म के नौ भेद हैं।
प्र.२७. चक्षुदर्शनावरण से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— जो चक्षु के द्वारा होने वाले सामान्य अवलोकन को ना होने दे वह चक्षुदर्शनावरण है।
प्र.२८. अचक्षुदर्शनावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो चक्षु को छोड़ कर अन्य इंद्रियों से होने वाले सामान्य अवलोकन को ना होने दे उसे अचक्षुदर्शनावरण कहते हैं।
प्र.२९. अवधिदर्शनावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो अवधिज्ञान के पूर्व होने वाले सामान्य अवलोकन को ना होने दे वह अवधिदर्शनावरण है।
प्र.३०. केवलदर्शनावरण किसे कहते हैं ?
उत्तर— केवलज्ञान के साथ होने वाले अवलोकन को जो ना होने दे उसे केवलदर्शनावरण कहते हैं ।
प्र.३१. निद्रा और निद्रानिद्रा दर्शनावरण कर्म का क्या लक्षण है ?
उत्तर— मद, खेद और परिश्रमजन्य थकावट को दूर करने के लिये नींद लेना निद्रा है और निद्रा पर पुन: निद्रा लेना निद्रनिद्राहै।
प्र.३२. निद्रा और निद्रानद्रा में क्या अंतर है ?
उत्तर— निद्रावान पुरुष सुखपूर्वक जागृत हो जाता है जबकि निद्रानिद्रा वाला बहुत कठिनता से सचेत होता है।
प्र.३३. प्रचला व प्रचला—प्रचला दर्शनावरण कर्म के लक्षण बताईये।
उत्तर— जो शोक श्रम और मद आदि के कारण उत्पन्न हुई है और जो बैठे हुए प्राणी के भी नेत्र गात्र की विक्रिया की सूचक है ऐसी आत्मा को चलायमान करने वाली क्रिया प्रचला है और प्रचला की पुन: पुन: आवृत्ति होना प्रचला—प्रचला है।
प्र.३४. स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म का लक्षण बताईये ?
उत्तर— जसके निमित्त से स्वप्न में वीर्य विशेष का अविर्भाव हो वह स्त्यानगृद्धि है। अर्थात जिसके उदय से आत्मा दिन में करने योग्य रौद्र कार्यों को रात्री में कर डालता है वह स्त्यानगृद्धि दर्शनावरण कर्म है।
प्र.३५. वेदनीय कर्म के भेद बताईये ?
उत्तर— ‘सदसद्वेद्ये।’ सद्वेद्य अर्थात् साता वेदनीय और असदवेद्य अर्थात् असाता ये दो वेदनीय कर्म के भेद हैं ।
प्र.३६. मोहनीय कर्म के उत्तरभेद बताईये ?
उत्तर— ‘दर्शनचारित्र मोहनीयाकषाय—कषाय वेदनीयाख्यास्त्रिद्विनवषोडशभेदा: सम्यक्त्व मिथ्यात्वतदुभयान्यकषाय कषायौहास्यरत्यरति शोकभय जुगुप्सा स्त्री—पुन्नपुंसक वेदा अनंतानुबंध्य प्रत्याख्यान—प्रत्याख्यान—संज्वलन विकल्पाश्चैकश: क्रोधमानमायालोभा:।’ दर्शनमोहनीय, चारित्र मोहनीय, अकषाय वेदनीय , कषायवेदनीय इनके क्रम से तीन, दो नौ और सोलह भेद हैं। समयक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व ये दर्शन—मोहनीय के ३ भेद हैं । कषाय वेदनीय और अकषाय — वेदनीय ये चारित्रमोहनीय के २ भेद हैं । हास्य, रति, अरति, भय, शोक, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसक वेद ये नौ अकषायवेदनीय हैं तथा अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये प्रत्येक के क्रोध , मान, माया, लोभ के भेद से सोलह कषाय वेदनीय हैं।
प्र.३७.दर्शन मोहनीय का स्वरूप क्या है ?
उत्तर— जो आत्मा के सम्यक्तव गुण को घाते वह दर्शन मोहनीय है।
प्र.३८. चारित्र मोहनीय क्या है ?
उत्तर— जो आत्मा के चारित्र गुण को घाते वह चारित्र मोहनीय है।
प्र.३९. अनन्त और अनंतानुबंधी किसे कहते हैं ?
उत्तर— अनन्त संसार का कारण होने से मिथ्यात्व को अनंत कहते हैं तथा जो कषाय मिथ्यात्व की अनुबंधी है उसे अनंतानुबंधी कहते हैं।
प्र.४०. अनंतानुबंधी कषाय का कार्य उदय व वासनाकाल कितना है ?
उत्तर— अनंतानुबंधी कषाय सम्यक्तवाचरण चारित्र का घात करती है। इसका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त तथा वासनाकाल अनंतकाल है।
प्र.४१. अप्रत्याख्यान कषाय का स्वरूप क्या है ?
उत्तर— जिस कषाय के उदय से यह जीव देशविरति या संयमा संयम को स्वल्प भी करने में समर्थ नहीं होता है वह अप्रत्याख्यान क्रोध मान—माया— लोभ कषाय है।
प्र.४२. अप्रत्याख्यान कषाय का कार्य उदय व वासनाकाल कितना है ।
उत्तर— अप्रत्याख्यान कषाय का कार्य प्रत्याख्यान को आवृत्त करना अर्थात देशचरित्र को नहीं होने देना है। इसका उदयकाल अन्तर्मुहूर्त तथा वासनाकाल ६ माह है।
प्र.४३. प्रत्याख्यान कषाय का स्वरूप बताईये ।
उत्तर— जनके उदय से संयम नाम वाली परिपूर्ण विरति को यह जीव करने में समर्थ नहीं होता वह प्रत्याख्यान क्रोध—मान—माया—लोभ कषाय है।
प्र.४४. प्रत्याख्यान कषाय का कार्य, उदय और वासनाकाल कितना है ?
उत्तर— सकल प्रत्याख्यान को आवृत्त करना प्रत्याख्यान कषाय का कार्य है । इसका उदयकाल अंतर्मुहूर्त और वासनाकाल १५ दिन है।
प्र.४५.संज्वलन कषाय का स्वरूप बताओ ।
उत्तर— संयम के साथ अवस्थान होने से जो एक होकर ज्वलित होते हैं वे संज्वलन कषाय है।
प्र.४६. संज्वलन कषाय का कार्य क्या है ?
उत्तर— संज्वलन कषाय का कार्य यथाख्यातचरित्र को नहीं होने देना है।
प्र.४७. संज्वलन कषाय का उदयकाल कितना है ?
उत्तर— संज्वलन कषाय का उदयकाल अंतर्मुहूर्त है।
प्र.४८. संज्वलन कषाय का वासनाकाल कितना है ?
उत्तर— संज्वलन कषाय का वासनाकाल भी अंतर्मुहूर्त है।
प्र.४९. अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ किसके समान है ?
उत्तर— अनंतानुबंधी क्रोध— शला रेखा के समान अनंतानुबंधी मान— शला सम भाव अनंतानुबंधी माया— बांस की जड़ के समान भाव अनंतानुबंधी लोभ— कृमिराग के समान।
प्र.५०. अनंतानुबंधी क्रोध , मान , माया, लोभ , सहित जीवों की उत्पत्ति के स्थान बताओ?
उत्तर— अनंतानुबंधी क्रोध, मान , माया, लोभ , सहित जीवों की उत्पत्ति नरकायु में होती है।
प्र.५१. अप्रत्याख्यान क्रोध, मान , माया, लोभ , किसके समान है ?
उत्तर— अप्रत्याख्यान क्रोध— पृथ्वी रेखा के समान अप्रत्याख्यान मान— हड्डी समान भाव अप्रत्याख्यान माया— मेढ़े के सींग समान भाव अप्रत्याख्यान लोभ— गाड़ी के ओंगण के समान
प्र.५२. अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, और लोभ सहित जीवों की उत्पत्ति के स्थान बताओ।
उत्तर— अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, और लोभ सहित जीवों की उत्पत्ति तिर्यंचायु में होती है।
प्र.५३. प्रत्याख्यान क्रोध,मान, माया, लोभ, किसके समान है ?
उत्तर— प्रत्याख्यान क्रोध— धूलि रेखा के समान प्रत्याख्यान मान— काष्ठ समान भाव प्रत्याख्यान माया—गोमूत्र समान भाव प्रत्याख्यान लोभ— शरीर के मैल समान
प्र.५४. प्रत्याख्यान क्रोध,मान, माया, लोभ, सहित जीवों की उत्पत्ति के स्थान बताओ?
उत्तर— प्रत्याख्यान क्रोध,मान, माया, लोभ, सहित जीवों की उत्पत्ति मनुष्यायु में होती है।
प्र.५५. संज्वलन क्रोध,मान, माया, लोभ, किसके समान है ?
उत्तर—संज्वलन क्रोध— जल रेखा के समान संज्वलन मान— बेंत के समान भाव संज्वलन माया—खुरपे के समान भाव संज्वलन लोभ— हल्दी के रंग समान
प्र.५६. संज्वलन प्रत्याख्यान , अप्रत्याख्यान और अनंतानुबंधी कषायों का वासनाकाल कितना है ?
उत्तर— संज्वलन कषाय का वासनाकाल अंतर्मुहूर्त है, प्रत्याख्यान कषाय का एक पक्ष, अप्रत्याख्यान कषाय का छह महीना तथा अनंतानुबंधी का संख्यात, असंख्यात और अनन्तभव है।
प्र.५७. आयुकर्म की उत्तर प्रकृतियां कौन सी हैं ?
उत्तर—‘‘नारकतैर्यग्योनमानुषदैवानि।’’ नरक आयु, तिर्यंच आयु, मनुष्य आयु और देव आयु ये आयु कर्म के चार भेद हैं।
प्र.५८. चारों आयु में कितनी आयु शुभ और अशुभ हैं ?
उत्तर— चारों आयु में तिर्यंच , मनुष्य और देव आयु शुभ हैं तथा नरक आयु अशुभ है।
प्र.५९.मनुष्य और देव आयु तो शुभ ही है तिर्यंच आयु शुभ कैसे है ?
उत्तर— क्योंकि तिर्यंच आयु में जाकर कोई असमय में मरना नहीं चाहता है।
प्र.६०. नाम कर्म के उत्तर भेद बताईये ?
उत्तर— गति जाति शरीराङ्गोपाङ्ग निर्माण बंधन संघात संस्थान संहनन स्पर्श रस गंधवर्णानुपूव्र्या गुरुलघूपघात परघाता तपोद्योतोच्छ्वास विहायोगतय: प्रत्येक शरीर त्रससुभग सुस्वर शुभ सूक्ष्म— पर्याप्ति स्थिरादेय यश: कीर्ति सेतराणि तीर्थकरत्वं च। गति, जाति, शरीर, अंगोपांग, निर्माण, बंधन, संघात, संस्थान, संहनन, स्पर्श, रस, गंध,वर्ण, आनुपूव्र्य, अगुरलघु, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छवास और विहायोगति तथा प्रतिपक्ष प्रकृतियों के साथ साधारण शरीर और प्रत्येक शरीर स्थावर और त्रस, दुर्भग और सुभग, दु:स्वर और सुस्वर, अशुभ और शुभ, बादर और सूक्ष्म, अपर्याप्तऔर पर्याप्त, अस्थिर और स्थिर, अनादेय और आदेय, अयश: कीर्ति और यश: कीर्ति तथा तीर्थंकर ये बयालीस नामकर्म के भेद हैं।
प्र.६१. गतिनामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर— गतिनामकर्म के ४ भेद हैं — (१) नरक गति (२) तिर्यंचगति (३) मनुष्यगति (४)देवगति।
प्र.६२. जाति के कितने भेद हैं ?
उत्तर— जाति के ५ भेद हैं :— (१) एकेन्द्रिय (२) द्रीन्द्रिय (३) त्रीन्द्रिय (४) चतुरिन्द्रिय (५) पंचेन्द्रिय जाति ।
प्र.६३. शरीर नामकर्म के भेद बताईये।
उत्तर— शरीर नामकर्म के ५ भेद हैं:— (१) औदारिक शरीर नामकर्म (२) वैक्रियिक शरीर नामकर्म (३) आहारक नामकर्म (४) तैजस नामकर्म (५) कार्माण नामकर्म ।
प्र.६४. अंगोपांग नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर— दो पैर, दो हाथ, नितम्ब, पीठ,वक्षस्थल, शिर और मस्तक ये आठ अंग हैं। शेष ललाट, नासिका, कान, आँख, ओष्ठ, अंगुली नख आदि को उपांग कहते हैं।
प्र.६५. अंगोपांग नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर— औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रियिक शरीर अंगोपांग, आहारक शरीर अंगोपांग के भेद से नामकर्म के ३ भेद हैं ।
प्र.६६. निर्माण नामकर्म के कितने और कौन से भेद हैं ?
उत्तर— निर्माण नामकर्म के दो भेद हैं:— (१) स्थान निर्माण (२) प्रमाण निर्माण ।
प्र.६७. बंधन नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर— बंधन नामकर्म के ५ भेद हैं— (१) औदारिक बंधन (२) वैक्रियिक बंधन (३) आहारक बंधन (४) तैजस बंधन (५) कार्माण बंधन।
प्र.६८. संघात नामकर्म के कितने और कौन से भेद हैं ?
उत्तर— संघात नामकर्म के ५ भेद हैं :— (१) औदारिक संघात (२) वैक्रियिक संघात (३) आहारक संघात (४) तैजस संघात (५) कार्माण संघात।
प्र.६९. संस्थान नामकर्म किसे कहते है ?
उत्तर— जिस कर्म के उदय से औदारिक आदि शरीरों की आकृति बनती है वह संस्थान नामकर्म है।
प्र.७०. संस्थान के कितने प्रकार हैं ?
उत्तर— संस्थान ६ प्रकार के हैं — (१) समचतुरस्त्रसंस्थान (२) स्वाति— संस्थान (३) न्यग्रोधपरिमंडल संस्थान (४) कुब्जक संस्थान (५) वामन संस्थान (६) हुण्डक संस्थान ।
प्र.७१. संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर— जस कर्म के उदय से अस्थियों का बंधन विशेष होता है उसे संहनन कहते हैं ।
प्र.७२. संहनन कितने होते हैं ?
उत्तर— संहनन ६ होते हैं— (१) वज्रवृषभनाराच संहनन (२) व्रजनाराच संहनन (३) नाराच संहनन (४) अर्र्धनाराच संहनन (५) कीलिक संहनन (६) असम्प्राप्तसृपाटिका संहनन।
प्र.७३. वज्रवृषभ नाराच संहनन नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कर्म के उदय से वृषभ (वेष्टन) नाराच (कील) तथा संहनन (हड्डियां) वज्र की हों वह वज्रवृषभनाराच संहनन है।
प्र.७४. व्रजनाराच संहनन किसे कहते हैं?
उत्तर— जस कर्म के उदय से व्रज के हाड़ , वज्र की कीलियाँ हों परन्तु वेष्टन वज्र का न हो वह वज्रनाराच संहनन है।
७५. नाराच संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर— जस कर्म के उदय से सामान्य वेष्टन और कीलि सहित हाड़ हो उसे नाराच संहनन कहते हैं।
प्र.७६. अर्धनाराच संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से संधियां अर्धकीलित हों उसे अर्धनाराच संहनन कहते हैं ।
प्र.७७. कीलक संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर— जस कर्म के उदय से हड्डियाँ परस्पर कीलित हो उसे कीलक—संहनन कहते हैं ।
प्र.७८. असंप्राप्तसृपाटिका संहनन किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से अलग—अलग हड्डियां नसों से बंधी हुई हों, परस्पर कीलित न हो उसे असंप्राप्तसृपाटिका संहनन कहते हैं।
प्र.७९. स्पर्श नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कर्म के उदय से शरीर में स्पर्श हो उसे स्पर्श नामकर्म कहते हैं।
प्र.८०. स्पर्श नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर— स्पर्श नामकर्म के ८ भेद हैं— (१) कोमल (२) कठोर (३) गुरु (४) लघु (५) स्निग्ध (६) रूक्ष (७) शीत (८) उष्ण ।
प्र.८१. रस नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जसके उदय से शरीर में रस होता है वह रस नामकर्म है।
प्र.८२. रस नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर— रस नामकर्म के ५ भेद हैं— (१) खट्टा (२) मीठा (३) तीखा (४) कड़वा (५) चरपरा, (६) कषायला।
प्र.८३. गंध नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कर्म के उदय से शरीर में गंध की उत्पत्ति होती है उसे गंध नामकर्म कहते हैं।
प्र.८४. गंधनामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर—गंध नामकर्म के २ भेद हैं— (१) सुगंधि (२) दुर्गंधि ।
प्र.८५. वर्ण नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस कर्म के निमित्त से वर्ण में विभाग होता है वह वर्ण नाम कर्म है।
प्र.८६. वर्ण नामकर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर—वर्ण नामकर्म के ५ भेद हैं :— (१) कृष्ण वर्ण (२) नील वर्ण (३) रक्त वर्ण (४) पीत वर्ण (५) श्वेत वर्ण।
प्र.८७. आनुपूर्वि नामकर्म क्या है ।
उत्तर— जिस कर्म के उदय से पूर्व शरीर के आकार का विनाश ना हो वह आनुपूर्वी नामकर्म है।
प्र.८८. अगुरुलघु नामकर्म क्या है ?
उत्तर— जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर लोहे वे पिण्ड के समान गुरु होने से ना तो नीचे गिरता है और ना ही रुई के ढेर के समान लघु होने से ऊपर जाता है वह अगुरुलघु नामकर्म है।
प्र.८९. उपघात नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जसके उदय से स्वयं अपने अंगो से अपना घात होता है वह उपघात नामकर्म है।
प्र.९०. परघात नामकर्म किसे कहते हैं
उत्तर— जिसके उदय से दूसरे का घात करने वाले अंगोपांग हों उसे परघात नामकर्म कहते हैं।
प्र.९१. आतप नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से शरीर में आतप की प्राप्ति होती है उसे आतप नामकर्म कहते हैं।
प्र.९२. उद्योत नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके निमित्त से शरीर में उद्योत होता है उसे उद्योत नामकर्म कहते हैं।
प्र.९३. आतप, उद्योत और उष्ण नामकर्मों में क्या अंतर है ?
उत्तर— आतप नामकर्म— जिसकी मात्र किरणों में उष्णपना हो उसे आतप नामकर्म कहते हैं। जैसे — सूर्यकांतमणी में उत्पन्न हुये तिर्यंच गति के जीव ।
उष्ण नामकर्म— जिसकी मूल और प्रभा दोनों ही उष्ण रहते हैं उसे उष्ण नामकर्म कहते हैं।
उद्योत नामकर्म — जिसकी मूल और प्रभा दोनों उष्णता रहित हो उसे उद्योत नामकर्म कहते हैं जैसे — जुगनू, चंद्रबिंब में स्थित पृथ्वीकायिक जीव आदि ।
प्र.९४. उच्छवास नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से शरीर में श्वास उच्छवास की क्रिया हो उसे उच्छ्वास नामकर्म कहते हैं।
प्र.९५. विहायोगति किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से आकाश में गमन हो उसे विहायोगति नामकर्म कहते हैं।
प्र.९६. विहायोगति कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर— इसके दो भेद हैं— (१) प्रशस्त विहायोगति (२) अप्रशस्त विहायोगति। प्र.९७. प्रत्येक और साधारण शरीर नामकर्म में क्या अंतर है ?
उत्तर— प्रत्येक शरीर— जसके उदय से एक शरीर का स्वामी एक जीव हो उसे प्रत्येक शरीर नामकर्म कहते हैं। साधारण शरीर— जिसके उदय से एक शरीर के अनेक जीव स्वामी हों उसे साधारण शरीर नामकर्म कहते हैं।
प्र.९८. त्रस—स्थावर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर—त्रस—जसके उदय से द्विन्द्रिय आदि जीवों में जन्म हो उसे त्रस नाम कर्म कहते हैं। स्थावर— जस कर्म के उदय से एकेन्द्रिय जीवों में जन्म हो उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं।
प्र.९९. सुभग—दुर्भग, सुस्वर—दु:स्वर नामकर्म की क्या विशेषता है ?
उत्तर— सुभग—जसके उदय से दूसरे जीवों को अपने से प्रीति उत्पन्न हो उसे सुभग नामकर्म कहते हैं। दुर्भग— जसके उदय से सुन्दर रूप होने पर भी दूसरे अपने से प्रीति न करें उसे दुर्भग नामकर्म कहते हैं। सुस्वर— जसके उदय से स्वर अच्छा हो दूसरे को प्रिय लगे उसे सुस्वर नामकर्म कहते हैं। दु:स्वर— जसके उदय से अप्रिय (खराब) स्वर हो उसे दु:स्वर नामकर्म कहते हैं।
प्र.१००. शुभ व अशुभ नामकर्म क्या है ?
उत्तर—शुभ— जिसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर हों वह शुभ नामकर्म है। अशुभ— जसके उदय से शरीर के अवयव सुन्दर न हों वह अशुभ नामकर्म है।
प्र.१०१. सूक्ष्म और बादर शरीर के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर— सूक्ष्म— जसके उदय से ऐसा सूक्ष्म शरीर हो जो न स्वयं दूसरे शरीर से रूके न दूसरे को रोके वह सूक्ष्म शरीर नामकर्म है। बादर— जसके उदय से दूसरे को रोकने योग्य व अन्य से रूकने योग्य स्थूल शरीर हो वह बादर शरीर नामकर्म है।
प्र.१०२. पर्याप्ति, अपर्याप्ति नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— पर्याप्ति— जसके उदय से अपने—योग्य पर्याप्ति पूर्ण हों उसे पर्याप्ति नामकर्म कहते हैं। अपर्याप्ति— जिस कर्म के उदय से जीव के एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हो उसे अपर्याप्ति नामकर्म कहते है।
प्र.१०३. पर्याप्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— आहारवर्गणा, भाषावर्गणा और मनोवर्गणा के परमाणुओं को शरीर इन्द्रियादि रूप परिणत करने वाली शक्ति की पूर्णता को पर्याप्ति कहते हैं।
प्र.१०४. पर्याप्ति कितनी होती हैं ?
उत्तर— पर्याप्ति ६ प्रकार की होती हैं— (१) आहार (२) शरीर (३) इन्द्रिय (४) श्वासोच्छवास (५) भाषा और (६) मन पर्याप्ति।
प्र.१०५. अपर्याप्तक किसे कहते हैं ?
उत्तर— जस जीव की पर्याप्ति पूर्ण नहीं होती उसे अपर्याप्तक कहते हैं ।
प्र.१०६.अपर्याप्तक कितने प्रकार के होते हैं ?
उत्तर— अपर्याप्तक के दो भेद हैं— (१) निर्वृत्यपर्याप्तक (२) लब्ध्यपर्याप्तक ।
प्र.१०७. निर्वृत्यपर्याप्तक किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिस जीव की शरीर पर्याप्ति अभी पूर्ण तो नहीं हुई है किंतु नियम से पूर्ण होने वाली हैं उसे निर्वृत्यपर्याप्तक कहते हैं।
प्र.१०८. लब्ध्यपर्याप्तक जीव कौन से हैं ?
उत्त— जिस जीव की एक भी पर्याप्ति पूर्ण न हुई हो और न होने वाली हो वह लब्ध्यपर्याप्तक जीव कहलाता है।
प्र.१०९.स्थिर—अस्थिर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर—स्थिर— जिसके उदय से शरीर के रसादिक और वातादि धातु—उपधातु अपने—अपने स्थान में स्थिर रहें उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं।
अस्थिर— जिसके उदय से शरीर के धातु — उपधातु अपने स्थान में स्थिर नहीं हों उसे अस्थिर नामकर्म कहते हैं।
प्र.११०.धातु—उपधातु क्या हैं ?
उत्तर— रस, रूधिर, मांस, मेद, हाड़, मज्जा और शुक्र ये धातुएँ हैं तथा वात, पित्त,कफ, शिरा, स्नायु, चाम और जठराग्नि ये उपधातुएँ हैं।
प्र.१११. आदेय—अनादेय नामकर्म में क्या भेद है ?
उत्तर— आदेय— जिसके उदय से प्रभासहित शरीर हो उसे आदेय नामकर्म कहते हैं ।
अनादेय— जिसके उदय से प्रभारहित शरीर हो उसे अनादेय कहते हैं।
प्र.११२. यश: कीर्ति और अयश: कीर्ति किसे कहते हैं ?
उत्तर— यश: कीर्ति— जिसके उदय से संसार में जीव का यश फैले, प्रशंसा हो उसे यश:कीर्ति नामकर्म कहते हैं । अयश:कीर्ति— जिसके उदय से संसार में जीव का अपयश फैले, निंदा हो उसे अयश: कीर्ति नामकर्म कहते हैं ।
प्र.११३. तीर्थंकर नामकर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से अचिन्त्य विभूति सहित अरहंत पद के साथ धर्म तीर्थ का प्रवर्तन हो अर्थात् अरहंतपद के कारणभूत कर्म को तीर्थंकर नामकर्म कहते हैं।
प्र.११४. नामकर्म की कुल कितनी प्रकृतियां होती हैं ?
उत्तर— नामकर्म की उत्तरभेद सहित कुल ९३ प्रकृतियां होती हैं।
प्र.११५. गोत्र कर्म के कितने भेद हैं ?
उत्तर—‘‘उच्चैर्नीचैश्य’’ गोत्र कर्म के २ भेद हैं — (१) उच्च गोत्र (२) नीच गोत्र ।
प्र.११६. उच्चगोत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से जीव लोकमान्य कुल में जन्म धारण करे वह उच्च गोत्र है।
प्र.११७. नीच गोत्र क्या है ?
उत्तर—जस कर्म के उदय से लोकनिंद्य कुल में जन्म हो वह नीच गोत्र कहलाता है।
प्र.११८. गोत्र किसे कहते हैं ?
उत्तर— संतान क्रम से चले आए जीव के आचरण को गोत्र कहते हैं।
प्र.११९. अंतराय कर्म के कितने भेद होते हैं ?
उत्तर— ‘‘दान—लाभ—भोगोपभोग—वीर्याणाम्’’ अंतराय कर्म के ५ भेद होते हैं— (१) दानांतराय, (२) लाभांतराय, (३) भोगांतराय (४) उपभोगांतराय और वीर्यान्तराय।
प्र.१२०. अन्तराय किसे कहते हैं ?
उत्तर— अंतराय का अर्थ रोक या बाधा है। जो कर्म दान, लाभ आदि में विघ्न डाले वह अंतराय कर्म है।
प्र.१२१. दानांतराय व लाभांतराय कर्म के क्या लक्षण हैं ?
उत्तर— जसके उदय से दान देना चाहे और देने की वस्तु भी हो तो भी दान न कर सके उसे दानांतराय कर्म कहते हैं तथा लाभ की इच्छा होते हुए भी तथा प्रयत्न करने पर भी जिसके उदय से लाभ नहीं होता उसे लाभान्तराय कर्म कहते हैं।
प्र.१२२. भोगान्तराय — उपभोगान्तराय कर्म क्या हैं ?
उत्तर— भोगांतराय— जिसके उदय से भोग इच्छा तथा भोग्य वस्तु होते हुए भी भोग न कर सके वह भोगांतराय कर्म है। उपभोगांतराय— उपभोग्य वस्तु होते हुए भी उपभोग न कर सके वह उपभोगान्तराय कर्म है।
प्र.१२३. भोग और उपभोग में क्या अंतर है ?
उत्तर— जो एक बार भोगने से नष्ट हो जावें वे भोग हैं। जैसे— भोजन , तेल आदि । जो बार—बार भोगने में आवें वह उपभोग हैं। जैसे— कपड़ा, स्त्री, फर्नीचर, आभूषण, आदि ।
प्र.१२४. वीर्यान्तराय कर्म किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसके उदय से बल प्राप्ति के साधन मिलते हुए भी बल,शक्ति—उत्साह न हो वह वीर्यांतराय कर्म है।
प्र.१२५. स्थिति बंध के कितने भेद हैं ?
उत्तर— स्थति बंध के २ भेद हैं (१) उत्कृष्ट स्थिति बंध (२) जघन्य स्थिति बंध।
प्र.१२६. उत्कृष्ट व जघन्य स्थिति बंध किस प्रकार होता है ?
उत्तर— एक समय के बंधे हुए कर्मों का आत्मा के साथ अधिक से अधिक काल तक संबध होना उत्कृष्ट स्थिति बंध है। तथा एक समय के बंधे हुए कर्मों का आत्मा के साथ कम से कम काल तक संबंध होना जघन्य स्थिति बंध है।
प्र.१२७. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कितनी है ?
उत्तर— ‘‘आदितस्तिसृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सागरोपम कोटीकोट्य: परास्थिति:’’ आदि के तीन कर्मों की अर्थात् ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोड़ा कोड़ी सागर की है।
प्र.१२८. मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बताओ ?
उत्तर— ‘‘सप्ततिर्मोहनीयस्य’’ मोहनीय कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ७० कोड़ाकोड़ी सागर की है।
प्र.१२९. नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति क्या है ?
उत्तर— ‘विशंतिर्नामगोत्रयो:’ नाम और गोत्र कर्म की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर की है।
प्र.१३०.आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति कितनी है ?
उत्तर— ‘‘त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुष:’’ आयु कर्म की उत्कृष्ट स्थिति ३३ सागर की है।
प्र.१३१. कोड़ा कोड़ी का क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— १ करोड़ में १ करोड़ का गुणा करने पर जो गुणनफल आवे उसे कोड़ाकोड़ी कहते हैं।
प्र.१३२. वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म की जघन्य स्थिति बताओ ?
उत्तर— ‘‘अपरा द्वादश मुहूर्ता वेदनीयस्य’’ वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त अर्थात् ९ घंटे ३६ मिनट है तथा ‘‘नामगोत्रयोरष्टौ’’ नाम और गोत्र दोनों कर्मों की जघन्य स्थिति ८ मुहूर्त अथार्त् ६ घंटे २४ मिनट की है ।
प्र.१३३. मुहूर्त की क्या परिभाषा है ?
उत्तर— दो घड़ी अर्थात् ४८ मिनट का एक मुहूर्त होता है।
प्र.१३४. ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय और आयु कर्म की जघन्य स्थिति कितनी है।
उत्तर— ‘‘शेषाणामन्तर्मुहूर्ता’’ बाकी के पांच अर्थात् ज्ञानावरण,दर्शनावरण, मोहनीय, अंतराय और आयु कर्म की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त है।
प्र.१३५. अन्तर्मुहूर्त किसे कहते हैं ?
उत्तर— आवली से ऊपर और मुहूर्त से नीचे के काल को अन्तर्मुहूर्त कहते हैं।
प्र.१३६. आवली का अर्थ क्या है ?
उत्तर— असंख्यात समयों की एक आवली होती है।
प्र.१३७. अनुभाग बंध का क्या लक्षण है ?
उत्तर— ‘‘विपाकोऽनुभव:’’ कषायों की तीव्रता मंदता से जो आश्रव में विशेषता होती है उससे होने वाले विशेष पाक अर्थात् उदय को विपाक कहते हैं तथा इस विपाक को ही अनुभव अर्थात् अनुभाग बंध कहते हैं।
प्र.१३८. अनुभाग किसे कहते हैं ?
उत्तर— कर्म जो अनेक प्रकार का फल देता है उस फल देने का नाम ही अनुभाग है।
प्र.१३९. अनुभाग बंध की हीनाधिकता किस प्रकार होती है ?
उत्तर— शुभ परिणामों की अधिकता होने पर शुभ प्रकृतियों में अधिक और अशुभ प्रकृतियों में हीन अनुभाग होता है तथा अशुभ परिणामों की अधिकता होने पर अशुभ प्रकृतियों में अधिक और शुभ प्रकृतियों में हीन अनुभाग होता है।
प्र.१४०. प्रत्येक कर्म प्रकृतियों में किस प्रकार का अनुभाग बंध होता है?
उत्तर— ‘‘स यथानाम’’ जिस कर्म प्रकृति का जैसा नाम है उसके अनुसार उसका अनुभाग बंध है जैसे—शानावरण प्रकृति में ज्ञान को और दर्शनावरण में दर्शन को ढ़ाकने का फल प्राप्त होता है।
प्र.१४१. फल देने के बाद कर्मों का क्या होता है ?
उत्तर— ‘‘ततश्च निर्जरा’’ तीव्र, मंद या मध्यम फल देने के बाद उन कर्मों की निर्जरा हो जाती है अर्थात् कर्म उदय में आकर आत्मा से प्रयक हो जाते हैं झड़ जाते हैं।
प्र.१४२. निर्जरा कितने प्रकार की होती है ?
उत्तर— नर्जरा दो प्रकार की है — (१) सविपाक निर्जरा (२) अविपाक निर्जरा ।
प्र.१४३. सविपाक और अविपाक निर्जरा में क्या अंतर है ?
उत्तर— सविपाक निर्जरा— क्रम से उदयकाल आने पर कर्म का अपना फल देकर झड़ जाना सविपाक निर्जरा है।
अविपाक निर्जरा— कर्मों का उदयकाल नहीं आने पर भी तपस्या आदि से पुरुषार्थ करके उदीरणा द्वारा समय से पहले ही जिन्हें खिराया जाता है वह अविपाक निर्जरा है।
प्र.१४४. प्रदेश बंध का क्या स्वरूप है ?
उत्तर— ‘‘नाम प्रत्यया: सर्वतो योग विशेषात् सूक्ष्मैक क्षेत्रावगाह स्थिता: सर्वात्मप्रदेशेष्वनन्तानन्त प्रदेशा:’’ ज्ञानावरणादि कर्म प्रकृतियों के कारण सब ओर से अथवा देव नारकादि समस्त भवों में मन वचन काय रूप योग विशेष से सूक्ष्म तथा एक क्षेत्रावगाहरूप स्थित संपूर्ण आत्मा के प्रदेशों में जो कर्मरूप पुद्गल के अनंतानंत प्रदेश हैं उनको प्रदेशबन्ध कहते हैं।
प्र.१४५. कर्मों की पुण्य (शुभ) प्रकृतियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर— ‘‘सद्वेद्य—शुभायुर्नाम— गोत्राणि पुण्यम्’’ साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र में पुण्य प्रकृतियाँ हैं।
प्र–१४६. शुभ आयु कौन—कौन सी हैं ?
उत्तर— नरक आयु को छोड़कर शेष तीन मनुष्य, देव और तिर्यंच ये तीन शुभ आयु हैं ।
प्र.१४७. पाप (अशुभ) प्रकृतियाँ कौन सी हैं ?
उत्तर— ‘‘अतोऽन्यत् पापम्’’ पुण्य प्रकृतियों से अन्य अर्थात् असाता वेदनीय, अशुभ आयु, अशुभ नाम और अशुभ गोत्र में पाप प्रकृतियाँ हैं।
प्र.१४८. पुण्य प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर— भेद विवक्षा से ६८ पुण्य प्रकृतियाँ हैं तथा अभेद विवक्षा से ४२ हैं।
प्र.१४९. पाप प्रकृतियाँ कितनी हैं ?
उत्तर— भेद विवक्षा से १०० पाप प्रकृतियाँ तथा अभेद विवक्षा से ८४ हैं। इनमें घातिया कर्मों की समस्त ४७ प्रकृतियाँ पाप रूप ही हैं।
प्र.१५०. आठवीं अध्याय में कौन से तत्व का वर्णन है ?
उत्तर—आठवीं अध्याय में बंध तत्व का वर्णन है।