जहाँ तीन पल्य की आयु, तीन कोश ऊँचा शरीर, अद्भुत सुन्दर रूप, समचतुरस्र संस्थान, महाबल-पराक्रम युक्त मनुष्य होते हैं । स्त्री-पुरुषों का युगल उत्पन्न होता है । तीन दिन बीतने पर जब कभी कुछ आहार की इच्छा होती है तब बेर के बराबर आहार करके क्षुधावेदना रहित हो जाते हैं ।
दश प्रकार के कल्पवृक्षों से प्राप्त इच्छित भोगों को भोगते हैं । जहाँ शीत – उष्णता का कष्ट नहीं है, वर्षा का कष्ट नहीं है, दिन रात का भेद नहीं है, सदा उद्योतरूप अंधकार रहित समय चलता है । शीतल, मंद, सुगंध पवन निरंतर बहती है, भूमि में धूल, पत्थर, तृण, काँटे, कीचड़ आदि नहीं होते हैं, स्फटिक मणि के समान भूमि है । वहां पर जीवन भर रोग नहीं, शोक नहीं, बुढ़ापा नहीं, क्लेश नहीं होता । जहाँ सेवक नहीं, स्वामी नहीं, स्व-पर चक्र का भय नहीं, षटकर्म रूप आजीविका नहीं करनी पड़ती है ।
*कल्पवृक्ष* :-
कल्पवृक्ष दस प्रकार के हैं :-
१. तूर्यांग — वाद्य यंत्र देने वाले
२. पात्रांग — पात्र – बर्तन देने वाले
३. भूषणांग — आभूषण देने वाले
४. पानांग — शीतल सुगंधित जल देने वाले
५. आहारांग — स्वादिष्ट भोजन देने वाले
६. पुष्पांग — सुगन्धित पुष्प देने वाले
७. ज्योतिरांग — प्रकाश देने वाले
८. गृहांग — महल देने वाले
९. वस्त्रांग — वस्त्र, बिछावन आदि देने वाले
१०. दीपांग — दीपमालिका की शोभा करने वाले
भोग भूमि में स्त्री-पुरुषों के युगल के मरण समय में पुरुष को छींक व स्त्री को जिम्हाई आती है, उसी समय में युगल संतान उत्पन्न हो जाते हैं । संतान को माता-पिता नहीं दिखते, और माता-पिता संतान को नहीं देख पाते हैं, अत: उन्हें वियोग का दु:ख नहीं है । मरण होने के बाद शरीर शरद ऋतु के बादलों की तरह विलीन हो जाता है ।
युगलिया (एक स्त्री एक पुरुष) उत्पन्न होने के बाद प्रथम सात दिन तो अपना अगूंठा चूसते हैं । उसके बाद दूसरे सात दिन औंधे-सीधे पलटते रहते हैं । तीसरे सात दिन अस्थिर गमन करने लगते हैं । चौथे सात दिनों में स्थिर गमन करने लगते हैं । पाँचवें सप्ताह में बढ़कर परिपूर्ण युवा हो जाते हैं । छठवें सप्ताह में सभी दर्शन और विज्ञान समझने लगते हैं । सातवें सप्ताह में सभी प्रकार की चातुर्यता तथा कलायें सीख जाते हैं ।
इस तरह से 49 दिनों में परिपूर्ण होकर अनेक पृथक-विक्रिया, अपृथक-विक्रिया सहित अनेक प्रकार के महल, मन्दिर, वनों में विहार करते हुए क्षण क्षण में अनेक प्रकार के नये नये विषयों की सामग्री भोगते हुए अनेक सुखरूप क्रीडायें रागरंग आदि चेष्टायें करते हुये तीन पल्य की आयु पूर्ण करके मरण समय में छींक-जिम्हाई मात्र से प्राण त्याग देते हैं ।
सम्यग्दृष्टि हो तो सौधर्म ईशान स्वर्ग में जाते है, मिथ्यादृष्टि हो तो मरण करके भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषि देवों में उत्पन्न होते हैं । मंद कषाय के प्रभाव से देवलोक के सिवाय अन्य गति में नहीं जाते हैं ।
जय जिनेन्द्र ।
जब भोग भूमि में सारे कार्य कल्पबृक्ष की सहायतार्थ होते है , तो निश्चिन्त उस काल में कोई पाप नही होता होगा । और जब पाप नही होता तो प्राणी मिथ्यादृष्टि कैसे हो सकते है ।
कृपया मार्गदर्शन करें ।