श्री धरसेनाचार्य जी के शिष्य और श्रुतपरम्परा के प्रवर्तक आचार्य पुष्पदन्त और आचार्य भूतबलि जी मुनिराजों द्वारा ईसा की पहली शताब्दी में षट्खण्डागम ग्रंथ की रचना की गई। इस ग्रंथ के प्रथम पाँच खण्ड अर्थात् जीवस्थान, क्षुद्रकबंध, बंधस्वामित्व, वेदनाखण्ड और वर्गणा खण्ड, इनमें ६००० श्लोकप्रमाण सूत्र हैं। छठवें खण्ड को महाबंध कहा जाता है। वह ३०,००० श्लोक प्रमाण सूत्र के माध्यम से रचा गया था।
षट्खण्डागम एवं कसायपाहुड इन दो महान् ग्रंथों की टीकाएँ अनेक आचार्यों ने लिखी हैं। उनमें आठवीं शताब्दी में आचार्य वीरसेन स्वामी कृत प्रथम पाँच खण्डों पर धवला नामक टीका लिखी गई, जो ७२,००० श्लोक प्रमाण है एवं संस्कृत और प्राकृत मिश्रित भाषा में है। आचार्य वीरसेन स्वामी एवं उनके शिष्य जिनसेन स्वामी ने कसायपाहुड ग्रंथ की जयधवला नामक टीका ६०,००० श्लोकों में लिखी। षट्खण्डागम के महाबंध (छठवाँ खण्ड) पर टीका नहीं लिखी गई।
जय जिनेंद्र ,
सभी आचार्य को नमोस्तु नमोस्तु ॥ ॥ ??
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