प्र. दिगम्बर साधुओ के बारे में उनकी नग्नता को लेकर कई भ्रांतियाँ है। एक तो यह कि भाई समाज में कोई तो नग्न नहीं रहता है, फिर यह शख्स नग्न क्यों रहता है ? इसे नग्न रहने का क्या अधिकार है ? जैन तो जानते हैं कि यह एक परंपरा है किंतु इस सिलसिले में जैनो के अलावा दूसरों को क्या उत्तर दे ?
उ. दिगंबर साधु को देखकर सभी को कम से कम यह विचार अवश्य करना चाहिए कि इनके नग्न रहने का क्या कारण है क्या इनके पास वस्त्रों का अभाव है या ये विक्षिप्त है ? क्या नग्नता इनकी मजबूरी है या ये इस तरह नग्न रहकर हमें अल्पतम लेकर अधिकतम लौटाने और अनासक्त होकर जीवन जीने का संदेश दे रहे हैं। वास्तव में दिगंबर जैन मुनि की नग्नता अपरिग्रह का चरम विकास है। यह नग्नता मजबूरी नहीं है, बल्कि इसके पीछे एक समृद्ध जीवन दर्शन है। दिगंबर मुनि बनना एक निर्मूल दर्पण बनने जैसा है। सामान्यतः नग्न होना अभद्रता मालूम पड़ सकती है लेकिन दिगंबर मुनि की वीतराग नग्न मुद्रा में अभद्रता का अहसास नहीं होता। वैसे देखा जाए तो वस्त्र पहने हुए भी व्यक्ति अपनी आंख के इशारे से या अंग संचालन से दूसरे के मन में विकार विकृति को जन्म दे देता है। वस्त्र पहनने का ढंग भी कभी-कभी अश्लीलता का प्रदर्शन करता हुआ मालूम पड़ता है। लेकिन दिगंबर साधु की सौम्य वीतराग-मुद्रा सभी को निर्विकार होने का संदेश देती है।
काका काललेकर ने जैन तीर्थ गोम्मटेश्वर पर विराजमान भगवान बाहुबली की दिगंबर प्रतिमा के दर्शन करके लिखा था- “कैसी अपूर्व है इस मूर्ति की अंगकांति ! दिगंबर और पवित्र, मोहक और पावक, तारक और उद्धारक ! दर्शन करते ही ह्रदय में नवीन सात्विक आनंद स्फुटित होने लगा क्षण भर में वैराग्य और कारुण्य के मानो प्रपात गिरने लगे और चित्त प्रक्षालित होकर क्षणभर में उस भव्यता की ऊँचाई तक चढने लगा।”
असल में, जब नग्नता आत्मानुशासन या संयम के साथ घटित होती है तब उसका सौंदर्य भी पवित्र होता है। राग-द्वेष को त्याग कर ही कोई ऐसी निरावरित नग्नता का पवित्र सौंदर्य स्वयं में प्रकट कर पाता है। यदि हम जीवन की मौलिकता को पाना चाहते हैं हमें भीतर-बाहर सब तरह से निरावरित होना होगा।
मुनि श्री क्षमासागर