उत्तरपुराण में एक कथानक आया है- एक ब्राह्मण अपनी गरीबी से तंग आकर आत्महत्या करने के भाव से एक पर्वत की चोटी पर चढ़ गया। वहाँ खड़े होकर वह बार-बार नीचे देखता, डर के मारे कूद नहीं पाता। मरना कोई हँसी खेल तो है नहीं, जो आत्महत्या करने की सोचते हैं वे भी बार-बार सोचते अवश्य होंगे। वह बेचारा ब्राह्मण भी जीवन से परेशान होकर मरना तो चाहता था किन्तु पर्वत की तलहटी देखकर काँप जाता था कि कैसे चोट सहन करूँगा।
उसी पर्वत की तलहटी में एक अवधिज्ञानी मुनिराज के पास दो मुनि-शिष्य पढ़ रहे थे। वे बार-बार उस मनुष्याकार परछाई को देखकर सोचने लगे कि पर्वत पर कौन है? उन्होंने गुरु से पूछा-भगवन्! यहाँ किसी मनुष्य की परछाई दिखती है फिर लुप्त हो जाती है, आखिर इतने ऊँचे पर्वत पर कौन सा मनुष्य हो सकता है?
गुरु ने अपने दिव्य ज्ञान से बतलाया कि यह एक ब्राह्मण मनुष्य है, अपनी निर्धनता से घबराकर आत्महत्या के विचार से पर्वत पर चढ़ा है लेकिन इसके हृदय में मरने का भय व्याप्त है इसलिए बार-बार नीचे देखकर पीछे हट जाता है। उन मुनिराज ने यह भी बताया कि कालांतर में यह तुम दोनों का पिता होने वाला है तुम इसके पुत्र बनोगे।
यह भविष्यवाणी सुनकर दोनों मुनियों के हृदय में धर्मप्रेम उमड़ पड़ा और वे पर्वत के ऊपर जाकर उस ब्राह्मण को समझाकर गुरु के पास ले आये। कुछ दिन गुरुचरणों में रहने से, उनके उपदेशों से उसके हृदय में शान्ति उत्पन्न हुई और वैराग्य भाव से उसने मुनि दीक्षा धारण कर ली।
घोरातिघोर तपश्चरण करके समाधिमरण से उन्होंने स्वर्ग प्राप्त किया। कालान्तर में वह ब्राह्मण का जीव वसुदेव हुआ और वे दोनों मुनियों के जीव उसके बलभद्र और नारायण श्रीकृष्ण नाम के पुत्र हुए।
यह था क्षण भर गुरु संगति का प्रभाव। कहाँ तो आत्महत्या जैसे निंद्य परिणामों के द्वारा तीव्र पाप बंध कर रहा था और कहाँ मुनि बन कर कल्याण कर लिया। आत्महत्या करने वाला तो नरक निगोदों के दु:ख भोगता ही है, आत्महत्या का विचार करने वाला प्राणी भी अनेक बार गर्भ में गल-गलकर मरता है, ऐसा आगम में बतलाया है। अत: आत्मघातियों को विचार करना चाहिए कि जिस दु:ख से छूटने के लिए तुम विष खाते हो, फांसी लगाते हो, विषैली दवाइयाँ खाकर अपने जीवन का अन्त करना चाहते हो, उनका अंत कहाँ हुआ, उससे भी अधिक दु:खों को तुम आमंत्रित कर रहे हो। हे भव्य प्राणियों! आत्महत्या जैसे घ्रणित शब्दों को तुम जीवन से निकाल दो, धर्म की शरण में आओ यह तुम जैसे दुखियों की रक्षा करने वाला अकारणबंधु है।
मानव एक विज्ञ प्राणी है जो आज आकाश की ऊँचाइयों को छू रहा है वह ऐसे निंद्य विचारों की ओर जाने का प्रयास क्यों करता है? ऐसी कौन सी मजबूरियाँ हैं उसके जीवन की? इन पर चिंतन करने से ज्ञात होता है कि मानव की विकृत बुद्धि का कुप्रभाव ही उसके अमूल्य जीवन को संसार के गड्ढे में धक्का दे देकर गिरा रहा है। यह जीव अनादिकाल से १४ राजू प्रमाण लोक में भ्रमण कर रहा है इन तीनों लोकों में कोई भी ऐसा स्थान नहीं बचा जिसमें उसने जन्म न लिया हो। केवल सुमेरु पर्वत की जड़ में ८ प्रदेश ऐसे हैं जहाँ हम और आप कभी नहीं गए, बाकी सब जगह घूम चुके हैं। सिद्धशिला पर भी गए किन्तु सिद्ध बनकर नहीं, सूक्ष्म निगोदिया बनकर। सिद्ध बनने के बाद तो जीव संसार में वापस आता नहीं है। गुरुणां गुरु चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर जी महाराज कहा करते थे-यदि तुम संसार भ्रमण से थके नहीं हो तो घूमते रहो चतुर्गति में, कोई रोकने वाला नहीं है। यदि भव भ्रमण से थकान आ गई हो, तो संयम ग्रहण करो, अणुव्रती बनो तभी चतुर्गति यात्रा समाप्त हो सकती है।