प्र.१. योग किसे कहते हैं ?
उत्तर— ‘‘कायवाङ्मन: कर्मयोग:’’ काय, वचन और मन की क्रिया को योग कहते हैं।
प्र.२. आस्त्रव का लक्षण क्या है ?
उत्तर— ‘‘स आस्रव:’’ तीन प्रकार का योग ही आस्त्रव है।
प्र.३. आस्रव की परिभाषा कीजिये।
उत्तर— कर्मों का आना आस्रव है।
प्र.४. कर्म कितने प्रकार के हैं ?
उत्तर— कर्म दो प्रकार के हैं — (१) पुण्य कर्म, (२) पाप कर्म
प्र.५. योग किस कर्म के आस्रव का कारण है ?
उत्तर— ‘‘शुभ: पुण्यस्याशुभ: पापस्य’’ शुभयोग पुण्य के और अशुभयोग पाप के आस्रव का कारण है।
प्र.६. पुण्य किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो आत्मा को पवित्र करे उसे पुण्य कहते हैं।
प्र.७. पाप किसे कहते हैं।
उत्तर— जो आत्मा को शुभ करने से रोके वह पाप है।
प्र.८. क्या संसार के सभी जीवों के समान आस्त्रव होते हैं ?
उत्तर— ‘‘सकषायाकषाययो: साम्परायिकेर्यापथयो:’’ कषाय सहित और कषाय रहित आत्मा के क्रम से साम्परायिक और ईर्यापथ आस्रव होता है।
प्र.९. कषाय किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो आत्मा को कसे अर्थात् दु:ख दे वह कषाय है।
प्र.१०. सकषाय किसे कहते हैं ?
उत्तर— कषाय सहित जो मिथ्यादृष्टि आत्मा है वह सकषाय कहलाती है।
प्र.११. अकषाय किसे कहते है ?
उत्तर— उपशांत कषायादि गुणस्थानवर्ती आत्मा अकषाय है।
प्र.१२. मुख्य रूप से कषाय कितने प्रकार की है ?
उत्तर— मुख्य रूप से कषाय ४ प्रकार की है — (१) क्रोध, (२) मान, (३) माया, (४) लोभ।
प्र.१३. साम्परायिक आस्रव क्या है ?
उत्तर— जो संसार परिभ्रमण का कारण है वह साम्परायिक आस्रव है।
प्र.१४. ईर्यापथ क्या है ?
उत्तर— ईर्या का अर्थ है योग, पथ का अर्थ मार्ग। अर्थात् कर्म के आस्रव का पथ ईर्यापथ है।
प्र.१५. योग और कषाय का कार्य क्या है ?
उत्तर— योग का कार्य आस्रव को निमंत्रण देना मात्र है और कषाय का कार्य आये हुए आस्रव को ठहराना है।
प्र.१६. साम्परायिक आस्रव के कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘‘इंद्रियकषायाव्रतक्रिया: पञ्चचतु: पञ्च पञ्चविंशति संख्या: पूर्वस्य भेदा:।’’ साम्परायिक आस्रव के इंद्रिय, कषाय, अव्रत और क्रियारूप भेद हैं जो क्रम से पांच, चार, पांच, और पच्चीस हैं ।
प्र.१७. इंद्रिय किसे कहते हैं ? इंद्रियाँ कितनी होती है ?
उत्तर— जीव की पहचान विशेष को इंद्रिय कहते हैं । वे इंद्रियां ५ हैं —
- स्पर्शन
- रसना
- घ्राण
- चक्षु
- कर्ण ।
प्र.१८. अव्रत का लक्षण और भेद बताईये ।
उत्तर— हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि पांच पापों से विरक्त नहीं होना अव्रत है।
प्र.१९. क्रिया रूप भेद कहा गया है, तो ये क्रियायें कितनी हैं ?
उत्तर—क्रियायें २५ हैं—
- सम्यक्त्व
- मिथ्यात्व
- प्रयोग
- समादान
- ईर्यापथ
- प्रादोषिकी
- कायिकी
- अधिकरणिकी
- परितापिकी
- प्राणातिपातिकी
- दर्शन
- स्पर्शन
- प्रात्ययिकी
- समन्तानुपात
- अनाभोग
- स्वहस्त
- निसर्ग
- विदारण
- आज्ञाव्यापादिक
- प्रारंभ
- अनाकांक्षा
- पारिग्राहिकी
- माया
- मिथ्यादर्शन
- अप्रत्याख्यान।
प्र.२०. पच्चीस क्रियाओं का कारण क्या है ?
उत्तर— इंद्रियां, कषाय और अव्रत ये तीनों कारणभूत हैं और पच्चीस क्रियायें कार्यरूप हैं।
प्र.२१. आस्रव में किस प्रकार विशेषता होती है ?
उत्तर— ‘‘तीव्र मंदज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्य विशेषेभ्यस्तद्विशेष:।’’ तीव्रभाव,मंदभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और वीर्य की विशेषता के भेद से आस्रव में विशेषता होती है।
प्र.२२. तीव्र भाव से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— बाह्य और आभ्यंतर हेतु को उदीरणावश प्राप्त होने के कारण जो उत्कृष्ट परिणाम होता है वह तीव्र भाव है।
प्र.२३. मंदभाव किसे कहते हैं?
उत्तर— मंद, अल्प तथा अनुत्कृष्ट परिणाम मंदभाव हैं ।
प्र.२४. ज्ञातभाव से क्या समझते हैं ?
उत्तर— जानकर प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव हैं ।
प्र.२५. अज्ञातभाव बताईये ।
उत्तर— मद या प्रमाद के कारण बिना जाने प्रवृत्ति करना अज्ञातभाव है।
प्र.२६. अधिकरण क्या है ?
उत्तर— जिसमें पदार्थ अधिकृत किये जाते हैं वह अधिकरण है।
प्र.२७. वीर्य किसे कहते हैं ?
उत्तर— द्रव्य की अपनी शक्ति विशेष को वीर्य कहते हैं।
प्र.२८. वे कौन से तीव्र या मंद भाव हैं जिनसे आस्रव में विशेषता आती है ?
उत्तर— क्रोध, राग, द्वेष , इंद्रिय विषय—कषाय, अव्रत और क्रियाओं में किसी आत्मा में तीव्र तो किसी आत्मा में मंद आस्रव होता है।
प्र.२९. अधिकरण का भेद बताईये।
उत्तर—‘‘अधिकरणं जीवाजीवा:।’’ अधिकरण जीव और अजीव रूप हैं।
प्र.३०. अधिकरण किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिसमें पदार्थ अधिकृत किये जाते हैं, वह द्रव्य अधिकरण है।
प्र.३१. अधिकरण के कितने भेद हैं ?
उत्तर— अधिकरण दस प्रकार के हैं—
- विष
- लवण
- क्षार
- कटुक
- अम्ल
- स्नेह
- अग्नि
- कु— मन
- कु— वचन
- कु— काय।
प्र.३२. जीवाधिकरण के कितने भेद हैं ?
उत्तर— ‘‘आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतु श्चैकश:। ’’ समरम्भ, समारम्भ, आरंभ, मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना, क्रोध, मान, माया, लोभ विशेष ये तीन , तीन, तीन और चार हैं इनको परस्पर गुणा करने से जीवाधिकरण से होने वाले आस्रव के १०८ भेद हैं, इनका आधार जीव है।
प्र.३३.समरम्भ , समारम्भ , आरंभ क्या है ?
उत्तर— समरम्भ — प्रयत्न विशेष को कहते हैं। समारम्भ—साधनों को एकत्र करना समारम्भ है। आरंभ—कार्य करने लगाना आरंभ है।
प्र.३४. कृत —कारित, अनुमोदना समझाईये।
उत्तर— कृत—स्वयं करना कृत है, कारित— दूसरों से कराना कारित है, अनुमोदना— दूसरों के द्वारा किये गये कार्या में अनुमति देना।
प्र.३५.योग किसे कहते हैं ? योग कितने हैं ?
उत्तर— आत्मा के प्रदेशों का हलन—चलन योग है। वे तीन होते है—मन, वचन और काय योग।
प्र.३६. कषाय किसे कहते हैं और कषाय कितनी होती हैं ?
उत्तर— जो आत्मा को कसे अर्थात् दु:ख दे वह कषाय है । ये ४ होती हैं— क्रोध, मान, माया, लोभ ।
प्र.३७. अजीवाधिकरण के कितने भेद हैं।
उत्तर— ‘‘निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुर्द्वित्रिभेदा:परम्” । निर्वर्तना, निक्षेप संयोग तथा निसर्ग के भेद से अजीवाधिकरण के ११ भेद होते हैं।
प्र.३८. निर्वर्तना का अर्थ व भेद बताईये।
उत्तर— निर्वर्तना का अर्थ रचना है, इसके दो भेद हैं —(१) मूलगुण निर्वर्तना (२) उत्तरगुण निर्वर्तना ।
प्र.३९.निक्षेप किसे कहते हैं निक्षेप कितने हैं बताईये ।
उत्तर— स्थापना करना या रखना निक्षेप है। इसके ४ भेद हैं —
- अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण
- दु:प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण
- सहसानिक्षेपाधिकरण
- अनाभोगनिक्षेपाधिकरण ।
प्र.४०. संयोग किसे कहते हैं, इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर— संयोग का अर्थ मिश्रित करना अर्थात् मिलाना है, इसके दो भेद हैं— (१) भक्तपानसंयोगाधिकरण (२) उपकरणसंयोगाधिकरण।
प्र.४१. निसर्ग का अर्थ क्या है ? इसके कितने भेद हैं ?
उत्तर— प्रवृति करना निसर्ग है, इसके तीन भेद हैं — (१) कायनिसर्गाधिकरण (२) वाक् (वचन) निसर्गाधिकरण (३) मनोनिसर्गाधिकरण।
प्र.४२. ज्ञानावरण और दर्शनावरण के आस्रव के हेतु कौन—कौन हैं ?
उत्तर— ‘तत्प्रदोषनिन्हवमात्सर्यान्तरायासादनोपघाता ज्ञानदर्शनावरणयो:।’ ज्ञान और दर्शन के विषय में प्रदोष, निह्रव, मात्सर्य, अंतराय, आसादन और उपघात ये ज्ञानावरण दर्शनावरण के आस्रव हैं।
प्र.४३. प्रदोष किसे कहते हैं ?
उत्तर— तत्वज्ञान का गुणगान करते समय वक्ता के अंदर होने वाले पैशून्य परिणाम को प्रदोष कहते हैं।
प्र.४४. निन्हव क्या है ?
उत्तर— ज्ञान होने पर भी छिपाना निन्हव है।
प्र.४५. मात्सर्य क्या है ?
उत्तर— ज्ञान का अभ्यास एवं उपयोगिता होने पर भी जिस कारण से वह नहीं दिया जाता है वह मात्सर्य है।
प्र.४६. अंतराय किसे कहते हैं ?
उत्तर— ज्ञान का विच्छेद अंतराय है ।
प्र.४७. आसादन किसे कहते है ?
उत्तर— जब कोई ज्ञान का प्रकाश कर रहा हो तब शरीर या वचन से उसका निषेध करना आसादन है।
प्र.४८. उपघात किसे कहते हैं ?
उत्तर— प्रशंसनीय ज्ञान में दूषण लगाना उपघात है।
प्र.४९. असाता वेदनीय कर्म का आस्रव किन कारणों से होता है ?
उत्तर— ‘‘दु:ख शोक तापाक्रंदन—वध—परिदेव—नान्यात्म—परोभय—स्थानान्य सद्—वेद्यस्य’’ स्व, पर तथा दोनों में किये जाने वाले दु:ख, शोक, ताप, आक्रन्दन, वध और परिदेवन असाता वेदनीय कर्म के आस्रव हैं।
प्र.५०. दु:ख से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— पीड़ा रूप आत्मा का परिणाम दु:ख है।
प्र.५१. शोक क्या है ?
उत्तर— संबंधो के टूटने पर होने वाली विकलता शोक है।
प्र.५२. ताप से क्या समझते हो ?
उत्तर— अपवाद आदि से मन का खिन्न होना और उससे उत्पन्न संताप ताप है।
प्र.५३. आक्रन्दन क्या है ?
उत्तर— आंसू गिराते हुए विलाप करते हुए खुलकर रोना आक्रन्दन है।
प्र.५४. वध क्या है ?
उत्तर— आयु, इंद्रिय, बल और श्वासोच्छ्वास का वियोग कर देना वध है ?
प्र.५५. परिदेवन क्या है ?
उत्तर— स्व पर उपकार की इच्छा से अत्यंत करूणापूर्ण रूदन करना परिदेवन है ?
प्र.५६. साता वेदनीय कर्म के आस्रव के कारण क्या है ?
उत्तर— ‘‘भूतव्रत्यनुकम्पादान सराग संयमादि योग: क्षान्ति:शौचमिति सद्वेद्यस्य’’। भूत, व्रत, अनुकंपा, दान और सरागसंयम आदि का योग तथा क्षांति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के आस्रव हैं।
प्र.५७. भूत से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— जो कर्मोदय के वशीभूत होकर नरक आदि चतुर्गतियों में भ्रमण करते हैं वे प्राणी वर्ग भूत कहलाते हैं।
प्र.५८. व्रती का लक्षण क्या है ?
उत्तर— हिंसा , झूठ, चोरी, कुशील व परिग्रह इन पांच पापों से विरत होने वाले श्रावक और मुनि व्रती कहलाते हैं ।
प्र.५९. अनुकम्पा का क्या अर्थ है ?
उत्तर— दूसरों की पीड़ा को अपनी पीड़ा मानने का भाव अनुकम्पा है।
प्र.६०. दान किसे कहते है ?
उत्तर— दूसरों का भला हो इस विचार के साथ अपनी वस्तु का अर्पण करना दान है।
प्र.६१. सराग से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— जिनके मन से राग के संस्कार तो नष्ट नहीं हुए हैं किंतु जो संसार के कारणों के त्याग के प्रति उत्सुक हैं वह सराग कहलाता है।
प्र.६२. संयम क्या है ?
उत्तर— प्राणी और इंद्रियों के विषय में अशुभ प्रवृत्ति के त्याग को संयम कहते है।
प्र.६३. क्षांति और शौच का लक्षण बताईये।
उत्तर— क्रोधादि दोषों का निराकरण करना क्षांति तथा लोभ के प्रकारों का त्याग करना शौच है।
प्र.६४. दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव किन परिणामों से होता है ?
उत्तर— केवली, श्रुत, संघ, धर्म और देव इनका अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म का आस्रव है।
प्र.६५. अवर्णवाद से क्या आशय है ?
उत्तर— गुणवान पुरुष में जो दोष नहीं है उनको झूठे दोष लगाना अवर्णवाद है।
प्र.६६. चारित्र मोहनीय कर्म के आस्रव के हेतु क्या हैं ?
उत्तर— कषाय के उदय से होने वाला तीव्र आत्म परिणाम चारित्र मोहनीय का आस्रव है, जिसका सूत्र है — ‘‘कषायोदयात्तीव्रपरिणामश्चारित्रमोहस्य् ।’’
प्र.६७. कषाय से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— जो आत्मा को कसे अर्थात् दु:ख दे उसे कषाय कहते हैं।
प्र.६८. चारित्र मोहनीय के कितने भेद हैं ?
उत्तर— चारित्र मोहनीय के दो भेद हैं :— (१) कषाय वेदनीय (२) अकषाय वेदनीय।
प्र.६९. कषाय कितनी होती हैं ?
उत्तर— मूलत: कषाय ४ हैं :—(१) क्रोध, (२) मान (३) माया, (४) लोभ
प्र.७०. कुल कषाय कितनी होती हैं ?
उत्तर— कुल कषाय २५ होती है — (१) अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ , ४ (२) प्रत्याख्यानानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, ४ (३) अप्रत्याख्यानानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, ४ (४) संज्वलनबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ, ४ १६ तथा ९ नोकषाय जो इस प्रकार हैं :—
- हास्य
- रति
- अरति
- शोक
- भय
- जुगुप्सा
- स्त्री वेद
- पुरुष वेद
- नपुंसकवेद ।
प्र.७१. नरक आयु के आस्रव के कारण कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘बह्वारम्भपरिग्रहत्वं नारकस्यायुष:।’’ बहुत आरंभ और परिग्रह का भाव नरक आयु के बंध का कारण है।
प्र.७२. आरंभ क्या है ?
उत्तर— प्राणियों को दु:ख पहुंचाने की प्रवृत्ति आरंभ है।
प्र.७३. परिग्रह क्या है ?
उत्तर— यह वस्तु मेरी है इस प्रकार का ममत्व भाव परिग्रह है।
प्र.७४. तिर्यंच आयु के आश्रव का कारण क्या है
उत्तर— ‘‘माया तैर्यग्योनस्य।’’ मायाचारी से तिर्यंच आयु का आश्रव होता है।
प्र.७५. ‘माया’ से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— आत्मा में होने वाले कुटील परिणामों को माया कहते हैं।
प्र.७६. मनुष्य आयु के आस्रव योग्य परिणाम कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘अल्पारंभपरिग्रहत्वं मानुषस्य।’’ अल्प आरंभ और अल्प परिग्रह का भाव मनुष्य आयु का आश्रव है।
प्र.७७. मनुष्य आयु के आस्रव के अन्य कारण क्या है ?
उत्तर— ‘‘स्वभावमार्दवं च । ’’ स्वभाव की मृदुता मनुष्य आयु के आश्रव का कारण है।
प्र.७८. समस्त आयुओं के आस्रव योग्य परिणाम कौन से हैं ?
उत्तर— शील रहित और व्रतरहित होना समस्त आयुओं का आस्रव है। जिसका सूत्र है — ‘‘ नि:शीलव्रतत्वं च सर्वेषाम्। ’’
प्र.७९. शील किसे कहते हैं ?
उत्तर— तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के पालन को ‘शील’ कहते हैं।
प्र.८०. व्रत क्या है ?
उत्तर— अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये व्रत हैं।
प्र.८१. नि:शीलव्रत किसे कहते हैं ?
उत्तर— जो शील और व्रत से रहित हो नि:शीलव्रत है।
प्र.८२. देवायु के आस्रव के कारण कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘सरागसंयमसंयमासंयमाकामनिर्जराबालतपांसि दैवस्य।’’ सराग संयम, अकाम निर्जरा और बालतप ये देवआयु के आस्रव के कारण हैं।
प्र.८३. सराग संयम और संयमासंयम क्या है ?
उत्तर— रागी जीव का संयम सराग संयम है तथा संयम — असंयम को संयमासंयम कहते हैं।
प्र.८४. अकाम निर्जरा क्या है ?
उत्तर— बिना इच्छा से जो निर्जरा होती है, वह अकाम निर्जरा है जैसे किसी के द्वारा कारागृह में रस्सी आदि से बांधकर रखने से जो भूख, प्यास की वेदना सहनी पड़ती है ये सब अकाम है और इससे होने वाली निर्जरा अकाम निर्जरा है।
प्र.८५. बाल तप क्या है ?
उत्तर— मिथ्यात्व सहित तप बालतप है अर्थात् जिन्होंने तत्वों के स्वरूप को नहीं जाना है ऐसे तत्वज्ञान शून्य जीवों द्वारा किया गया तप बाल तप कहलाता है।
प्र.८६. देव आयु के आस्रव के अन्य कारण कौन से हैं ?
उत्तर— ‘सम्यक्त्वं च ’ सम्यक्तव भी देव आयु के आस्रव का कारण है ।
प्र.८७. अशुभनामकर्म के आस्रव कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘योगवक्रता विसंवादनं चाशुभस्य नाम्न:।’’ योगों की कुटिलता और विसंवाद ये अशुभनामकर्म के आस्रव हैं।
प्र.८८. योगवक्रता किसे कहते हैं ?
उत्तर— मन, वचन, काय की कुटिलता को योगवक्रता कहते हैं।
प्र.८९. विसंवादन क्या है ?
उत्तर— स्वर्ग—मोक्ष के योग्य समीचीन क्रियाओं का आचरण कर रहे व्यक्ति को मन, वचन, काय की प्रवृत्ति से रोकना विसंवादन है।
प्र.९०. शुभनामकर्म के आस्रव क्या हैं ?
उत्तर— ‘‘तद्विपरीतं शुभस्य’’ उससे विपरीत अर्थात् योग की सरलता एवम् अविसंवाद ये शुभनामकर्म के आस्रव हैं ।
प्र.९१. तीर्थंकर नाम कर्म के आस्रव के कारण कौन से हैं ?
उत्तर—‘‘दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नताशीलव्रतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्ति— तस्त्यागतपसीसाधुसमाधिर्वैयावृत्यकरणमर्हदाचार्य बहुश्रुतप्रवचनभक्तिरावश्यकापरिहाणिर्मार्ग प्रभावनाप्रवचनवत्सलत्वमितितीर्थकरत्वस्य।’’ दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील और व्रतों का अतिचार रहित पालन करना, ज्ञान में सतत उपयोग, निरंतर संवेग, शक्ति के अनुसार त्याग, शक्ति के अनुसार तप, साधुसमाधि वैयावृत्य करना, अरिहंत भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति, प्रवचन भक्ति, आवश्यक क्रियाओं को नहीं छोड़ना, मोक्षमार्ग की प्रभावना और प्रवचन वात्सल्य ये तीर्थंकर नामकर्म के आस्रव के कारण हैं।
प्र.९२. दर्शन विशुद्धि किसे कहते हैं ?
उत्तर— जिन भगवान अरिहंत परमेष्ठी द्वारा कहे गये निर्ग्रंथ स्वरूप मोक्षमार्ग पर रूचि रखना दर्शनविशुद्धि है।
प्र.९३. विनयसंपन्नता क्या है ?
उत्तर— मोक्षमार्ग एवं उसे बतलाने वाले उस मार्ग पर चलने वाले गुरु आदि के प्रति अपने योग्य आचरण द्वारा आदर सत्कार करना विनय है और इससे युक्त होना विनयसंपन्नता है।
प्र.९४. शीलव्रतेषुअनतिचार क्या है ?
उत्तर— अहिंसादिक व्रत हैं और इनके पालन करने के लिये क्रोधादिक का त्याग करना शील है। दोनों के पालन करने में निर्दोष प्रवृत्ति रखना शीलव्रतेषुअनतिचार है।
प्र.९५. अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग क्या है ?
उत्तर— स्वतत्व विषय सम्यग्ज्ञान में निरंतर लगे रहना अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग है।
प्र.९६. संवेग क्या है ?
उत्तर— संसार के दु:खों से नित्य डरते रहना संवेग है।
प्र.९७.त्याग क्या है ?
उत्तर— शक्ति अनुसार विधिपूर्वक आहार, औषध और अभयदान देना त्याग है।
प्र.९८. संवेग क्या है ?
उत्तर— संसार के दु:खों से नित्य डरना संवेग है।
प्र.९९. तप क्या है ?
उत्तर— शक्ति को ना छिपाकर मोक्षमार्ग के अनुकूल शरीर को कृश करना यथा शक्ति तप है।
प्र.१००. साधुसमाधि क्या है
उत्तर— अनेक प्रकार के व्रत और शीलों से समृद्ध मुनि के तप करने में विघ्न होने पर संधारण करना साधु समाधि है।
१०१.प्र. वैय्यावृत्य क्या है ?
उत्तर— गुणी पुरुष के ऊपर दु:ख आने पर निर्दोष विधि से उनका दु:ख दूर करना वैयावृत्य है।
प्र.१०२. अरिहंत भक्ति , आचार्य भक्ति, बहुश्रुतभक्ति तथा प्रवचन भक्ति क्या है ?
उत्तर— अरिहंत , आचार्य, बहुश्रुत और प्रवचन इनमें भावनाओं की शुद्धि के साथ अनुराग रखना अरिहंत भक्ति, आचार्य भक्ति, बहुश्रुत भक्ति तथा प्रवचन भक्ति है ।
प्र.१०३.आवश्यकापरिहाणि क्या है ?
उत्तर—छह आवश्यक क्रियाओं को यथासम्भव करना आवश्यकापरिहाणि है।
प्र.१०४. मार्ग प्रभावना क्या है ?
उत्तर— ज्ञान, तप, दान और जिनपूजा द्वारा धर्म का प्रकाश करना मार्गप्रभावना है।
प्र.१०५. प्रवचनवत्सल क्या है ?
उत्तर— साधर्मियों पर गोवत्स सम स्नेह रखना प्रवचनवत्सल है।
प्र.१०६. नीच गोत्र का आस्रव किन परिणामों से होता है ?
उत्तर— ‘‘परात्मनिंदा—प्रशंसे सदसद्गुणोच्छादनोद् भावने च नीचैर्गोत्रस्य।’’ परनिंदा, आत्म प्रशंसा, सदगुणों का उच्छादन और असद्गुणों का उद्भावन ये नीच गोत्र के आस्रव के कारण हैं।
प्र.१०७. उच्च गोत्र के आस्रव रूप परिणाम कौन से हैं ?
उत्तर— ‘‘तद्विपर्ययो नीचैर्वृत्यनुत्सेकौ चोत्तरस्य । ’’ नीच गोत्र के विपरीत पर प्रशंसा , आतमनिंदा, सद्गुणों का उद्भावन, असद्गुणों का उच्छादन तथा नम्रवृत्ति और अनुत्सेक उच्चगोत्र के आस्रव हैं।
प्र.१०८. अनुत्सेक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर— ज्ञानादि से श्रेष्ठ होने पर भी अहंकार रहित होना अनुत्सेक है।
प्र.१०९. अंतराय कर्म का आस्रव क्या है ?
उत्तर— ‘‘विघ्नकरणमन्तरायस्य।’’ दानादि में विघ्न डालना अंतराय कर्म का आस्रव है।
प्र.११०. छठे अध्याय की क्या विशेषता है ।
उत्तर— यह अध्याय आत्मशुद्धि का दर्पण है।