श्री रइधू कवि ने अपभृंश भाषा में आर्जव धर्म के विषय में कहा है
धम्महु वर—लक्खणु अज्जउ थिर—मणु दुरिय—वहंडणु सुह—जणणु।
तं इत्थ जि किज्जइ तं पालिज्जइ, तं णि सुणिज्जइ खय—जणणु।।
जारिसु णिजय—चित्ति चितिज्जइ, तारिसु अण्णहं पुजु भासिज्जइ।
किज्जइ पुणु तारिसु सुह—संचणु, तं अज्जउ गुण मुणहु अवंचणु।।
माया—सल्लु मणहु णिस्सारहु, अज्ज धम्मु पवित्तु वियारहु।
वउ तउ मायावियहु णिरत्थउ, अज्जउ सिव—पुर—पंथहु सत्थउ।।
जत्थ कुडिल परिणामु चइज्जइ, तिंह अज्जउ धम्मु जि सपज्जइ।
दंसण—णाण सरूव अखंडउ, परम—अतिंदिय—सुक्य—करंडउ।।
अप्पिं अप्पउ भवहु तरंडउु, एरिसु चेयण—भाव पयंडउ।
सो पुणु अज्जउ धम्मे लब्भई, अज्जवेण वइरिय—मणु खुब्भइ।।
घत्ता— अज्जण परमप्पण गयसंकप्पउ चिम्मितु जि, सामउ अभउ।
तं णिरू झाइज्जइ संसउ हिज्जइ पाविज्जइजिहीं अचल—पउ।।
अर्थ — आर्जव धर्म का उत्तम लक्षण है, वह मन को स्थिर करने वाला है, पाप को नष्ट करने वाला है और सुख का उत्पादक है। इसलिए इस भव में इस आर्जव धर्म को आचरण में लावो, उसी का पालन करो और उसी का श्रवण करो, क्योंकि वह भव का क्षय करने वाला है।
जैसा अपने मन में विचार किया जाये, वैसा ही दूसरों से कहा जाये और वैसा ही कार्य किया जाये। इस प्रकार से मन—वचन—काय की सरल प्रवृत्ति का नाम ही आर्जव है। यह अवंचक आर्जव गुण सुख का संचय कराने वाला है ऐसा तुम समझो।
मन से माया शल्य को निकाल दो और पवित्र आर्जव धर्म का विचार करो। क्योंकि मायावी पुरुष के व्रत और तप सब निरर्थक हैं। यह आर्जव भाव ही मोक्षपुरी का सीधा उत्तम मार्ग है।
जहाँ पर कुटिल परिणाम का त्याग कर दिया जाता है वहीं पर आर्जव धर्म प्रगट होता है। यह अखण्ड दर्शन और ज्ञानस्वरूप है तथा परम अतींद्रिय सुख का पिटारा है।
स्वयं आत्मा को भवसमुद्र से पार करने वाला ऐसा जो प्रचन्ड चैतन्य भाव है वह पुन: आर्जव धर्म के होने पर ही प्राप्त होता है। इस आर्जव—सरल भाव से बैरियों का मन भी क्षुब्ध हो जाता है।
आर्जव धर्म परमात्म—स्वरूप है, संकल्पों से रहित है, चिन्मय आत्मा का मित्र है, शाश्वत है और अभयरूप है। जो निरन्तर उसका ध्यान करता है, वह संशय का त्याग कर देता है और पुन: अचल पद को प्राप्त कर लेता है।
श्री शुभचंद्राचार्य कहते हैं कि
वीतराग सर्वज्ञ भगवान ने मुक्ति मार्ग को सरल कहा है, उसमें मायावी जनों के स्थिर रहने की योग्यता स्वप्न में भी नहीं है ।
मायाचारी के निमित्त से राजा सगर को दुर्गति में जाना पड़ा है और उसी निमित्त से हिसामयी यज्ञ की परम्परा चल पड़ी है।
इसी भरत क्षेत्र में ‘चारणयुगल’ नाम का नगर है। उसमें सुयोधन नाम का राजा राज्य करता था, उसकी ‘अतिथि’ नाम की पटरानी थी, इन दोनों के ‘सुलसा’ नाम की पुत्री हुई थी। उसके स्वयंवर के लिए विधिवत् सर्वत्र सूचना पहुँचने पर बहुत से राजागण ‘चारणयुगल’ नगर में आ गये।
अयोध्या का राजा सगर उस स्वयंवर में जाने को उत्सुक था कि उसने अपने तेल लगाने वाले के मुख से सुना कि सिर में एक सफेद केश आ गया है। राजा कुछ विरक्त हो गया। राजा सगर की मंदोदरी धाय ने उसका फल किसी उत्तम वस्तु का लाभ सूचक बतला दिया और मंत्री विश्वभू ने आकर राजा से कहा कि महाराज ! हम ऐसा ही प्रयत्न करेंगे कि वह ‘सुलसा’ तुम्हें ही वरण करे। सगर की मंदोदरी धाय ने सुलसा के पास आकर राजा सगर के अनेकों गुणों का वर्णन करके ‘सुलसा’ को राजा सगर में आसक्त कर लिया। इधर रानी ‘अतिथि’ को जब यह बात मालूम हुई तब उसने राजा सगर की निन्दा करके अपने भाई के पुत्र ‘मधुिंपगल’ को वरण करने के लिये सुलसा को समझाया और मंदोदरी को सुलसा के पास आना—जाना बंद कर दिया। मंदोदरी ने यह बात राजा सगर को कही और राज सगर ने अपने ‘विश्वभू’ मंत्री को बुलाकर कार्य सिद्धि के लिए आदेश दिया।
बुद्धिमान् मन्त्री ने राजा की बात स्वीकार कर कूटनीति से ‘स्वयंवर विधान’ नामक एक ग्रन्थ बनवाया और उसमें वर के अच्छे—बुरे लक्षण लिख दिये और उस ग्रन्थ को संदूकची में बंद करके गुप्त रूप से उसी नगर के बगीचे में गड़वा दी। किसी समय वह संदूकची निकाली गई और यह ‘प्राचीन शास्त्र’ है ऐसा समझकर वह पुस्तक राजकुमारों के समूह में बंचवाई गई।
उसमें लिखा था कि कन्या और वर के समुदाय में जिसकी आँख सफेद और पीली हो, माला के द्वारा उसका सत्कार नहीं करना चाहिए अन्यथा कन्या की मृत्यु हो जाती है या वह मर जाता है इत्यादि। ये बातें मधुपगल में मौजूद थीं अत: वह यह सब सुन लज्जावश वहाँ से बाहर चला गया और हरिषेण गुरु के पास जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। राजा सगर में आसक्त सुलसा ने स्वयंवर में उसे ही वरण कर लिया।
मधुिंपगल मुनिराज किसी दिन आहार के लिए किसी नगर में गये थे। वहाँ कोई निमित्तज्ञानी उनके लक्षण देखकर कहने लगा कि ‘इस युवा के चिन्ह तो पृथ्वी का राज्य करने के योग्य हैं परन्तु यह भिक्षा भोजन करने वाला है इससे ऐसा जान पड़ता है कि इन सामुद्रिक शास्त्रों से कोई प्रयोजन नहीं है यह सब व्यर्थ है’। उसके साथ दूसरे निमित्तज्ञानी ने कहा कि ‘यह तो राज्य लक्ष्मी का ही उपभोग करता किन्तु सगर के मंत्री ने झूठमूठ कृत्रिम शास्त्र दिखलाकर इसे दूषित ठहरा दिया इसलिए इसने लज्जावश दीक्षा ले ली है।’ उस निमित्तज्ञानी के वचन सुनकर मधुपगल मुनि क्रोधाग्नि से प्रज्ज्वलित हो गये। ‘मैं इस तप के फल से अगले जन्म में राजा सगर के समस्त वंश को निर्मूल करूँगा’ ऐसा उन बुद्धिहीन मधुिंपगल ने निदान कर दिया। अन्त में मरण करके वह असुरेन्द्र की महिष जाति की सेना की पहली कक्षा में चौंसठ हजार सुरों का नायक ‘महाकाल’ नाम का असुर हुआ, वहाँ पर कुअवधिज्ञान से पूर्वभव के सब वृत्तांत विदित कर वह देव क्रोध से भर गया। मंत्री और राजा सगर के ऊपर उसका बैर और दृढ़ हो गया, फिर भी वह उन्हें जान से नहीं मारना चाहता था किन्तु उसके बदले में वह उनसे कोई भयंकर पाप करवाना चाहता था। अपने अप्रिभाय को सफल करने के लिए वह उपाय और सहायकों की चिन्ता में यत्र—तत्र घूम रहा था, इधर उसके अभिप्राय को सिद्ध करने वाली दूसरी घटना हो गई।