श्रावक के ८ मूलगुण होते हैं। इनके अनेक प्रकार हैं— पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में श्री अमृतचंदसूरि ने लिखा हैं—
िंहसाव्युपरतिकामैर्मोक्तव्यानि प्रथममेव।।६१।।
व्रतं जिघृक्षुणा पूर्वं विधातव्यं प्रयत्नतः।।२६३।।
भावार्थ — मद्य, माँस और शहद का त्याग तथा पाँचों उदंबरों का त्याग आठ मूलगुण कहलाते हैं। मूलगुणों के धारण करने से व्रतों के धारण करने की योग्यता या पात्रता आ जाती है। बिना आठ मूलगुण धारण किये यह गृहस्थ श्रावक नहीं कहला सकता। इन आठ मूलगुणों को पाक्षिक श्रावक धारण करता है और व्रतों को नैष्ठिक श्रावक धारण करता है। रत्नकरण्डश्रावकाचार में श्री समन्तभद्राचार्य ने श्रावकों के निम्न ८ मूलगुण बताए हैं—
अष्टौ मूलगुणानाहु-र्गृहिणां श्रमणोत्तमाः।।६६।।
अर्थ — मदिरा, मांस और शहद का त्याग करके पाँच अणुव्रतों का पालन करना ये आठ मूलगुण हैं जो कि गृहस्थों के लिए कहे गए हैं। जिस प्रकार मूल-जड़ के बिना वृक्ष नहीं हो सकता, उसी प्रकार इन मूलगुणों के बिना कोई भी मनुष्य श्रावक नहीं हो सकता है, ऐसा समझना।।६६।। पं. श्री आशाधर जी ने सागार धर्मामृत में अष्टमूल गुण का वर्णन निम्न प्रकार किया है—
जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।।१८।।
फलस्थाने स्मरेत द्यूतं मधुस्थान इहैव वा।।३।।
अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणाः श्रुते।। (सो. उपा. २७० श्लो.)
विशेषार्थ — आचार्य कुन्दकुन्द और उमास्वामी ने अपने श्रावकाचार के वर्णन में मूलगुण का कोई निर्देश नहीं किया। श्वेताम्बर साहित्य में भी श्रावक के मूलगुणों की कोई चर्चा नहीं है। सबसे प्रथम आचार्य समन्तभद्र के रत्नकरण्ड श्रावकाचार में श्रावक के आठ मूलगुण कहे हैं। वे हैं—मद्य, मांस, मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रत। इन्हीं को ग्रन्थकार ने ‘वा’ शब्द से सूचित किया है। इन्हीं अष्ट मूलगुणों में मधु के स्थान में जुआँ का त्यागकर मद्य, मांस और द्यूत तथा स्थूल हिंसा, स्थूल झूठ, स्थूल चोरी, स्थूल अब्रह्म और स्थूल परिग्रह का त्याग ये आठ मूलगुण ग्रन्थकार ने महापुराण के मत से कहे हैं और प्रमाणरूप से श्लोक भी उद्धृत किया है। किन्तु महापुराण के मुद्रित संस्करणों में वह श्लोक नहीं मिलता। चारित्रसार में यह श्लोक उद्धृत है और वह भी महापुराण नाम से ज्ञात होता है, आशाधरजी ने भी उसे वहीं से उद्धृत किया है। महापुराण में तो व्रतावतरण क्रिया में मधु-मांस के त्याग तथा पंच उदुम्बरों के त्याग और हिसादि विरति को सार्वकालिक व्रत कहा है। मूलगुण का भी नाम नहीं है। न मधु के स्थान में जुए का ही त्याग कराया है। आगे जो पाँच अणुव्रतों के स्थान में पाँच उदुम्बर फलों के त्याग को अष्ट मूलगुणों में लिया गया उसका प्रारम्भ महापुराण से ही हुआ प्रतीत होता है। पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रंथ में भी सर्वप्रथम हिंसा के त्यागी को मद्य, मांस, मधु और पाँच उदुम्बर फलों को छोड़ने का विधान है किन्तु उन्हें मूलगुण शब्द से नहीं कहा है। सबसे प्रथम पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में ही इन आठों में होने वाली हिंसा का स्पष्ट कथन मिलता है और इन्हें अनिष्ट, दुस्तर और पाप के घर कहा है तथा यह भी कहा है कि इन आठों का त्याग करने पर ही सम्यग्दृष्टि जीव जिनधर्म की देशना का पात्र होते हैं। इसके बाद आचार्य सोमदेव ने अपने उपासकाचार में और आचार्य पद्मनन्दि ने पञ्चविंशतिका में स्पष्टरूप से इन आठों के त्याग को मूलगुण कहा है और उन्हीं का अनुसरण आशाधर जी ने किया है। आचार्य अमितगति ने जो आचार्य सोमदेव और पद्मनन्दि के मध्य में हुए हैं, अपने श्रावकाचार में इन आठों के साथ रात्रि-भोजन का भी त्याग आवश्यक माना है किन्तु उन्हें मूलगुण शब्द से नहीं कहा। देवसेन के भावसंग्रह में भी (गा. ३५६) अष्ट मूलगुण का निर्देश है। शिवकोटि की रत्नमाला में एक विशेषता है उसमें मद्य, मांस और मधु के त्याग के साथ पाँच अणुव्रतों को अष्ट मूलगुण कहा है। और पाँच उदुम्बरों के त्यागवाले अष्ट मूलगुण को बालकों के कहा है। पं. आशाधर के उत्तरकालीन मेधावी ने अपने श्रावकाचार में मद्यादि तीन तथा पाँच उदुम्बर फलों के सातिचार त्याग को अष्टमूलगुण कहा है। और पं. राजमल्लने अपनी पंचाध्यायी के उत्तरार्ध में आठ मूलगुणों का कथन करते हुए उनके बारे में जो विशेष कथन किया है वह इस प्रकार है कि ‘व्रतधारी गृहस्थों के आठ मूलगुण होते हैं। कहीं-कहीं अव्रतियों के भी होते हैं क्योंकि ये सर्वसाधारण है। ये आठ मूलगुण स्वभाव से या कुल परम्परा से चले आते हैं। इनके बिना न सम्यक्त्व होता है और न व्रत। इनके बिना जब जीव, नाम से भी श्रावक नहीं हो सकता तब पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक की तो बात ही क्या है। जिसने मद्य, मांस और मधु का और पाँच उदुम्बर फलों का त्याग कर दिया है वह नामसे श्रावक है। त्याग न करने पर नामसे भी श्रावक नहीं है।’