सम्यग्दर्शन
सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह आठ अंग से सहित होता है तथा इन अंगों के उल्टे शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित होता है अथवा छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ इनका श्रद्धान करना भी सम्यग्दर्शन है।
सच्चे देव-जो दोष रहित वीतराग, सर्वज्ञ और हितोपदेशी हैं, वे ही आप्त—सच्चे देव कहलाते हैं अर्थात् सच्चे देव ४६ गुण सहित और १८ दोष रहित होते हैं। इन्हें ही अर्हंत परमेष्ठी कहते हैं।
सच्चे शास्त्र-सर्वज्ञ देव के द्वारा कथित, पूर्वापर विरोध से रहित, सभी जीवों को हितकारी ऐसे सच्चे तत्त्वों का जिसमें उपदेश है, वे ही सच्चे शास्त्र हैं।
सच्चे गुरु-जो विषयों की आशा से रहित और परिग्रह के त्यागी हैं तथा ज्ञान, ध्यान व तप में लवलीन रहते हैं, वे निग्र्रन्थ साधु ही सच्चे गुरु हैं।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग हैं-(१) नि:शंकित (२) नि:कांक्षित (३) निर्वि-चिकित्सा (४) अमूढ़दृष्टि (५) उपगूहन (६) स्थितिकरण (७) वात्सल्य (८) प्रभावना।
इन आठ अंगों में से यदि एक भी अंग नहीं हो तो वह सम्यग्दर्शन संसार परम्परा का नाश नहीं कर सकता, जैसे एक अक्षर से भी हीन मंत्र विष को दूर नहीं कर सकता।
१-नि:शंकित अंग एवं अंजन चोर
तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य प्रकार से नहीं हो सकता है, इस प्रकार दृढ़ता रखना, उसमें कचित् शंका नहीं करना नि:शंकित अंग है। इस अंग के फल से किसने क्या फल पाया, उसकी कथा बताते हैं-
कश्मीर देश के अंतर्गत विजयपुर के राजा अरिमथन के ललितांग नाम का एक सुन्दर पुत्र था। इकलौता बेटा होने से माता-पिता के अत्यधिक लाड़-प्यार से वह विद्याध्ययन नहीं कर सका और दुव्र्यसनी बन गया। युवा होने पर प्रजा को अत्यधिक त्रास देने लगा, तब राजा ने उसे देश से निकाल दिया।
वह चोर डाकुओं का सरदार बन गया और अंजनगुटिका विद्या सिद्ध करके दूसरों से अदृश्य होकर मनमाने अत्याचार करने लगा, जिसके कारण अंजन चोर नाम से प्रसिद्ध हो गया।
किसी समय वह राजगृह नगर में रात्रि में राजघराने से रत्नहार चुराकर भागा। तब कोतवालों ने उसकी विद्या नष्ट करके उसका पीछा किया। वह श्मशान में पहुंच गया। वहां पर एक वट वृक्ष में सौ सींकों के एक छींके पर एक सेठ बैठा था। वह बार-बार छींके से चढ़-उतर रहा था। चोर ने पूछा—यह क्या है ? सेठ ने कहा-‘‘मुझे जिनदत्त सेठ ने आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करने को दी है किन्तु मुझे शंका है कि यदि विद्या सिद्ध नहीं हुई तो मैं नीचे शस्त्रों पर गिरकर मर जाऊंगा।
अंजन चोर ने कहा-भाई! तुम शीघ्र ही इसके सिद्ध करने का उपाय मुझे बता दो क्योंकि जिनदत्त सेठ मुनिभक्त हैं। उनके वचन कभी असत्य नहीं होंगे। सेठ ने विधिपूर्वक सब बता दिया। उसने शीघ्र ही ऊपर चढ़कर महामंत्र का स्मरण करते हुए एक साथ सभी डोरियां काट दीं। नीचे गिरते हुए अंजन चोर को बीच में ही आकाशगामिनी विद्या देवी ने आकर विमान में बैठा लिया और बोली-आज्ञा दीजिए मैं क्या करूँ? अंजन चोर ने कहा कि मुझे जिनदत्त सेठ के पास पहुँचा दो । विद्या देवता ने सुमेरु पर्वत पर पहुँचा दिया। वहाँ पहुँचकर उसने चैत्यालयों की वंदना करते हुए जिनदत्त से मिल कर नमस्कार करके सारी बातें बता दीं।
अनंतर सम्पूर्ण पापों को छोड़कर देवर्षि नामक मुनिराज के पास दैगंबरी दीक्षा ले ली, तपश्चर्या के बल से चारणऋद्धि प्राप्त कर ली, पुन: केवलज्ञान प्राप्त कर अंत में वैâलाश पर्वत से मोक्ष पधार गये। नि:शंकित अंग के प्रभाव से अंजन निरंजन (सिद्ध) बन गये।
२-नि:कांक्षित अंग एवं अनंतमती
संसार के सुख कर्मों के अधीन हैं, विनश्वर हैं, दु:खों से मिश्रित हैं और पापों के बीज हैं ऐसे सुखों की आकांक्षा नहीं करना, नि:कांक्षित अंग है। इसे पालन करने वाले का इतिहास बताते हैं-
चंपापुर के सेठ प्रियदत्त और सेठानी अंगवती के अनंतमती नाम की एक सुन्दर कन्या थी। एक समय अष्टान्हिका पर्व में सेठ ने धर्मकीर्ति मुनिराज के पास पत्नी सहित आठ दिन का ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया। युवावस्था में ब्याह के आयोजन में अनंतमती ने व्रत की दृढ़ता रखते हुए ब्याह से इन्कार कर दिया।
किसी समय अनंतमती अपनी सहेलियों के साथ बगीचे में झूला झूल रही थी कि एक विद्याधर उसके रूप पर मुग्ध होकर उसको (अनंतमती को) लेकर भागा। उसकी पत्नी के आ जाने से वह अनंतमती को भयंकर वन में छोड़कर चला गया।
वन में भील ने उसे ले जाकर शील भंग करना चाहा किन्तु वनदेवी ने अनंतमती के शील की रक्षा की। पुन: इस भील ने अनंतमती को पुष्पक सेठ को सौंप दी। सेठ ने भी हार कर वेश्या को दे दी। वेश्या ने भी इसे सिंहराज नृप को दे दिया। राजा ने भी जब इसका शील भंग करना चाहा तब पुन: वनदेवी ने रक्षा की। अनंतर राजा ने उसे वन में भेज दिया। धीरे-धीरे अनंतमति अयोध्या में पद्मश्री आर्यिका के पास पहुँच गयी। कुछ दिन बाद वहाँ पिता से मिलाप हुआ किन्तु अनंतमती ने वापस घर न जाकर आर्यिका दीक्षा ले ली। तपश्चरण के प्रभाव से समाधिपूर्वक मरण करके बारहवें स्वर्ग में देव हो गयी। देखो बालकों! भोगों की आकांक्षा नहीं करके अनंतमती ने देवपद पाया। आगे वह देव क्रम से मोक्षपद प्राप्त करेगा।
३-निर्विचिकित्सा अंग एवं उद्दायन राजा
स्वभाव से अपवित्र किन्तु रत्नत्रय से पवित्र ऐसे मुनियों के शरीर को देखकर ग्लानि नहीं करना, इनके गुणों में प्रीति करना निर्विचिकित्सा अंग है। इस अंग में प्रसिद्ध राजा की कथा बताते हैं-
वत्सदेश के रौरवपुर के राजा उद्दायन बहुत ही धर्मनिष्ठ थे। उनकी रानी का नाम प्रभावती था। एक समय सौधर्म इन्द्र ्नो अपनी सभा में सम्यक्त्वगुण का वर्णन करते हुए निर्विचिकित्सा अंग में राजा उद्दायन की बहुत ही प्रशंसा की। इस बात को सुनकर एक वासव नामक देव यहां परीक्षा के लिए आ गया। वह कुष्ट रोग से गलित अत्यन्त दुर्गन्धि युक्त दिगम्बर मुनि का रूप बनाकर आहारार्थ निकल पड़ा।
उसकी दुर्गन्ध से तमाम श्रावक भाग खड़े हुए किन्तु राजा उद्दायन ने रानी सहित उसे बड़ी भक्ति से पड़गाहन कर विधिवत् आहारदान दिया। आहार के तत्काल बाद उस मायावी मुनि ने वमन कर दिया। उसकी दुर्गन्ध से सारे नौकर-चाकर पलायमान हो गये किन्तु राजा और रानी बड़ी विनय से मुनिराज की सुश्रुषा करते रहे तथा अपने दान की निंदा करने लगे। तब देव ने प्रगट होकर राजा की स्तुति-भक्ति करते हुए सौधर्म इन्द्र द्वारा की गई प्रशंसा का हाल सुनाया। अनन्तर स्वस्थान को चला गया।
कालांतर में राजा विरक्त होकर मुनि बन गये और कर्म नाशकर मोक्ष चले गये।
मुनियों के शरीर से ग्लानि नहीं करने वालों की लोक में प्रशंसा होती है तथा परम्परा से स्वर्ग-मोक्षरूप फल की भी प्राप्ति होती है।
४-अमूढ़दृष्टि अंग एवं रेवती रानी
दु:खों में पहुँचाने वाले मिथ्यामार्ग और मिथ्यामार्ग में चलने वालों में सम्मति नहीं देना, उनसे सम्पर्वâ नहीं रखना, उनकी प्रशंसा नहीं करना अमूढ़ दृष्टि अंग है। उसमें प्रसिद्ध रेवती रानी की कथा बताते हैं-
दक्षिण मथुरा में दिगम्बर गुरु गुप्ताचार्य के पास क्षुल्लक चन्द्रप्रभ रहते थे। उन्होंने आकाशगामिनी आदि विद्या को नहीं छोड़ने से मुनिपद नहीं लिया था। एक दिन वे तीर्थ वंदना के लिए उत्तर मथुरा जाने लगे, तब गुरु से आज्ञा लेकर पूछा भगवन्! किसी को कुछ कहना है ? गुरु ने कहा-वहाँ पर विराजमान सुव्रत मुनिराज को नमोस्तु और रेवती रानी को आशीर्वाद कहना। तीन बार पूछने पर भी गुरु ने यही कहा। तब क्षुल्लक महाराज वहाँ जाकर सुव्रत मुनिराज को नमोस्तु कहकर वहीं पर ठहरे हुए भव्यसेन मुनिराज के पास गये। उनकी चर्या को दूषित देखकर उनका अभव्यसेन नाम रखकर आ गये।
पुन: रेवती रानी की परीक्षा के लिए अपनी विद्या से पूर्व दिशा में ब्रह्मा का रूप बनाया। सब नगरवासी आ गये किन्तु रानी नहीं आई। पुन: उसने दक्षिण दिशा में जाकर पार्वती सहित महादेव का रूप बनाया। इस पर भी रेवती रानी के नहीं आने पर क्षुल्लक ने विद्या के बल से उत्तर दिशा में अरिहंत भगवान का समवशरण तैयार कर दिया। तब राजा वरुण ने कहा-प्रिये! अब तो चलो, जिनेन्द्र भगवान का समवशरण आया है। रानी ने कहा-राजन्! चौबीस तीर्थंकर तो हो चुके, अब पच्चीसवें कहाँ से आये? यह कोई मायावी का जाल है। अनन्तर क्षुल्लक विद्या के बल से रोगी क्षुल्लक बनकर रानी के यहाँ आये। रानी ने विनयपूर्वक सुश्रूषा आदि की और आहार दान दिया। क्षुल्लक ने वमन कर दिया। तब रानी ने भक्ति से सफाई आदि की। तब क्षुल्लक जी विद्या को समेट कर वास्तविक रूप में गुरु के आशीर्वाद को सुनाकर रानी की प्रशंसा करते हुए चले गये।
रेवती रानी ने विद्या के द्वारा निर्मित चमत्कारों में अपना मन विचलित नहीं किया, इसलिये आज भी उसका नाम गंरथों में लिया जाता है।
५-उपगूहन अंग एवं जिनेन्द्रभक्त सेठ
यह मोक्षमार्ग स्वयं शुद्ध है अज्ञानी और असमर्थजनों के द्वारा कोई दोष हो जाने पर उनके दोषों को ढक देना (प्रकट नहीं होने देना) उपगूहन अंग है। इस अंग में प्रसिद्ध सेठ की कथा इस प्रकार है-
गौड़ देश के अंतर्गत ताम्रलिप्ता नगरी में एक जिनेन्द्रभक्त सेठ रहते थे। उनके घर में सातवीं मंजिल पर भगवान पाश्र्वनाथ का चैत्यालय था जिनमें रत्नमयी प्रतिमा के ऊपर छत्र में बहुमूल्य वैडूर्यमणि रत्न लगा हुआ था। एक दिन चोरों के सरदार ने कहा कि सेठ के यहाँ का वैडूर्यमणि कौन ला सकता है? उनमें से एक सूर्यक नाम के चोर ने हामी भर ली। पुन: वह चोर मायावी क्षुल्लक बनकर वहाँ पहुँच गया और खूब उपवास आदि करते हुए सेठ जी के चैत्यालय में रहने लगा। किसी समय सेठ जी धन कमाने के लिये बाहर जाने लगे, तब क्षुल्लक जी की इच्छा न होते हुए भी उसको चैत्यालय की रक्षा का भार सौंप दिया। सेठ जी चले गये और उस दिन गांव के बाहर ही डेरा डाल दिया। इधर आधी रात में क्षुल्लक जी वैडूर्यमणि लेकर भागे। रत्न की चमक से नौकरों ने उनका पीछा किया, तब वे दौड़ते हुए गांव के बाहर उन्हीं सेठ के डेरे में घुस गये।
चोर! चोर! चोर! का हल्ला सुनते ही सेठ जी ने क्षुल्लक जी को देखा, तब नौकर से बोला-अरे भाई! मैंने तो क्षुल्लक जी से यह रत्न यहाँ मंगवाया था, तुम लोग इन्हें चोर क्यों कह रहे हो ? बेचारे नौकर चुपचाप चले गये।
इसके बाद सेठ जी ने क्षुल्लक जी को खूब फटकारा और कहा-पापी! तू धर्मात्मा बनकर ऐसा पाप करते हुए नरकों में जायेगा। पुन: रत्न लेकर उसे भगा दिया।
देखो! यदि सेठ जी बात बनाकर उस क्षुल्लक के दोष को नहीं छिपाते तो नौकर धर्म और धर्मात्माओं की हंसी उड़ाते। इसलिये किसी के दोष को ढक लेना चाहिये और उसे एकान्त में सुधारने की कोशिश करनी चाहिये।
६-स्थितिकरण अंग एवं वारिषेण मुनिराज
सम्यग्दर्शन से या सम्यक्चारित्र से यदि कोई चलायमान हो रहा हो तो धर्म के प्रेम से जैसे बने वैसे उसको धर्म में स्थिर कर देना, स्थितिकरण अंग है। इस अंग में प्रसिद्ध महापुरुष की कथा इस प्रकार है-
किसी समय वारिषेण मुनिराज पलासवूâट ग्राम में आहारार्थ आये। मंत्री पुत्र पुष्पडाल ने उन्हें आहार दिया और उनको पहुँचाने के लिये कुछ दूर तक साथ चलने लगा। मुनिराज उसे स्थान तक साथ ले आये पुन: बचपन के मित्र होने से वैराग्य का उपदेश देकर दीक्षा दिला दी किन्तु पुष्पडाल मुनिराज अपनी स्त्री को नहीं भुला सके। धीरे-धीरे बारह वर्ष बीत गये।
किसी समय ये दोनों साधु राजगृही आ गये। अब पुष्पडाल अपनी स्त्री से मिलने के लिए निकले। मुनिराज वारिषेण उनके अंतरंग को समझकर साथ ही चल पड़े और वे सीधे अपने राजघराने में पहुँच गये। रानी चेलना ने वारिषेण पुत्र को घर आया देख कुछ शंकित होते हुए दो प्रकार के आसन लगा दिये। वारिषेण मुनिराज काष्ठासन पर बैठ गये और बोले माता! मेरी सभी स्त्रियों को बुलाओ। वे सब आ गर्इं, तब मुनिराज ने कहा-मित्र! ये मेरी बत्तीस स्त्रियां हैं और यह वैभव है तुम इसे ले लो, इसका उपयोग करो। इसी समय पुष्पडाल को वास्तविक वैराग्य हो गया।
उसने कहा-प्रभो! आपने मोक्षसुख के लिए इस अतुल वैभव को तृणवत् त्यागा है और मैं मूढ़ एक स्त्री के मोह को नहीं छोड़ सका। अनंतर वन में पहुँचकर वारिषेण ने उन्हें यथोचित प्रायश्चित्त से शुद्धकर वापस मुनिपद में स्थिर कर दिया। तब पुष्पडाल ने भी घोर तपश्चरण करके अपने आपको पवित्र बना लिया।
देखो! वारिषेण मुनिराज ने धर्म से डिगते हुए को वैसे स्थिर किया? इसी प्रकार हमें भी दूसरो का स्थितिकरण करना चाहिये।
७-वात्सल्य अंग एवं विष्णुकुमार मुनिराज
कपट भावों से रहित होकर सद्भावनापूर्वक सहधर्मी बन्धुओं का यथायोग्य आदर करना वात्सल्य अंग है। अर्थात् धर्मात्मा के प्रति एक सहजिक-अकृत्रिम स्नेह होना वात्सल्य भाव कहलाता है। इस अंग में प्रसिद्ध हुए मुनिराज की कथा इस प्रकार है-
हस्तिनापुर के राजा महापद्म अपने बड़े पुत्र पद्मराज को राज्य देकर छोटे पुत्र विष्णुकुमार के पास मुनि हो गये। राजा पद्म के चार मंत्री थे-बलि, बृहस्पति, नमुचि और प्रहलाद। किसी समय उन्होंने शत्रु राजा को जीतकर राजा पद्म से ‘वर’ प्राप्त किया था और उसे धरोहररूप में राजा के पास रख दिया था। एक समय अवंâपनाचार्य सात सौ मुनियों के साथ आकर वहाँ बगीचे में ठहर गये। मंत्री जिनधर्म के द्वेषी थे। उन्होंने राजा से अपना वर देने को कहा और उनसे सात दिन तक राज्य मांग लिया। राजा को वर देना पड़ा। फिर क्या था, इन दुष्टों ने मुनियों को चारों तरफ से घेरकर बाहर से यज्ञ का बहाना करके आग लगा दी।
उधर मिथिला नगरी में रात्रि में श्रवण ्नाक्षत्र वंâपित होते देख श्रुतसागर आचार्य के मुख से हाहाकार शब्द निकला। पास में बैठे हुए क्षुल्लकजी ने सारी बात पूछी और उपसर्ग दूर होने का उपाय समझकर धरणीभूषण पर्वत पर आये। वहां विष्णुकुमार मुनि से कहा-भगवन्! आपको विक्रियाऋद्धि है अत: आप शीघ्र ही जाकर उपसर्ग दूर कीजिये।
मुनि विष्णुकुमार वहाँ आये और राजा पद्म से (भाई से) सारी बातें अवगत कर मुनिवेष छोड़कर बलि के पास वामन का रूप लेकर पहुँचे, जहाँ बलि राजा दान दे रहा था। बलि ने इनसे भी कुछ मांगने को कहा। वामन ने कहा—मुझे तीन पैर धरती दे दो। उसने कहा-आप अपने पैरों से ही नाप लें। बस! वामन विष्णुकुमार ने अपनी विक्रिया से एक पैर सुमेरु पर्वत पर रखा और दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर रखा। तीसरा पैर उठाया किन्तु उसके रखने को जगह ही नहीं थी। इतने में सर्वत्र हाहाकार मच गया, पृथ्वी वंâप गई, देवों के विमान परस्पर में टकरा गये। चारों तरफ से क्षमा करो, क्षमा करो, ऐसी आवाज आने लगी।
देवों ने आकर बलि को बांधकर विष्णुकुमार मुनि की पूजा की और सात सौ मुनियों का उपसर्ग दूर किया। विष्णुकुमार मुनि ने मुनियों के प्रति वात्सल्य करके उनका उपकार किया। अंत में जाकर प्रायश्चित्त आदि लेकर अपनी आत्मा का कल्याण कर लिया। उसी दिन से रक्षा की स्मृति में श्रावण शुक्ला पूर्णिमा को प्रतिवर्ष रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है।
देखो! विष्णुकुमार मुनि ने मुनियों की रक्षा के लिये वैâसे प्रयत्न किया! उसी प्रकार हमें भी धर्मात्माओं के प्रति सच्चा प्रेम होना चाहिये और संकट में तन-मन-धन से उनकी सहायता करनी चाहिये।
८-प्रभावना अंग एवं वङ्काकुमार मुनिराज
चारों तरफ से पैâले हुए अज्ञानरूपी अन्धकार को जैसे बने वैसे हटाकर जैनधर्म के माहात्म्य को पैâलाना प्रभावना है। इस अंग में प्रसिद्धिप्राप्त मुनिराज की कथा इस प्रकार है-
मथुरा के राजा पूतिगंध की दो रानियाँ थीं। उर्विला रानी सम्यग्दृष्टि थी और दूसरी बुद्धदासी रानी बौद्ध धर्मानुयायी थी। रानी उर्विला हमेशा आष्टान्हिक पर्व में रथ यात्रा करके धर्म प्रभावना करती थी।
एक बार बुद्धदासी ने कहा-महाराज! पहले मेरा रथ निकलेगा। राजा ने मोहवश यह बात मान ली। तब रानी उर्विला ने चारों प्रकार के आहार का त्याग कर दिया और क्षत्रिय गुफा में विराजमान सोमदत्त तथा वङ्काकुमार मुनि के पास पहुँचकर प्रार्थना करने लगी-भगवन्! धर्म की रक्षा कीजिये।
मुनिराज ने उसे आश्वासन दिया और उसी समय दर्शन के लिये आए हुए दिवाकर देव आदि विद्याधरों को प्रेरणा दी। तब गुरु की आज्ञा से उन विद्याधरों ने रानी उर्विला के रथ में अरहंत भगवान की प्रतिमा विराजमान करके आकाश मार्ग से खूब प्रभावनापूर्वक विशेष जुलूस के साथ रथ निकाला।
इस अतिशय को देखकर राजा पूतिगंध, बुद्धदासी आदि सभी जैन बन गये। सर्वत्र जैनधर्म की जय-जयकार हो गयी। वङ्काकुमार मुनि ने जैनधर्म की प्रभावना करके अपने यश को अमर कर दिया।
वङ्काकुमार मुनिराज के समान हमें भी धर्म की प्रभावना में तत्पर रहना चाहिये। इसमें रंचमात्र भी प्रमाद नहीं करना चाहिये।
रत्नत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र को रत्नत्रय कहते हैं। इन तीनों की एकता ही मोक्षमार्ग अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति का उपाय है। इसके दो भेद हैं-व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय।व्यवहार सम्यग्दर्शन जीवादि तत्त्वों का और सच्चे देव, शास्त्र, गुरुओं का २५ दोष रहित श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है।
सम्यक्त्व के पच्चीस मल दोष आठ दोष-नि:शंकित आदि आठ अंगों में से यदि एक अंग भी नहीं है तो वह सम्यग्दर्शन संसार परम्परा का नाश नहीं कर सकता। जैसे कि हीन अक्षर मंत्र विष की वेदना को दूर नहीं कर सकता। इस सम्यक्त्व के पच्चीस मल दोष माने हैं।नि:शंकित आदि से उल्टे शंका, कांक्षा आदि आठ दोष, ज्ञान आदि आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता ऐसे पच्चीस दोष होते हैं।
शंका-
जिनेन्द्र भगवान के वचनों पर शंका करना। कांक्षा-भोगों की चाह करना। विचिकित्सा-मुनि आदि के मलिन शरीर को देखकर ग्लानि करना। मूढ़दृष्टि-मिथ्यादृष्टियों की प्रशंसा करना। अपगूहन-सच्चे या झूठे दोष प्रकट करना। अस्थितिकरण-धर्म से गिरते हुए को स्थिर नहीं करना। अवात्सल्य- धर्मात्माओं में प्रेम न करके मत्सर भाव करना। अप्रभावना-धर्म की प्रभावना नहीं करना, ये आठ दोष हैं।
आठ मद-अपने ज्ञान का घमंड करना, वैसे ही अपनी पूजा का, कुल का, जाति का, बल का, ऐश्वर्य का, तपश्चरण का और रूप का घमण्ड करना, ऐसे आठ मद हैं।
छह अनायतन-मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र तथा इन तीनों को अलग-अलग सेवन करने वाले पुरुष ये छह अनायतन हैं। आयतन शब्द का अर्थ स्थान है। जैनमंदिर आदि धर्मस्थान आयतन हैं, इनसे विपरीत अनायतन हैं।
तीन मूढ़ता-मूढ़ भाव रखना मूढ़ता है जैसे नदी आदि के स्नान में धर्म मानना। इसके तीन भेद हैं। नदी-समुद्र में स्नान करने में धर्म मानना, पर्वत से गिरकर मरने में, अग्नि में जलकर मरने में धर्म मानना लोकमूढ़ता है। वर की इच्छा से रागद्वेष से मलिन देवों की उपासना करना देवमूढ़ता है। परिग्रह, आरम्भ और हसा से युक्त संसार-समुद्र में डूबने वाले ऐसे पाखंडी साधुओं का सत्कार करना पाखंडिमूढ़ता है।
इन पच्चीस मल दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, असैनी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में, नरकों में, कुभोगभूमि में, स्त्रीपर्याय और नपुंसक पर्याय में, भवनवासी, व्यंतरवासी, ज्योतिषी देव-देवियों में तथा कल्पवासी देवियों में जन्म नहीं लेता है। यदि कदाचित् पहले नरक की आयु बांध ली है और पीछे सम्यक्त्व हुआ तो प्रथम नरक में ही जाता है।
सम्यक्त्वी जीव मरकर नीच घरानों में, दरिद्र कुल में जन्म नहीं लेता, अल्पायुधारी भी नहीं होता है। प्रत्युत उत्कृष्ट ऋद्धि सहित देव, इन्द्र, बलभद्र, चक्रवर्ती और तो क्या तीर्थंकर पद भी प्राप्त कर लेता है।
विशेष क्या, सम्यक्त्व के बिना न कोई आज तक मोक्ष गया है, न जा सकता है, इसलिए तीन लोक में यह सबसे उत्तम और हितकारी है। ऐसा समझकर प्रत्येक को मिथ्यात्व का त्याग कर सम्यक्त्वी बनना चाहिये।
प्रश्नावली–
(१) सम्यग्दर्शन किसे कहते हैं ?
(२) आठ अंग के नाम बताओ।
(३) सच्चे गुरु का लक्षण बताओ।
(४) अंजन चोर पहले कौन था और उसका नाम अंजन चोर क्यों पड़ा ?
(५) नि:कांक्षित अंग का लक्षण बताओ।
(६) अनंतमती ने क्या-क्या दु:ख सहे हैं ?
(७) निर्विचिकित्सा अंग में प्रसिद्ध राजा की कथा सुनाओ।
(८) मुनिराज ने रेवती रानी को आशीर्वाद क्यों दिया ?
(९) जिनेन्द्रभक्त सेठ किस अंग में प्रसिद्ध हुए हैं और उन्होने क्या विशेष कार्य किया ?
(१०) स्थितिकरण अंग का लक्षण बताकर वारिषेण मुनि ने वैâसे स्थितिकरण किया सो समझाओ।
(११) विष्णुकुमार मुनि ने मुनिवेष क्यों छोड़ा और रक्षाबंधन पर्व क्यों मनाया जाता है ?
(१२) प्रभावना अंग का लक्षण बताकर वङ्काकुमार मुनि की कथा बताओ।
(१३) वात्सल्य अंग और स्थितिकरण अंग में क्या अंतर है?
(१४) इन आठों अंगों में से एक या दो अंग न हों तो क्या हानि है ?
(१५) सम्यक्त्व के पच्चीस दोषों के नाम बताओ।
(१६) तीन मूढ़ता का पृथक्-पृथक् लक्षण बताओ।
(१७) सम्यग्दृष्टि जीव मरकर कहाँ-कहाँ नहीं जाते हैं?
Jai Jinendra ,
Bhut sundar likha h… picture bhi khoob acchi lagayi h… man ko shanti mil rhi h…
Aap likhte rahiye..hme padne or smjhne m bada aanand aa rha h..
बहुत अच्छा लगा पढ़कर
Story ka examples dekar bahut hi saral way mei samghaya gaya h.??
Thank you.