सम्यग्दर्शन का महिमा—
सम्यग्दर्शन की महिमा बतलाते हुए समन्तभद्रस्वामी ने कहा है—
‘ज्ञान और चारित्र की अपेक्षा सम्यग्दर्शन श्रेष्ठता को प्राप्त होता है इसलिये मोक्षमार्ग में उसे कर्णधार—खेवटिया कहते हैं।
जिस प्रकार बीज के अभाव में वृक्ष की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के अभाव में सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि और फल की प्राप्ति नहीं होती।
‘निर्मोह—मिथ्यात्व से रहित—सम्यग्दृष्टि गृहस्थ तो मोक्षमार्ग में स्थित है परन्तु मोहवान—मिथ्यादृष्टि मुनि मोक्षमार्ग में स्थित नहीं है। मोही मुनि की अपेक्षा मोहरहित गृहस्थ श्रेष्ठ है।’
‘तीनों कालों और तीनों लोकों में सम्यग्दर्शन के समान अन्य कोई वस्तु देहधारियों के लिए कल्याणरूप और मिथ्यात्व के समान अकल्याणरूप नहीं है।’ ‘सम्यग्दर्शन से शुद्ध पूर्वाबद्धायुष्क मनुष्य व्रत रहित होने पर भी नरक और तिर्यञ्च गति, नपुंसक और स्त्री पर्याय, नीचकुल, विकलाङ्गता, अल्पायु और दरिद्रता को प्राप्त नहीं होते।’
‘यदि सम्यग्दर्शन प्राप्त होने के पहले किसी मनुष्य ने नरक आयु का बन्ध कर लिया है तो वह पहले नरक से नीचे नहीं जाता है। यदि तिर्यञ्च और मनुष्यायु का बन्ध कर लिया है तो भोगभूमि का तिर्यञ्च और मनुष्य होता है और यदि देवायु का बन्ध किया है तो वैमानिक देव ही होता है, भवनत्रिकों में उत्पन्न नहीं होता। सम्यग्दर्शन के काल में यदि तिर्यञ्च और मनुष्य के आयुबन्ध होता है तो नियम से देवायु का ही बन्ध होता है और नारकी तथा देव के नियम से मनुष्यायु का ही बन्ध होता है। सम्यक्दृष्टि जीव किसी भी गति की स्त्री पर्याय को प्राप्त नहीं होता। मनुष्य और तिर्यञ्च गति में नपुंसक भी नहीं होता।
सम्यग्दर्शन से पवित्र मनुष्य, ओज, तेज, विद्या, वीर्य, यश, वृद्धि, विजय और वैभव से सहित उच्च कुलीन, महान् अर्थ से सहित श्रेष्ठ मनुष्य होते हैं।
‘सम्यग्दृष्टि मनुष्य यदि स्वर्ग जाते हैं तो वहाँ अणिमा आदि आठ गुणों की पुष्टि से सन्तुष्ट तथा सातिशय शोभा से युक्त होते हुए देवाङ्गनाओं के समूह में चिरकाल तक क्रीडा करते हैं।
‘सम्यग्दृष्टि जीव स्वर्ग से आकर नौ निधि और चौदह रत्नों के स्वामी समस्त भूमि के अधिपति तथा मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा वन्दित चरण होते हुए सुदर्शन चक्र को वर्ताने में समर्थ होते हैं— चक्रवर्ती होते हैं।
सम्यग्दर्शन के द्वारा पदार्थों का ठीक—ठीक निश्चय करने वाले पुरुष अमरेन्द्र, असुरेन्द्र, नरेन्द्र तथा मुनीन्दों के द्वारा स्तुतचरण होते हुए लोक के शरण्यभूत तीर्थंकर होते हैं।
‘सम्यग्दृष्टि जीव अन्त में उस मोक्ष को प्राप्त होते हैं जो जरा से रहित हैं, रोग रहित हैं, जहाँ सुख और विद्या का वैभव चरम सीमा को प्राप्त है तथा जो कर्ममल से रहित है। सम्यग्दर्शन की वास्तविक महिमा यह है कि वह अनन्त संसार को काट कर अर्ध पु. कर देता है अर्थात् अपरिमित संसार की परिमित कर देता है। (ध. पु. ५ पृ. ११)
‘जिनेन्द्र भगवान् में भक्ति रखने वाला—सम्यग्दृष्टि भव्य मनुष्य, अपरिमित महिमा से युक्त इन्द्रसमूह की महिमा को, राजाओं के मस्तक से पूजनीय चक्रवर्ती के चक्ररत्न को और समस्त लोक को नीचा करने वाले धर्मेन्द्रचक्र—तीर्थंकर के धर्मचक्र को प्राप्त कर निर्वाण को प्राप्त होता है।
क्या सम्यग्दर्शन सिर्फ जैन धर्म में ही हो सकता ह या किसी भी धर्म में हो सकता है ।
कृपया मार्गदर्शन करें ।
जय जिनेन्द्र ।