प्राचीन काल से ही विभिन्न पुराणों, ग्रन्थों एवं साहित्यिक रचनाओं में वनस्पतियों का उल्लेख होता रहा है। इन वनस्पतियों का वर्णन औषधियों, सौन्दर्य प्रसाधन, कृषि, भवन, शृ्रंगार, वस्त्र, विधि— विधान, संस्कार, अनुष्ठान इत्यादि के रूप में किया जाता है। प्रकृति के अत्यन्त समीप होने से मनुष्य को वनस्पतियों के स्वभाव एवं उपयोगिता की बहुत अधिक जानकारी थी, आचार्यों एवं ऋषि, मुनियों ने जंगलों के प्राकृतिक वातावरण में रहकर ही इन वनस्पतियों का अध्ययन किया एवं ग्रन्थों की रचना की।
यदि वनस्पतियों की उपलब्धता एवं उत्पत्ति के इतिहास का अवलोकन किया जावे तो ज्ञात होता है कि अनेकों वनस्पतियां कालान्तर में लुप्त होती चली गई एवं केवल साहित्य एवं पुस्तकों में ही उनका वर्णन प्राप्त होता है। पर्यावरण परिवर्तन, अनियंत्रित दोहन, प्राकृतिक आपदा एवं वर्तमान में प्रदूषण जैसे कारणों के परिणाम स्वरूप ही ऐसा हुआ है। जैनाचार्यों एवं विद्वानों ने भी इस दिशा में मानव कल्याण हेतु अपनी लेखनी चलाई एवं वनस्पतियों के अपने ज्ञान से जन—जन को लाभान्वित किया।
ऐसा प्रतीत होता है कि जैन शास्त्रों एवं पुराणों में वर्णित विभिन्न प्रकार के कल्प वृक्षों का नामकरण, शायद इन्हीं विभिन्न उपयोगों के आधार पर किया गया हो।
आधुनिक जीव वर्गीकरण में फफूद एवं वेक्टीरिया (जीवाणु) इत्यादि को वनस्पतियों की श्रेणी में रखा गया है। अति सूक्ष्म एवं प्राय: दिखाई न देने वाली इस प्रकार की वनस्पतियों को जैनाचार्या ने भी अलग वर्ग में ही रखा। उनकी मान्यता थी कि निगोदिया आदि जैसे सूक्ष्म जीवों से युक्त पदार्थ अखाद्य होते हैं। जैनाचार्यों ने प्रारम्भ से ही ऐसे पदार्था को अभक्ष्य माना जिनमें ऐसे सूक्ष्म जीव उत्पन्न हो जाते हैं जैसे कि— मर्यादा रहित— दही, अचार, आटा एवं अन्य भोज्य पदार्थ। इससे स्पष्ट है कि ऐसी सूक्ष्म वनस्पतियों का इन्हें समुचित ज्ञान था । बसुनन्दि कृत ‘श्रावकाचार’ में असेवनीय, अभक्ष्य वस्तुओं का पूर्ण निषेध किया गया है। ‘उपासक दशांग सूत्र’ में भी ऐसी अभक्ष्य वनस्पतियों का वर्णन है।
कामदेव बाहुबलि भी इस पुष्प को धारण करते थे । भरत चक्रवर्ती की पत्नी कुसमा देवी ने भी अपने सभी अलंकरण न्योग्रोध पुष्प के पहिने थे। केतकी पुष्प को कामदेव बाहुबलि अपने हाथों में धारण करते थे।
(२) गिरिकार्णिका नामक पुष्प के रस पारा सिद्ध होता है जिसके द्वारा आकाश—पाताल गमन एवं चमत्कारिक कार्य किये जा सकते हैं ।
(३) अशोक पुष्प के रस को सिद्ध कर, तैयार रसमणि की सहायता से रवेचस्व सिद्धि, जलगमन, दुलेरी इत्यादि क्रियाओं में उपयोग।
(४) मादल (बिजौरा) के पुष्प पद्मावती देवी के सिर के स्पर्श से प्रभावशाली हो जाते थे। इन पुष्पों से अनेक चमत्कारिक कार्य करने का वर्णन उल्लिखित है। इसके पुष्पों के रस को सिद्ध करने की विधि का ‘पारस रस सिद्ध’ नाम दिया गया।
(५) दारू वृक्ष की जड़ से तैयार रसमणि के स्पर्श मात्र से लोह स्वर्ण बन जाता है।
वैसे उक्त के अलावा भी कुछ आचार्यों ने इस प्रकार की वनस्पतियों का उल्लेख किया है। पद्म पुराण, हरिवंश पुराण इत्यादि ग्रन्थों में भी कुछ ऐसे वर्णन हैं।
जय धवला (१/१४६) में भी वर्णित है कि — ‘प्राणावाय प्रवासो दसविध पाषाणं हाणि बड़ढीओ वण्णेदि’ अर्थात प्राणावाय दस प्रकार के प्राणों की हानि एवं वृद्धि उल्लेख करने वाला ग्रन्थ है। इस ग्रन्थ में पशु—पक्षियों की चिकित्सा का भी वर्णन है। षटखण्डागम (४/३२) एवं कषाय पाहुड (१/११३) पर आचार्य वीरसेन द्वारा रचित धवला एवं जयधवला टीका तथा उनके शिष्य जिनसेन की टीका में प्राणावय की अष्टांग चिकित्सा का उल्लेख है।
अभी भी अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जिनसे स्पष्ट है कि जैनाचार्यों ने आयुर्वेद साहित्य की वृद्धि में अपना अभूतपूर्व योगदान दिया है। जिन जैनाचार्यों ने धर्म, न्याय, दर्शन, व्याकरण, काव्य, अलंकार, ज्योतिष आदि क्षेत्रों में अदभुत योगदान दिया उन्हीं आचार्यों ने आयुर्वेद के अनेक ग्रन्थों की रचना कर मानव समाज पर उपकार भी किया है।
परम पूज्य आचार्य समन्तभद्र, पूज्यपाद, सिद्धसेन, मेघनाद, गोम्मटदेव, पादलिप्त, धनन्जय, जिनदास, हेमचंद्र, पं. आशाधर, हंसदेव , यशकीर्ति, सिहंदेव, अनन्तदेवसूरि, नामदेव, माणिक्यचंद, मंगराज, जयरत्नगणि, चारू चंद, हर्षकीर्ति, हंसराज, कण्डसूर, हेमनिधान, महिम आचार्य एवं विद्वान हुये जिन्होंने वनस्पतियों का विभिन्न आयुर्वेदिक औषधियों के रूप में वर्णन किया है।
प्राकृत भाषा में विमलसूरि द्वारा लिखित ‘पउमचरियं’ में भी आयुर्वेद के कुछ तथ्यों का वर्णन है इसी प्रकार हरिषेण द्वारा रचित ‘जोणिपाहुड’ भी प्राकृत भाषा का ऐसा स्वतंत्र ग्रन्थ है जो कि पूर्ण रूप से आयुर्वेद के लिये लिखा गया । इस ग्रन्थ में अष्टांग चिकित्सा पद्धति का वर्णन किया है। इस ग्रन्थ की भी अनेक गाथायें प्राप्त नहीं हो सकी हैं। जैनाचार्यों द्वारा रचित आयुर्वेद के ऐसे ग्रन्थ की संख्या अल्प है जिनका प्रकाशन किया गया हो अथवा जिनकी पाण्डुलिपियों प्राप्त हुई हों। अधिकांश ग्रन्थ ऐसे हैं जिनका उल्लेख दूसरे ग्रन्थ में मिलता है।
उग्रादित्याचार्य (९ वीं सदी) कृत ‘कल्याणकारक’ ग्रन्थ का प्रकाशन सन् १९४० में सेठ गोविन्द जी रावजी दोशी, सोलापुर ने सखाराम नेमचन्द्र ग्रन्थमाला के अन्तर्गत किया था। पं. वर्धमान पाश्र्वनाथ शास्त्री ने इसका हिन्दी अनुवाद किया था। आचार्य श्री कुमदेन्दु स्वामी द्वारा रचित सिरिभूवलय ग्रन्थ (९ वीं सदी) की प्रस्तावना एवं एक अंश का प्रकाशन १९८८ में जैन मित्र मण्डली, धर्मपुरा, दिल्ली द्वारा कराया गया। आचार्य पूज्यपाद स्वामी द्वारा कथित औषधि योगों के संकलन, ‘वैद्यसार’ का प्रकाशन जैन सिद्धान्त भवन , आरा द्वारा किया गया। इसका सम्पादन एवं हिन्दी पं. सत्यन्धर जैन काव्यतीर्थ द्वारा किया गया।
कुछ अन्य ग्रन्थ, जैसे कि मेघमुनि द्वारा रचित ‘मेघ विनोद,’ कवि नैनसुख द्वारा रचित ‘वैद्य मनोत्सव,’ श्री कण्ठसूरि कृत ‘हितोपदेश वैद्यक,’ हर्षकीर्ति सूरि कृत ‘ योग चिन्तामणि’, अनन्त देव सूरि कृत ‘रसचिन्तामणि,’ श्री भंगराज कृत ‘खगेन्द्र मणि दर्पण,’ आदि ग्रन्थ भी प्रकाशित किये जा चुके हैं । उक्त ग्रन्थों में से अनेक ग्रन्थों की उपलब्धता संदिग्ध है।
आचार्य राजकुमार जैन (अर्हत् वचन, ८ (१९९६) इन्दौर) ने जैनाचार्यों एवं विद्वानों द्वारा विभिन्न भाषाओं में रचित अनेक आयुर्वेद के ग्रन्र्थों की सूची प्रस्तुत की है जिसमें ग्रन्थों की उपलब्धता, अनुपलब्धता एवं रचनाकाल भी दर्शाया है। सुधर्माचार्य / पुष्पाचार्य (तीसरी सदी पूर्व) द्वारा रचित ‘पुष्पायुर्वेद’ के बारे में भी जानकारी प्राप्त हुई परन्तु यह ग्रन्थ भी अनुपलब्ध है। इस ग्रन्थ में पुष्पों का उल्लेख है ऐसा कहा जाता है।
उक्त वर्णन से प्रतीत होता है कि जैनाचार्यों एवं जैन विद्वानों को वनस्पतियों का समुचित ज्ञान था एवं उन्होंने अपनी श्रमण परम्परा का निर्वाह करते हुये अनेक ग्रन्थों की रचना की। औषधियों के निर्माण एवं प्रयोग में भक्ष्य एवं अभक्ष्य वनस्पतियों के उपयोग पर विशेष विचार किया गया।
इस लेख में जैनाचार्यों के वनस्पतियों से संबंधित ज्ञान एवं ग्रन्थों के केवल कुछ ही उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं कि इस प्रकार के दुर्लभ ग्रन्थों की खोज कर उनका उचित संरक्षण कर प्रकाशन किया जावे।