मुद्योतकम् – दलितपाप- तमोवितानम्।
सम्यक्-प्रणम्य- जिनपाद- युगम्- युगादा-
वालम्बनम्-भवजले- पतताम्-जनानाम्॥१॥
अर्थ :
झुके हुए भक्त देवो के मुकुट जड़ित मणियों की प्रथा को प्रकाशित करने वाले, पाप रुपी अंधकार के समुह को नष्ट करने वाले, कर्मयुग के प्रारम्भ में संसार समुन्द्र में डूबते हुए प्राणियों के लिये आलम्बन भूत जिनेन्द्रदेव के चरण युगल को मन वचन कार्य से प्रणाम करके (मैं मुनि मानतुंग उनकी स्तुति करूँगा)|
भावार्थ :
१०० इन्द्र तथा और मुकुटधारी देव जब उनके भि पुज्य ऋषभदेव भगवान के समक्ष नतमस्तक होते है, तब भगवान के स्वयंप्रभासे देवोंके मुकुट पर लगे रत्नादि भि चमकने लगते है, ऐसी प्रभायुक्त भगवान ऋषभदेव, जिन्होने कर्मयुग के आरंभ के संसार के दु:खों में गोते खाने वाले अपने भक्तों को तारकर जीने की राह बतायी तथा पापरूपी अंधकार को नष्ट करने वाले भगवान के चरण युगल में मैं मानतुंग मन वचन- काय से नत होकर वंदन करके उनकी स्तुति करता हूँ ।
दुद्भूतबुद्धिपटुभिः सुरलोकनाथैः ॥
स्तोत्रैर्जगत्रितय चित्त हरैरुदारैः ।
स्तोष्ये किलाहमपि तं प्रथमं जिनेन्द्रम् ॥२॥
अर्थ :
सम्पूर्णश्रुतज्ञान से उत्पन्न हुई बुद्धि की कुशलता से इन्द्रों के द्वारा तीन लोक के मन को हरने वाले, गंभीर स्तोत्रों के द्वारा जिनकी स्तुति की गई है उन आदिनाथ जिनेन्द्र की निश्चय ही मैं (मानतुंग) भी स्तुति करूँगा|
भावार्थ :
सकल वाङ्मय अर्थात् श्रुत ज्ञानसे युक्त सुरेन्द्र जब भक्तिवश ऐसे मनोहारी स्तोत्रों की रचना करके भगवान की स्तुति करता है, जो तीनों लोकों के समस्त मनों – हृदयों को हरनेवाले है, तब मैं भी उस प्रथम जिनेन्द्र भगवान आदिनाथ की स्तुति के लिये कटिबध्द होता हूँ ।।
स्तोतुं समुद्यत मतिर्विगतत्रपोऽहम् ॥
बालं विहाय जलसंस्थितमिन्दु बिम्ब ।
मन्यः क इच्छति जनः सहसा ग्रहीतुम् ॥३॥
अर्थ :
देवों के द्वारा पूजित हैं सिंहासन जिनका, ऐसे हे जिनेन्द्र मैं बुद्धि रहित होते हुए भी निर्लज्ज होकर स्तुति करने के लिये तत्पर हुआ हूँ क्योंकि जल में स्थित चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को बालक को छोड़कर दूसरा कौन मनुष्य सहसा पकड़ने की इच्छा करेगा? अर्थात् कोई नहीं|
भावार्थ :
जिनका पादपीठ अर्थात जहा भगवान पैर रखते है,वो भि देवोद्वारा पुज्य है, ऐसे पादपीठ कि भि यथार्थ स्तुति करने कि मेरी पात्रता नही है। लेकिन जल मे चंद्र का प्रतिबिम्ब देख, मात्र एक छोटासा बालक हि, जिसे यथार्थ का ज्ञान नही है, उसे पाने का यत्न करता है, अर्थात मै अपनी बुध्दी कि मर्यादा को समझते हुए भि भक्तिवश मै उनके भक्ति मे स्तोत्र कि रचना करता हुँ।
कस्ते क्षमः सुरगुरुप्रतिमोऽपि बुद्ध्या ॥
कल्पान्त काल् पवनोद्धत नक्रचक्रं ।
को वा तरीतु मलमम्बुनिधिं भुजाभ्याम् ॥४॥
अर्थ :
हे गुणों के भंडार! आपके चन्द्रमा के समान सुन्दर गुणों को कहने लिये ब्रहस्पति के सद्रश भी कौन पुरुष समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं| अथवा प्रलयकाल की वायु के द्वारा प्रचण्ड है मगरमच्छों का समूह जिसमें ऐसे समुद्र को भुजाओं के द्वारा तैरने के लिए कौन समर्थ है अर्थात् कोई नहीं|
भावार्थ :
प्रलयकाल के प्रचंड शक्तिशाली वायु जो समुद्र मे बडे बडे भंवर निर्माण कर रही है और उसके वजह से महाकाय मगरमच्छ भि व्याकुल होकर जल मे इधर उधर घुम रहे हो, ऐसे समुंदर मे मात्र बाहुबल से तैरने का साहस किसमे होता है? अर्थात नही हो सकता, वैसेहि आप गुणोंको जो समुद्र के रत्नभांडार समान अनंत तथा अद्भुत है, चंद्रमा के समान गुणोंको कोई देवोंका गुरु बृहस्पति भि वर्णन करनेका सामर्थ्य नही रखता, फिर भि मै यह प्रयत्न करुंगा।
कर्तुं स्तवं विगतशक्तिरपि प्रवृत्तः ॥
प्रीत्यऽऽत्मवीर्यमविचार्य मृगो मृगेन्द्रं ।
नाभ्येति किं निजशिशोः परिपालनार्थम् ॥५॥
अर्थ :
हे मुनीश! तथापि-शक्ति रहित होता हुआ भी, मैं- अल्पज्ञ, भक्तिवश, आपकी स्तुति करने को तैयार हुआ हूँ| हरिणि, अपनी शक्ति का विचार न कर, प्रीतिवश अपने शिशु की रक्षा के लिये, क्या सिंह के सामने नहीं जाती? अर्थात जाती हैं|
भावार्थ :
जिस प्रकार से सिंह के समक्ष आये हुए अपने शावक को बचानेके लिये हरिणी, अपने शक्ति का विचार ना करते हुए, बीच मे आ जाती है, और उसके रक्षण के लिये उद्यत होती है, उसी प्रकारसे हे, समस्त मुनियोंके स्वामी, हे मुनिश, मै भि अपनी अल्पमती का विचार ना करते हुए, आपके भक्तिवश, अपने शक्ति से ज्यादा कार्य, अर्थात आपकि स्तुति करने कटीबध्द हुआ हुँ
त्वद्भक्तिरेव मुखरीकुरुते बलान्माम् ॥
यत्कोकिलः किल मधौ मधुरं विरौति ।
तच्चारुचूत कलिकानिकरैकहेतु ॥६॥
अर्थ :
विद्वानों की हँसी के पात्र, मुझ अल्पज्ञानी को आपकी भक्ति ही बोलने को विवश करती हैं| बसन्त ऋतु में कोयल जो मधुर शब्द करती है उसमें निश्चय से आम्र कलिका ही एक मात्र कारण हैं|
जैसे आम्र वृक्ष मे मोहर कलिका आते हि, कोयल अपने आप को रोक नही पाती और कुजन करने लगती है, वैसे हि ज्ञानी लोगोके उपहास का पात्र मैं अल्पमती, आपके प्रति मेरे भक्ति के प्रति विवश होकर हि आपकि स्तुति मे उद्युक्त हुआ हुँ।
पापं क्षणात् क्षयमुपैति शरीर भाजाम् ॥
आक्रान्त लोकमलिनीलमशेषमाशु ।
सूर्यांशुभिन्नमिव शार्वरमन्धकारम् ॥७॥
अर्थ :
आपकी स्तुति से, प्राणियों के, अनेक जन्मों में बाँधे गये पाप कर्म क्षण भर में नष्ट हो जाते हैं जैसे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त रात्री का अंधकार सूर्य की किरणों से क्षणभर में छिन्न भिन्न हो जाता है|
जैसे सूर्य के उदय मात्रसे उसके प्रकाशसे रात्री मे छाया अंधकार विपलमे नष्ट हो जाता है, वैसेहि आपके नाम मात्र लेनेसे, अनेक जन्मोंमे एकत्रित किये हुए, उस प्राणीके पाप पलभरमे नष्ट हो जाते है, अर्थात आपके नाम कि महिमा अपरंपार है।
मारभ्यते तनुधियापि तव प्रभावात् ॥
चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु ।
मुक्ताफल द्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥८॥
अर्थ :
हे स्वामिन्! ऐसा मानकर मुझ मन्दबुद्धि के द्वारा भी आपका यह स्तवन प्रारम्भ किया जाता है, जो आपके प्रभाव से सज्जनों के चित्त को हरेगा| निश्चय से पानी की बूँद कमलिनी के पत्तों पर मोती के समान शोभा को प्राप्त करती हैं|
हे भगवन्। जैसे पानि एक बुंद कमलपत्र के सानिध्य से मानो मोती का रुप धारण करती है, अर्थात कमलपत्र गिरी एक पानी कि बुंद मोतीसमान दिखती है, वैसे हि आपके प्रभाव मेरा यह सामान्य स्तोत्र भि जन जन का चित्त हरने वाला होगा, जिसे मै अब करने जा रहा हुँ
त्वत्संकथाऽपि जगतां दुरितानि हन्ति ॥
दूरे सहस्त्रकिरणः कुरुते प्रभैव ।
पद्माकरेषु जलजानि विकाशभांजि ॥९॥
अर्थ :
सम्पूर्ण दोषों से रहित आपका स्तवन तो दूर, आपकी पवित्र कथा भी प्राणियों के पापों का नाश कर देती है| जैसे, सूर्य तो दूर, उसकी प्रभा ही सरोवर में कमलों को विकसित कर देती है|
जैसे कमल को विकसित करने के लिये स्वयं सूर्य को सरोवर तक नही जाना पडता, उसकी लाखो मिल दूर कि प्रभा, एक किरण हि वह कार्य कर देती है, वैसेहि, आपकि कथाहि प्राणीमात्र के दु:खनिवारण का कार्य कर लेती है, उसके लिये समस्त दोषोसे रहित ऐसी आपकि स्तुति करना अनिवार्य नही है।
भूतैर् गुणैर् भुवि भवन्तमभिष्टुवन्तः ॥
तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा ।
भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति ॥१०॥
अर्थ :
हे जगत् के भूषण! हे प्राणियों के नाथ! सत्यगुणों के द्वारा आपकी स्तुति करने वाले पुरुष पृथ्वी पर यदि आपके समान हो जाते हैं तो इसमें अधिक आश्चर्य नहीं है| क्योंकि उस स्वामी से क्या प्रयोजन, जो इस लोक में अपने अधीन पुरुष को सम्पत्ति के द्वारा अपने समान नहीं कर लेता |
हे त्रिभुवन नाथ! हे समस्त प्राणीयोंके स्वामी! सत्य गुण को धारण करके जो भि आपकि इस पृथ्वीतल पर स्तुति भक्ती करता है, वह शीघ्र आपके समान लक्ष्मी का ( मोक्षलक्ष्मी) धारक हो जाता है, इसमे आश्चर्य क्या है? क्योंकि ऐसे स्वामी का प्रयोजन जो अपने सेवक को अपने समान ना कर दे। अर्थात आप हि एक ऐसे स्वामी है, जो अपने भक्तोंको अपने समान बननेका अवसर देते हो।
नान्यत्र तोषमुपयाति जनस्य चक्षुः ॥
पीत्वा पयः शशिकरद्युति दुग्ध सिन्धोः ।
क्षारं जलं जलनिधेरसितुं क इच्छेत् ॥११॥
अर्थ :
हे अनिमेष दर्शनीय प्रभो! आपके दर्शन के पश्चात् मनुष्यों के नेत्र अन्यत्र सन्तोष को प्राप्त नहीं होते| चन्द्रकीर्ति के समान निर्मल क्षीरसमुद्र के जल को पीकर कौन पुरुष समुद्र के खारे पानी को पीना चाहेगा? अर्थात् कोई नहीं |
आप का दर्शन ऐसा है, कि अनिमेष ( पलक झपकाये बगैर) देखते हि रह जाये। जो एक बार आपके दर्शन कर ले, उसे कही और किसीके भि दर्शन से संतुष्टता नही मिलती, जैसे एक बार क्षीरसमुद्र का चंद्रकांतिके समान और मधुर जल पीने के बाद लवण समुद्र के जल किसे पसंद आयेगा?
निर्मापितस्त्रिभुवनैक ललाम भूत ॥
तावन्त एव खलु तेऽप्यणवः पृथिव्यां ।
यत्ते समानमपरं न हि रूपमस्ति ॥१२॥
अर्थ :
हे त्रिभुवन के एकमात्र आभुषण जिनेन्द्रदेव! जिन रागरहित सुन्दर परमाणुओं के द्वारा आपकी रचना हुई वे परमाणु पृथ्वी पर निश्चय से उतने ही थे क्योंकि आपके समान दूसरा रूप नहीं है |
हे त्रिभुवन के एकमेव अनुपम आभुषण जैसे भगवन। आपको बनानेमें इस पृथ्वी के समस्त अद्भुत और सुन्दर परमाणू खर्च हो गये, और यह या ऐसे परमाणु अब इस पृथ्वीपर नही पाये जाते, अर्थात आपके रुप का धारी अब इस धरा पर कोई और हो हि नही सकता। अर्थात आप अनुपम और अद्वितीय सुन्दर हो।
निःशेष निर्जित जगत् त्रितयोपमानम् ॥
बिम्बं कलङ्क मलिनं क्व निशाकरस्य ।
यद्वासरे भवति पांडुपलाशकल्पम् ॥१३॥
अर्थ :
हे प्रभो! सम्पूर्ण रुप से तीनों जगत् की उपमाओं का विजेता, देव मनुष्य तथा धरणेन्द्र के नेत्रों को हरने वाला कहां आपका मुख? और कलंक से मलिन, चन्द्रमा का वह मण्डल कहां? जो दिन में पलाश (ढाक) के पत्ते के समान फीका पड़ जाता |
मै आपको चंद्रमा कि उपमा नहि दे सकता, क्युंकि, कहाँ वह कलंकयुक्त चंद्रमा जो दिनमे पलाश के पत्र के समान फिका और कांतिहीन हो जाता है, और कहाँ आपका वह तेजोमय कांतिमान मुख जो मनुष्य, देव, तथा धरणेंद्र के नेत्रोको हरने वाला और तीनो लोकोकि उपमाओंको जितनेवाला अर्थात तिनो लोकोंमे अनुपम है। अर्थात चंद्रमा आपके मुख के समक्ष कुछ भि नही है।
शुभ्रा गुणास्त्रिभुवनं तव लंघयन्ति ॥
ये संश्रितास् त्रिजगदीश्वर नाथमेकं ।
कस्तान् निवारयति संचरतो यथेष्टम् ॥१४॥
अर्थ :
पूर्ण चन्द्र की कलाओं के समान उज्ज्वल आपके गुण, तीनों लोको में व्याप्त हैं क्योंकि जो अद्वितीय त्रिजगत् के भी नाथ के आश्रित हैं उन्हें इच्छानुसार घुमते हुए कौन रोक सकता हैं? कोई नहीं |
पौर्णिमा के चंद्र के कलाओं समान उज्ज्वल आपके गुण तीनो लोकोंके उनकी स्तुति के द्वारा व्याप्त है, नि:संशय, त्रिलोक के अद्वितीय स्वामि जिनके नाथ हो ऐसे आश्रित गुणोको उन्हे कही भि आने जाने से कौन रोक सकता है । अर्थात आपके उज्ज्वल गुणोंकि चर्चा तिनों लोकोंमे सदैव होते रहती है।
नीतं मनागपि मनो न विकार मार्गम् ॥
कल्पान्तकालमरुता चलिताचलेन ।
किं मन्दराद्रिशिखिरं चलितं कदाचित् ॥१५॥
अर्थ :
यदि आपका मन देवागंनाओं के द्वारा किंचित् भी विक्रति को प्राप्त नहीं कराया जा सका, तो इस विषय में आश्चर्य ही क्या है? पर्वतों को हिला देने वाली प्रलयकाल की पवन के द्वारा क्या कभी मेरु का शिखर हिल सका है? नहीं |
जैसे प्रलयकाल कि पर्वतोंको भि हिला देनेवाली वायु, मेरु पर्वत को रजमात्र भि कंपायमान नही कर सकती वैसेहि आप का अविकारी है, यह देवांगनाओ द्वारा किसी भि विकृतिको प्राप्त नही होता, और यह आश्चर्य कि बात भि नही है। आपका मन अविकारी निश्चल है।
कृत्स्नं जगत्त्रयमिदं प्रकटी करोषि ॥
गम्यो न जातु मरुतां चलिताचलानां ।
दीपोऽपरस्त्वमसि नाथ् जगत्प्रकाशः ॥१६॥
अर्थ :
हे स्वामिन्! आप धूम तथा बाती से रहित, तेल के प्रवाह के बिना भी इस सम्पूर्ण लोक को प्रकट करने वाले अपूर्व जगत् प्रकाशक दीपक हैं जिसे पर्वतों को हिला देने वाली वायु भी कभी बुझा नहीं सकती |
जिसे प्रलयकाल कि पर्वतोंको भि हिला देनेवाली वायु भि नही बुझा सकती, जिसे जलने के लिये तेल, तथा बाती कि जरुरत नही है, जिसका प्रकाश निर्धुम्र है, और जो तिनो लोक को प्रकाशीत करता है, ऐसे अनुपम, स्वयंप्रकाशीत ज्ञानदीप आप हि हो।
स्पष्टीकरोषि सहसा युगपज्जगन्ति ॥
नाम्भोधरोदर निरुद्धमहाप्रभावः ।
सूर्यातिशायिमहिमासि मुनीन्द्र! लोके ॥१७॥
अर्थ :
हे मुनीन्द्र! आप न तो कभी अस्त होते हैं न ही राहु के द्वारा ग्रसे जाते हैं और न आपका महान तेज मेघ से तिरोहित होता है आप एक साथ तीनों लोकों को शीघ्र ही प्रकाशित कर देते हैं अतः आप सूर्य से भी अधिक महिमावन्त हैं |
हे मुनीन्द्र। आप ऐसे प्रकाशपुंज हो, जो ना कि सूर्य के समान कभी अस्तंगत होते है, ना हि राहुसे ग्रसित होते है, और ना हि मेघ आपकि आभा को परास्त कर पाते है; सुर्य से अतिशय महिमाधारी आप तीन लोकोंको एक साथ हि प्रकट अर्थात प्रकाशीत कर देते हो। अर्थात आप के ज्ञान का प्रकाश तिनो लोकोंमे नित्य विद्यमान रहता है।
गम्यं न राहुवदनस्य न वारिदानाम् ॥
विभ्राजते तव मुखाब्जमनल्प कान्ति ।
विद्योतयज्जगदपूर्व शशाङ्कबिम्बम् ॥१८॥
अर्थ :
हमेशा उदित रहने वाला, मोहरुपी अंधकार को नष्ट करने वाला जिसे न तो राहु ग्रस सकता है, न ही मेघ आच्छादित कर सकते हैं, अत्यधिक कान्तिमान, जगत को प्रकाशित करने वाला आपका मुखकमल रुप अपूर्व चन्द्रमण्डल शोभित होता है |
जो हमेशा उदय मे रहे, मेघ भि जिसे फिका ना कर पाये और राहु से ग्रसित हो, जिसमे कालिमा ना आये ऐसा आपका मुखमण्डल समस्त जगत को अंधकार मे प्रकाशीत करने वाला एक अपुर्व, चंद्रमा के समान है। अर्थात आप मुख के कांति, आभा और शांति समस्त जगत के मोहांधकार को नष्ट कर सम्यक्त्व को प्रकट कराती है। अर्थात आपके दर्शन मात्रसे मोह का नाश हो जाता है।
युष्मन्मुखेन्दु दलितेषु तमस्सु नाथ ॥
निष्मन्न शालिवनशालिनि जीव लोके ।
कार्यं कियज्जलधरैर् जलभार नम्रैः ॥१९॥
अर्थ :
हे स्वामिन्! जब अंधकार आपके मुख रुपी चन्द्रमा के द्वारा नष्ट हो जाता है तो रात्रि में चन्द्रमा से एवं दिन में सूर्य से क्या प्रयोजन? पके हुए धान्य के खेतों से शोभायमान धरती तल पर पानी के भार से झुके हुए मेघों से फिर क्या प्रयोजन |
भावार्थ :
जैसे पके हुए धान्यके खेतोंसे जो धरती शोभायमान हो रही हो, वहा मेघोंका कोई प्रयोजन नही है, वैसे हि, सुर्य के जैसे दिनका और चंद्रमाके जैसे रात्रीका अंधकार आप अपने आभासे, ज्ञानसे नष्ट करते हो, तो चंद्र और सूर्य कि क्या आवश्यकता? जिसे आपके दर्शन हो जाये, उसे किसी और सुर्य-चंद्र के दर्शन कि कोई जरूरत नही। आप का होना हि, मार्गदर्शक तथा मोहनाशक है।
नैवं तथा हरिहरादिषु नायकेषु ॥
तेजः स्फुरन्मणिषु याति यथा महत्वं ।
नैवं तु काच शकले किरणाकुलेऽपि॥२०॥
अर्थ :
अवकाश को प्राप्त ज्ञान जिस प्रकार आप में शोभित होता है वैसा विष्णु महेश आदि देवों में नहीं | कान्तिमान मणियों में, तेज जैसे महत्व को प्राप्त होता है वैसे किरणों से व्याप्त भी काँच के टुकड़े में नहीं होता |
भावार्थ :
आपके पास अवकाश पाकर अथवा आपके सानिध्य मे ज्ञान ऐसे सुशोभित होता है, जैसे कांतिमान मणी- रत्नोमें प्रकाश गुणित होता है, बाकि सबका ज्ञान जैसे हरी और हर का, ऐसे लगता है, जैसे काँच के छोटेसे टुकडेपर प्रकाश गिरनेसे दिखता हो। अर्थात आप का ज्ञान इस समस्त विश्व मे एकमेव ज्ञान है, एक ज्ञान है, केवल ज्ञान है, जिसके सामने बाकि ज्ञान जैसे रत्न के समक्ष कोई काँच का टुकडा रख दिया हो।
दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति ॥
किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः ।
कश्चिन्मनो हरति नाथ! भवान्तरेऽपि ॥२१॥
अर्थ :
हे स्वामिन्| देखे गये विष्णु महादेव ही मैं उत्तम मानता हूँ, जिन्हें देख लेने पर मन आपमें सन्तोष को प्राप्त करता है| किन्तु आपको देखने से क्या लाभ? जिससे कि प्रथ्वी पर कोई दूसरा देव जन्मान्तर में भी चित्त को नहीं हर पाता |
भावार्थ :
इस पृथ्वी पर मैने विष्णु और महादेव देखे, तो ठिक हि है, क्योंकि उन्हे देखकर आपको देखने के बाद मन तृप्त हुआ, हृदय को संतोष प्राप्त हुआ, अच्छा हुआ, कि मैने उन्हे पहले देखा, अन्यथा एक बार आपको देखने के बाद क्या इस पृथ्वी का और कोई भि देव जन्म जन्मांतर मे भायेगा? अर्थात आपके समान कोई देव नही, आपकि किसीसे तुलना नही, जो एक बार आपके दर्शन कर ले, आपके चरण मे आ जाये, फिर उसे कोई अन्यमत कि प्रशंसा नही होती। आपका वीतराग रुप हि मन को शांति तथा स्थिरता प्रदान करता है।
नान्या सुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता ॥
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्त्ररश्मिं ।
प्राच्येव दिग् जनयति स्फुरदंशुजालं ॥२२॥
अर्थ :
सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं, परन्तु आप जैसे पुत्र को दूसरी माँ उत्पन्न नहीं कर सकी| नक्षत्रों को सभी दिशायें धारण करती हैं परन्तु कान्तिमान् किरण समूह से युक्त सूर्य को पूर्व दिशा ही जन्म देती हैं |
भावार्थ :
सैकडो स्त्रिया सैकडो पुत्रोंको जन्म देती है, लेकिन आपको जन्म देने के बाद माता किसी और को जन्म नही देती, जैसे पुर्व दिशा मात्र से हि सूर्य उदित होता है, वैसेही आप अपनी माता के एकमेव पुत्र होते है। अर्थात आप जैसे गुणोके भंडार धारक एक पुत्र को जन्म देने के बाद वह माता धन्य हो जाती है। और कोई संतान वह नही चाहती है, सामान्य पुत्रोंको जन्म देनेवाली माताये अनेक पुत्रोंको जन्म देनेमे हि धन्यता मानती है।
मादित्यवर्णममलं तमसः परस्तात् ॥
त्वामेव सम्यगुपलभ्य जयंति मृत्युं ।
नान्यः शिवः शिवपदस्य मुनीन्द्र! पन्थाः ॥२३॥
अर्थ :
हे मुनीन्द्र! तपस्वीजन आपको सूर्य की तरह तेजस्वी निर्मल और मोहान्धकार से परे रहने वाले परम पुरुष मानते हैं | वे आपको ही अच्छी तरह से प्राप्त कर म्रत्यु को जीतते हैं | इसके सिवाय मोक्षपद का दूसरा अच्छा रास्ता नहीं है
भावार्थ :
हे मुनीन्द्र। तप करने वाले, मोक्ष को प्राप्त करने कि चाह करने वाले आप को पाने कि हि चाह रखते है, क्योंकि वे जानते है, आप हि एकमात्र सूर्य के समान निर्मल तेजस्वी और मोहांधकार पार परम पुरुष है। आप हि शिव है और आप हि शिवमार्ग। अर्थात आपहि मोक्ष है और आप हि मोक्षमार्ग। अर्थात मोक्ष कि चाह रखने वालोंको आपके शरण मे आकर आपके बताये हुए रास्ते पर हि चलना है, और दूसरा कोई शिव भि नही और शिव मार्ग भि नही।
ब्रह्माणमीश्वरम् अनंतमनंगकेतुम् ॥
योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ।
ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥२४॥
अर्थ :
सज्जन पुरुष आपको शाश्वत, विभु, अचिन्त्य, असंख्य, आद्य, ब्रह्मा, ईश्वर, अनन्त, अनंगकेतु, योगीश्वर, विदितयोग, अनेक, एक ज्ञानस्वरुप और अमल कहते हैं |
भावार्थ :
संत पुरुष आपको हि शाश्वत मानते है, जिसका व्यय नही होगा, विभु कहते है, जो सर्वत्र व्याप्त है, अचिन्त्य कहते है, जिसका यथार्थ स्वरुप का चिंतन कोई नही कर सकता, असंख्य कहते है जिसके गुण, रुप असंख्य है; आद्य कहते है, जो कर्मभूमीके प्रारंभसे है, ब्रह्मा कहते है, जो आत्मस्वरुप है, ईश्वर कहते है, जो सबके इश है; अनंत कहते है, जो अनंत गुण, वीर्य, सुख, दर्शन और ज्ञान से अनंत है; अनंगकेतु कहते है, जिसने सब विकारोंका नाश किया हो; योगीश्वर जो योगीयोंके स्वामी है, नाथ है; विदितयोग कहते है, जिसने योग को जाना, धारा है और समझाया है; अनेक जिसका ज्ञान अनेकांतमय है; एक कहते है, जिसे एक मात्र और सम्पुर्ण ज्ञान , केवलज्ञान है; और अमल कहते है, जिसने कर्मरुपी मल को धो दिया है और परमशुक्ल आत्मा को धारण कर रहे है।
त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रय शंकरत्वात् ॥
धाताऽसि धीर! शिवमार्ग विधेर्विधानात् ।
व्यक्तं त्वमेव भगवन्! पुरुषोत्तमोऽसि ॥२५॥
अर्थ :
देव अथवा विद्वानों के द्वारा पूजित ज्ञान वाले होने से आप ही बुद्ध हैं| तीनों लोकों में शान्ति करने के कारण आप ही शंकर हैं| हे धीर! मोक्षमार्ग की विधि के करने वाले होने से आप ही ब्रह्मा हैं| और हे स्वामिन्! आप ही स्पष्ट रुप से मनुष्यों में उत्तम अथवा नारायण हैं |
भावार्थ :
विबुध्द जनोसे अर्चित ज्ञान के धनी होनेसे आप बुध्द कहलाते हो; तिनो लोक मे व्याप्त रहकर शांति प्रदान करनेवाले होनेसे आप को शंकर कहा जाता है; जो स्खलनशील है, उनके लिये आप धीर हो, आधार हो; मोक्ष का मार्ग प्रतिपादित करनेसे आप विधान अथवा ब्रह्मा हो, हे भगवन ; नि:संशय पुरुषोमे श्रेष्ठ आपहि नारायण भि कहे जाते हो। अर्थात आपके अनेक रुप है, आपके हि अनेक नाम है।
तुभ्यं नमः क्षितितलामलभूषणाय ॥
तुभ्यं नमस्त्रिजगतः परमेश्वराय ।
तुभ्यं नमो जिन! भवोदधि शोषणाय ॥२६॥
अर्थ :
हे स्वामिन्! तीनों लोकों के दुःख को हरने वाले आपको नमस्कार हो, प्रथ्वीतल के निर्मल आभुषण स्वरुप आपको नमस्कार हो, तीनों जगत् के परमेश्वर आपको नमस्कार हो और संसार समुन्द्र को सुखा देने वाले आपको नमस्कार हो| भावार्थ :
आपकि महिमा अपरंपार है। आपको मेरा नमस्कार हो। तिनो लोक के आर्तता अर्थात दु:खोंका नाश करने वाले आप को मेरा बारंबार नमन। इस धरातल के निर्मल आभुषण अर्थात धरातल को सुशोभित करनेवाले आपको मेरा वंदन हो। तिनो जगत के स्वामी, परमेश्वर आपको मेरा प्रणाम हो। संसार समुद्र को सोखनेवाले अर्थात मोक्ष मार्ग प्रकट करनेवाले और स्वयंभि मोक्ष को प्राप्त होनेवाले हे भगवन आपको मेरा बार बार नमन है।
त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश! ॥
दोषैरूपात्त विविधाश्रय जातगर्वैः ।
स्वप्नान्तरेऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥२७॥
अर्थ :
हे मुनीश! अन्यत्र स्थान न मिलने के कारण समस्त गुणों ने यदि आपका आश्रय लिया हो तो तथा अन्यत्र अनेक आधारों को प्राप्त होने से अहंकार को प्राप्त दोषों ने कभी स्वप्न में भी आपको न देखा हो तो इसमें क्या आश्चर्य?
भावार्थ :
आप गुण के समुद्र है। समस्त गुण आपको अपना यथार्थ स्थान जानकर आपके आश्रय मे रहते है, और सुशोभित होकर अपने आपको धन्य मानते है और किसी और मे नही पाये जाते। औरोंके आश्रय पाकर दोष भि अहंकार युक्त होते है, और आपके पास आनेका विचार उन्हे स्वप्न मे भि नही छुता। अर्थात आप गुणोसे भरपुर और निर्दोष हो।
माभाति रूपममलं भवतो नितान्तम् ॥
स्पष्टोल्लसत्किरणमस्त तमोवितानं ।
बिम्बं रवेरिव पयोधर पार्श्ववर्ति ॥२८॥
अर्थ :
ऊँचे अशोक वृक्ष के नीचे स्थित, उन्नत किरणों वाला, आपका उज्ज्वल रुप जो स्पष्ट रुप से शोभायमान किरणों से युक्त है, अंधकार समूह के नाशक, मेघों के निकट स्थित सूर्य बिम्ब की तरह अत्यन्त शोभित होता है |
भावार्थ :
अष्टप्रातिहार्योंमेसे एक ऐसे अशोक वृक्ष कि छाया मे विराजमान होकर भि आप अपने अतुल्य तेज से आभासे उस छाया को ग्रसित करते ऐसे नजर आते हो, जैसे सघन मेघोंके पास तेजस्वी सूर्य अपनी आभासे अंधकार चिरता हुआ, सुशोभित दिखता है।
विभ्राजते तव वपुः कनकावदातम् ॥
बिम्बं वियद्विलसदंशुलता वितानं ।
तुंगोदयाद्रि शिरसीव सहस्त्ररश्मेः ॥२९॥
अर्थ :
मणियों की किरण-ज्योति से सुशोभित सिंहासन पर, आपका सुवर्ण कि तरह उज्ज्वल शरीर, उदयाचल के उच्च शिखर पर आकाश में शोभित, किरण रुप लताओं के समूह वाले सूर्य मण्डल की तरह शोभायमान हो रहा है|
भावार्थ :
तुंग पर्वत के उंचे शिखर के पास सूर्य अपनी सुनहरी तेजस्वी किरणोके साथ जैसे शोभायमान होकर तेजो:पुंज हो, प्रकाशमान होता है, वैसे हि आप के सिंहासनपर लगे चित्र विचित्र मणियोके परावर्तीत प्रकाशके साथ आपका सुवर्णकांति शरीर उज्ज्वल शरीर शोभायमान होता है॥ यह सिंहासन भि आपका प्रातिहार्य है।
विभ्राजते तव वपुः कलधौतकान्तम् ॥
उद्यच्छशांक शुचिनिर्झर वारिधार ।
मुच्चैस्तटं सुर गिरेरिव शातकौम्भम् ॥३०॥
अर्थ :
कुन्द के पुष्प के समान धवल चँवरों के द्वारा सुन्दर है शोभा जिसकी, ऐसा आपका स्वर्ण के समान सुन्दर शरीर, सुमेरुपर्वत, जिस पर चन्द्रमा के समान उज्ज्वल झरने के जल की धारा बह रही है, के स्वर्ण निर्मित ऊँचे तट की तरह शोभायमान हो रहा है|
भावार्थ :
चौसट चामरोसे ढुरता आपका तप्त सुवर्ण के वर्ण का शरीर सुमेरु पर्वत के उस स्वर्णमयी तट के समान सुशोभित प्रतीत हो रहा है, जिसपर चंद्रमा के कांतिके समान उज्ज्वल झरनेके शुभ्र और स्वच्छ जल कि धारा बह रही हो। अर्थात आपके इस प्रातिहार्य चवरोंसे मानो आपके उपर एक शुभ्र जल प्रपात ढुर रहा प्रतित होता है।
मुच्चैः स्थितं स्थगित भानुकर प्रतापम् ॥
मुक्ताफल प्रकरजाल विवृद्धशोभं ।
प्रख्यापयत्त्रिजगतः परमेश्वरत्वम् ॥३१॥
अर्थ :
चन्द्रमा के समान सुन्दर, सूर्य की किरणों के सन्ताप को रोकने वाले, तथा मोतियों के समूहों से बढ़ती हुई शोभा को धारण करने वाले, आपके ऊपर स्थित तीन छत्र, मानो आपके तीन लोक के स्वामित्व को प्रकट करते हुए शोभित हो रहे हैं|
भावार्थ :
आपके उपर सुर्य के ताप को रोकते, चंद्रमा के समान चमकते, मोतीयोंके हारसे सजाये हुए, तीन छत्र उपर कि तरफ छोटे होते, एक के उपर एक लगे है, मानो जैसे आपके तीन लोक के नाथ होनेका घोष कर रहे हो। यह भि आपका प्रातिहार्य है।
त्रैलोक्यलोक शुभसंगम भूतिदक्षः ॥
सद्धर्मराजजयघोषण घोषकः सन् ।
खे दुन्दुभिर्ध्वनति ते यशसः प्रवादी ॥३२॥
अर्थ :
गम्भीर और उच्च शब्द से दिशाओं को गुञ्जायमान करने वाला, तीन लोक के जीवों को शुभ विभूति प्राप्त कराने में समर्थ और समीचीन जैन धर्म के स्वामी की जय घोषणा करने वाला दुन्दुभि वाद्य आपके यश का गान करता हुआ आकाश में शब्द करता है|
भावार्थ :
गंभीर और उच्च रव मे दश दिशाओंको गुंजायमान करनेवाला; तिनो लोकोंके समस्त भव्य जीवोंके शुभ संगम कराने मे समर्थ ( भगवान के विहार को जन जन तक पहुंचाता हुआ); भगवान ने बताये हुए समीचीन धर्म के जय कि घोषणा कर; आपका यशगान करने वाला आपका प्रतिहार्य वाद्य देवदुंदुभि अतिशय शोभित हो रहा है।
सन्तानकादिकुसुमोत्कर- वृष्टिरुद्धा ॥
गन्धोदबिन्दु शुभमन्द मरुत्प्रपाता ।
दिव्या दिवः पतित ते वचसां ततिर्वा ॥३३॥
अर्थ :
सुगंधित जल बिन्दुओं और मन्द सुगन्धित वायु के साथ गिरने वाले श्रेष्ठ मनोहर मन्दार, सुन्दर, नमेरु, पारिजात, सन्तानक आदि कल्पवृक्षों के पुष्पों की वर्षा आपके वचनों की पंक्तियों की तरह आकाश से होती है|
भावार्थ :
आपका और एक प्रातिहार्य पुष्पवृष्टी है। आपके वचनोके समान हि, आकाशसे सुगंधित जल बिंदु और मन्द सुंगधित वायु के साथ समवशरण मे मन्दार, सुन्दर, नमेरु, सुपारिजात और सन्तानक जैसे कल्पवृक्ष के पुष्प आप पर देवोंद्वारा वर्षित किये जाते है।
लोकत्रये द्युतिमतां द्युतिमाक्षिपन्ती ॥
प्रोद्यद् दिवाकर निरन्तर भूरिसंख्या ।
दीप्त्या जयत्यपि निशामपि सोम सौम्याम् ॥३४॥
अर्थ :
हे प्रभो! तीनों लोकों के कान्तिमान पदार्थों की प्रभा को तिरस्कृत करती हुई आपके मनोहर भामण्डल की विशाल कान्ति एक साथ उगते हुए अनेक सूर्यों की कान्ति से युक्त होकर भी चन्द्रमा से शोभित रात्रि को भी जीत रही है|
भावार्थ :
तिनो लोकोकें दिव्य कांतीमान पदार्थोंकि कांति एकत्र भि कि जाये, तो भि आपके भामंडल के प्रभा के आगे फिकी पड जाये, और शतसूर्योंके समान जिसका तेज हो, ऐसा वह आपका प्रातिहार्य अहाहा अतिशय, कि इतना दैदिप्यमान प्रभावान होकर भि वह भामंडल चंद्रमा कि शीतलता से युक्त सौम्य प्रकाशित सुखदायी निशा को मात दे रहा है।
सद्धर्मतत्वकथनैक पटुस्त्रिलोक्याः ॥
दिव्यध्वनिर्भवति ते विशदार्थसत्व ।
भाषास्वभाव परिणामगुणैः प्रयोज्यः ॥३५॥
अर्थ :
आपकी दिव्यध्वनि स्वर्ग और मोक्षमार्ग की खोज में साधक, तीन लोक के जीवों को समीचीन धर्म का कथन करने में समर्थ, स्पष्ट अर्थ वाली, समस्त भाषाओं में परिवर्तित करने वाले स्वाभाविक गुण से सहित होती है|
भावार्थ :
तिनो लोक मे केवल आपकि हि दिव्यध्वनी एक ऐसी वाणी या ध्वनी है, जो स्वर्ग या मोक्ष के साधक, या तिनो लोकके भव्य जीवोंको समीचीन धर्म का कथन करनेमे सक्षम और स्पष्ट है और समवशरण मे उपस्थित सब जीवोंको अपने अपने भाषामे (अर्थात सात सौ मुख्य और अठारह गौण) परिवर्तीत होकर सुगम सुनायी देती है, यह भि आपका एक प्रातिहार्य है।
पर्युल्लसन्नखमयूख शिखाभिरामौ ॥
पादौ पदानि तव यत्र जिनेन्द्र! धत्तः ।
पद्मानि तत्र विबुधाः परिकल्पयन्ति ॥३६॥
अर्थ :
पुष्पित नव स्वर्ण कमलों के समान शोभायमान नखों की किरण प्रभा से सुन्दर आपके चरण जहाँ पड़ते हैं वहाँ देव गण स्वर्ण कमल रच देते हैं|
भावार्थ :
नुतन कोमल कमल के वर्ण के समान सुंदर आपके प्रभायुक्त नखोंसे शोभायमान आपके चरण जहाभि, जिस दिशामेंभी जाना या पडना चाहते है, वहाँ देवगण आप के चरणोके निचे १०८ पंखुडीयो स्वर्ण कमलोंकि रचना करते है।जबकि जमीनसे चार अंगुल चलनेसे आप उन कमलोंके कोमल पंखुडीयोंके स्पर्श करे बगैर हि विहरमान होते है। यह आपका देवकृत अतिशय है।
धर्मोपदेशनविधौ न तथा परस्य ॥
यादृक् प्रभा दिनकृतः प्रहतान्धकारा ।
तादृक् कुतो ग्रहगणस्य विकाशिनोऽपि ॥३७॥
अर्थ :
हे जिनेन्द्र! इस प्रकार धर्मोपदेश के कार्य में जैसा आपका ऐश्वर्य था वैसा अन्य किसी का नही हुआ| अंधकार को नष्ट करने वाली जैसी प्रभा सूर्य की होती है वैसी अन्य प्रकाशमान भी ग्रहों की कैसे हो सकती है?
भावार्थ :
हे जिनेन्द्र भगवन। धर्म उपदेश के लिये, शासन के लिये, प्रभावना के लिये आपका यह जो समवशरणरुप ऐश्वर्य है, उसका अंशमात्र भि किसी और के पास नही होता। सार्थ हि है, जो अंधकार हटानेका सामर्थ्य तेजस्वी किरणयुक्त सूर्य के पास होता है, वह शुक्रादि फिके ग्रहोके पास नही होता है।
मत्तभ्रमद् भ्रमरनाद विवृद्धकोपम् ॥
ऐरावताभमिभमुद्धतमापतन्तं ।
दृष्ट्वा भयं भवति नो भवदाश्रितानाम् ॥३८॥
अर्थ :
आपके आश्रित मनुष्यों को, झरते हुए मद जल से जिसके गण्डस्थल मलीन, कलुषित तथा चंचल हो रहे है और उन पर उन्मत्त होकर मंडराते हुए काले रंग के भौरे अपने गुजंन से क्रोध बढा़ रहे हों ऐसे ऐरावत की तरह उद्दण्ड, सामने आते हुए हाथी को देखकर भी भय नहीं होता|
भावार्थ :
आपके चरण मे शरण प्राप्त प्राणीयोंको उस उदंड ऐरावत समान विशाल हाथी के आक्रमण से भि डर नही लगता जिसके गण्डस्थल से मद झरके गण्डस्थल के मलीन और चंचल बनाते हुआ और उन्मत्त भंवरोको आकृष्ट करके, उनके गुंजारव से और भि क्रोधीत होकर आक्रमण करते चला आ रहा हो।
मुक्ताफल प्रकर भूषित भुमिभागः ॥
बद्धक्रमः क्रमगतं हरिणाधिपोऽपि ।
नाक्रामति क्रमयुगाचलसंश्रितं ते ॥३९॥
अर्थ :
सिंह, जिसने हाथी का गण्डस्थल विदीर्ण कर, गिरते हुए उज्ज्वल तथा रक्तमिश्रित गजमुक्ताओं से पृथ्वी तल को विभूषित कर दिया है तथा जो छलांग मारने के लिये तैयार है वह भी अपने पैरों के पास आये हुए ऐसे पुरुष पर आक्रमण नहीं करता जिसने आपके चरण युगल रुप पर्वत का आश्रय ले रखा है|
भावार्थ :
आपके चरण मे शरण आये हुए भक्तोको ऐसा अभय प्राप्तन हो जाता है, कि एक मदमस्त हाथी के गण्डस्थल को जिसने छिन्न भिन्न करके गजमोतियोंको जमीन गिरा दिया हो, और छलांग मारने के लिए तैय्यार ऐसा सिंह भि अगर आक्रमण करता आ रहा हो तो वह भि आपके चरण मे शांत हो जाता है, मानो आपके चरणकमल एक पर्वत के समान भक्त कि रक्षा कर रहे हो।
दावानलं ज्वलितमुज्जवलमुत्स्फुलिंगम् ॥
विश्वं जिघत्सुमिव सम्मुखमापतन्तं ।
त्वन्नामकीर्तनजलं शमयत्यशेषम् ॥४०॥
अर्थ :
आपके नाम यशोगानरुपी जल, प्रलयकाल की वायु से उद्धत, प्रचण्ड अग्नि के समान प्रज्वलित, उज्ज्वल चिनगारियों से युक्त, संसार को भक्षण करने की इच्छा रखने वाले की तरह सामने आती हुई वन की अग्नि को पूर्ण रुप से बुझा देता है|
भावार्थ :
प्रलय काल के भयंकर वायुसे भडकती हुई वडवानल अग्नी जिसकी चिनगारीया पर्वत के समान उध्दत हो और सम्पुर्ण जगत को जलाने क्षमता रखती हो, और उसी ईच्छासे अगर आपके भक्त कि तरफ बढती आ रही हो, तो आपके यशोगानसे, आपके नामजपसे वह भि शमित हो जाती है। अर्थात आपके गुणगान करनेवाले भक्तोंको अग्निभय नही होता।
क्रोधोद्धतं फणिनमुत्फणमापतन्तम् ॥
आक्रामति क्रमयुगेन निरस्तशंकस् ।
त्वन्नाम नागदमनी हृदि यस्य पुंसः ॥४१॥
अर्थ :
जिस पुरुष के ह्रदय में नामरुपी-नागदौन नामक औषध मौजूद है, वह पुरुष लाल लाल आँखो वाले, मदयुक्त कोयल के कण्ठ की तरह काले, क्रोध से उद्धत और ऊपर को फण उठाये हुए, सामने आते हुए सर्प को निश्शंक होकर दोनों पैरो से लाँघ जाता है|
अर्थात आपके भक्तोंको आपका नाम स्मरण करनेवाले भक्त को सर्पभय नही होता भावार्थ :
एक ऐसा नाग जिसकी आँखे लाल लाल हो, जिसका रंग कोयल के कण्ठ के समान नील काला हो, और जो क्रोध मे फन उठाये डसने के लिये बढा आ रहा हो, ऐसे नाग को भी आपका भक्त निशंक और निर्भय होकर लांघकर चला जाता है, जिसने नागविष को उतारनेवाला आपका नामरुपी नागदमनी नाम का औषध हृदय मे धारण किया हो। अर्थात आपके भक्त को सर्पभय नही होता। वैसेभी आपके भक्त तो सप्तभयसे दूर ही होते है।
माजौ बलं बलवतामपि भूपतिनाम्! ॥
उद्यद्दिवाकर मयूख शिखापविद्धं ।
त्वत्- कीर्तनात् तम इवाशु भिदामुपैति ॥४२॥
अर्थ :
आपके यशोगान से युद्धक्षेत्र में उछलते हुए घोडे़ और हाथियों की गर्जना से उत्पन भयंकर कोलाहल से युक्त पराक्रमी राजाओं की भी सेना, उगते हुए सूर्य किरणों की शिखा से वेधे गये अंधकार की तरह शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाती है|
भावार्थ :
भयंकर युध्द छिडा हो, शत्रु के हाथीकि गर्जनाओंसे, घोडोंके टापोंसे उछले हुए धुलसे, योध्दाओंकि गर्जनाओंसे कोलाहल से युक्त शत्रुसेना भि आपके नामकिर्तनसे ऐसे नष्ट हो जाती है, जैसे उदयाचल आये सूर्यकि प्रथम किरण किसी भि सघन अंधकार को क्षणात समाप्त कर देती है। अर्थात आपके भक्तोको शत्रुभय नही होता।
वेगावतार तरणातुरयोध भीमे ॥
युद्धे जयं विजितदुर्जयजेयपक्षास् ।
त्वत्पाद पंकजवनाश्रयिणो लभन्ते ॥४३॥
अर्थ :
हे भगवन् आपके चरण कमलरुप वन का सहारा लेने वाले पुरुष, भालों की नोकों से छेद गये हाथियों के रक्त रुप जल प्रवाह में पडे़ हुए, तथा उसे तैरने के लिये आतुर हुए योद्धाओं से भयानक युद्ध में, दुर्जय शत्रु पक्ष को भी जीत लेते हैं|
भावार्थ :
भयंकर युध्द छिडा हो, योध्दाओंके नुकिले भालोंसे छिन्न हाथीयोंके रक्त कि नदीयाँ बह रही हो, योध्दा उसे तैरके पार होनेके लिये आतुर हुए हो और भयंकर युध्द कर रहे हो, तो आपका भक्त जो आपके चरण कमल रुप वन के आश्रय मे आया हो, तो वह आसानी से ऐसे योध्दाओंको जीत लेता है। अर्थात किसी भि संकट कालमे आपके भक्तोंकि विजय निश्चित है।
पाठीन पीठभयदोल्बणवाडवाग्नौ ॥
रंगत्तरंग शिखरस्थित यानपात्रास् ।
त्रासं विहाय भवतःस्मरणाद् व्रजन्ति ॥४४॥
अर्थ :
क्षोभ को प्राप्त भयंकर मगरमच्छों के समूह और मछलियों के द्वारा भयभीत करने वाले दावानल से युक्त समुद्र में विकराल लहरों के शिखर पर स्थित है जहाज जिनका, ऐसे मनुष्य, आपके स्मरण मात्र से भय छोड़कर पार हो जाते हैं|
भावार्थ :
समुद्र मे भयंकर वडवानल लगी हो, और पीठ जाती के भयंकर मत्स्य और बडे बडे मगरमच्छ उससे क्रोधित होकर समुद्रसतह पर आके क्षोभ मे पेहली हि विकराल लहरोमे और भि हलचल पैदा कर हो, तो उस नौका पर सवार आपका भक्त बडे आसानीसे वह समुद्र पार करके निकल जाता है, जिसे पार करने के लिये वह नौका पर सवार हुआ है। अर्थात आपके भक्तोकों जलभय, समुद्रभय, मत्स्यभय, मक्रभय, नौकाभय नही होता। और संसार सागरसे भि आपका भक्त आपके स्मरण मात्र से आसानीसे पार हो जाता है।
शोच्यां दशामुपगताश्च्युतजीविताशाः ॥
त्वत्पादपंकज रजोऽमृतदिग्धदेहा ।
मर्त्या भवन्ति मकरध्वजतुल्यरूपाः ॥४५॥
अर्थ :
उत्पन्न हुए भीषण जलोदर रोग के भार से झुके हुए, शोभनीय अवस्था को प्राप्त और नहीं रही है जीवन की आशा जिनके, ऐसे मनुष्य आपके चरण कमलों की रज रुप अम्रत से लिप्त शरीर होते हुए कामदेव के समान रुप वाले हो जाते हैं|
भावार्थ :
जलोदर कि वजह से जिन्हे वक्रता आ गयी, जो कुरुप हो गये हो, जिनके जिने कि आशा समाप्त हुइ हो, ऐसे ग्रसित आपके चरण कमल धूल को अथवा आपके चरण धूले हुए जल को धारण करनेवाला मनुष्य कामदेव समान रुपयौवन युक्त हो जाता है; अर्थात आपके भक्तोंके छोटे क्या, जलोदर जैसे भयंकर रोग भि कुछ नुकसान नही कर सकते।
गाढं बृहन्निगडकोटिनिघृष्टजंघाः ॥
त्वन्नाममंत्रमनिशं मनुजाः स्मरन्तः ।
सद्यः स्वयं विगत बन्धभया भवन्ति ॥४६॥
अर्थ :
जिनका शरीर पैर से लेकर कण्ठ पर्यन्त बडी़-बडी़ सांकलों से जकडा़ हुआ है और विकट सघन बेड़ियों से जिनकी जंघायें अत्यन्त छिल गईं हैं ऐसे मनुष्य निरन्तर आपके नाममंत्र को स्मरण करते हुए शीघ्र ही बन्धन मुक्त हो जाते है|
भावार्थ :
अर्थात आपके भक्तोको बंधन भय नही होता। किसी भि बिकट परिस्थिती जिन्हे राह नजर ना आती हो, कोई विकल्प ना रहे हो, आप के भक्त आपका नाममंत्र जपने से ऐसे परिस्थियोंसे मुक्त हो जाते है।
संग्राम वारिधि महोदर बन्धनोत्थम् ॥
तस्याशु नाशमुपयाति भयं भियेव ।
यस्तावकं स्तवमिमं मतिमानधीते ॥४७॥
अर्थ :
जो बुद्धिमान मनुष्य आपके इस स्तवन को पढ़ता है उसका मत्त हाथी, सिंह, दवानल, युद्ध, समुद्र जलोदर रोग और बन्धन आदि से उत्पन्न भय मानो डरकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है|
भावार्थ :
सम्यकदृष्टी को भय नही होता, उसका श्रध्दान, भक्ती अटूट होती है; उसे संसार के कोई दु:ख कष्ट नही पहुँचा सकते। कोई भि संकट कि स्थिती मे भगवान की निस्सीम भक्ती हि उन्हे भयमुक्त और संकटमोचक होती है।
भक्त्या मया विविधवर्णविचित्रपुष्पाम् ॥
‘धत्ते जनो य इह कंठगतामजस्रं ।
तं मानतुंगमवशा समुपैति लक्ष्मीः ॥४८॥
अर्थ :
हे जिनेन्द्र देव! इस जगत् में जो लोग मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक (ओज, प्रसाद, माधुर्य आदि) गुणों से रची गई नाना अक्षर रुप, रंग बिरंगे फूलों से युक्त आपकी स्तुति रुप माला को कंठाग्र करता है उस उन्नत सम्मान वाले पुरुष को अथवा आचार्य मानतुंग को स्वर्ग मोक्षादि की विभूति अवश्य प्राप्त होती है|
संकलनकर्ता – श्री आशुतोष दोशी, पुणे
प्रस्तुतकर्ता – श्री पंकज जैन (शाह), पुणे