तिलोयपण्णत्ति ग्रंथ में श्री यतिवृषभाचार्य ने ३४ अतिशय एवं ८ प्रातिहार्य का वर्णन किया है—
लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिए सूर्य के समान भगवान् अरहन्त देव उन सिंहासनों के ऊपर आकाशमार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं।। ८९५।। (१) स्वेदरहितता, (२) निर्मलशरीरता, (३) दूध के समान धवल रुधिर, (४) आदि का वङ्कार्षभनाराचसंहनन, (५) समचतुरस्ररूप शरीर संस्थान, (६) अनुपमरूप, (७) नवचम्पक की उत्तम गन्ध के समान गन्ध का धारण करना, (८) एक हजार आठ उत्तम लक्षणों का धारण करना, (९) अनन्त बल-वीर्य और (१०) हित-मित एवं मधुर भाषण, ये स्वाभाविक अतिशय के दश भेद हैं। यह दशभेदरूप अतिशय तीर्थंकरों के जन्म ग्रहण से ही उत्पन्न हो जाते हैं।। ८९६-८९८।।
(१) अपने पास से चारों दिशाओं में एक सौ योजन तक सुभिक्षता, (२) आकाशगमन, (३) हिंसा का अभाव, (४) भोजन का अभाव, (५) उपसर्ग का अभाव, (६) सबकी ओर मुख करके स्थित होना, (७) छाया रहितता, (८) निर्निमेष दृष्टि, (९) विद्याओं की ईशता, (१०) सजीव होते हुए भी नख और रोमों का समान रहना, (११) अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्रभाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षरानक्षरात्मक भाषाएँ हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् जिनेन्द्र की स्वभावतः अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यन्त जाती है। इसके अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्य जीवों को छः द्रव्य, नौ पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुए ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकरों को केवलज्ञान के उत्पन्न होेने पर प्रगट होते हैं।।८९९-९०६।।
(१) तीर्थंकरों के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्र, फूल और फलों की वृद्धि से संयुक्त हो जाता है; (२) कंटक और रेती आदि को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है, (३) जीव पूर्व बैर को छोड़कर मैत्री भाव से रहने लगते हैं, (४) उतनी भूमि दर्पणतल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है, (५) सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगन्धित जल की वर्षा करता है, (६) देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि सस्य को रचते हैं, (७) सब जीवों को नित्य आनन्द उत्पन्न होता है, (८) वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है, (९) कूप और तालाब आदि निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं, (१०) आकाश धुआँ और उल्कापातादि से रहित होकर निर्मल हो जाता है, (११) सम्पूर्ण जीवों को रोगादि की बाधाएँ नहीं होती हैं, (१२) यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्ज्वल ऐसे चार दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है, (१३) तीर्थंकरों के चारों दिशाओं में (विदिशाओं सहित) छप्पन सुवर्णकमल एक पादपीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजनद्रव्य होते हैं।।९०७-९१४।।
आदिपुराण में ३४ अतिशय एवं ८ प्रातिहार्यों का वर्णन —
जन्म के १० अतिशय—
- पसीना रहित
- मलमूत्र रहित
- सुगन्धित शरीर
- शुभ लक्षणों से सहित
- समचतुरस्र संस्थान
- रुधिर श्वेत
- वङ्कावृषभनाराच संहनन
- सुन्दरता
- सौभाग्य
- मीठी वाणी ।
केवलज्ञान के १० अतिशय—
- सौ-सौ योजन तक सुभिक्षता
- आकाश में गमन
- हिंसा का अभाव
- कवलाहार का अभाव
- उपसर्ग से रहित
- सब विद्याओं के स्वामी
- चतुर्मुख दिखना
- छाया का अभाव
- नेत्रों की अनुन्मेष वृत्ति
- नख-केश का नहीं बढ़ना ।
देवकृत १४ अतिशय—
- अर्धमागधी भाषा
- आपस में मित्रता
- वृक्षों को फूल फल अंकुरों से व्याप्त का दिया
- पृथिवी मण्डल को दर्पण के आकार में परिवर्तित कर दिया
- सुगन्धित, शीतल मन्द-मन्द वायु
- पवनकुमार देवों द्वारा भूमि की निष्कंटकता
- मेघकुमार जाति के देव द्वारा सुगन्धित जल की वर्षा
- कमलों पर चरण कमल
- दिशाओं की निर्मलता
- हजार आरे वाला देदीप्यमान धर्मचक्र
- अष्टमंगलद्रव्य
- फहराती हुई ध्वजाओं का समूह
- दुंदुभि बाजों का मधुर तथा गम्भीर शब्द
- पुष्पों की वर्षा ।
अष्ट प्रातिहार्य—
- अशोक वृक्ष
- चमरों के समूह
- तीन छत्र
- सिंहासन
- देवों के द्वारा साढ़े बारह करोड़ दुन्दुभि आदि बाजे
- गम्भीर दिव्य ध्वनि (ठौना)
- देवों द्वारा पुष्पों की वर्षा
- शरीर का प्रभामण्डल।