दुनिया के ‘दस’ आश्चर्य
आपने विश्व के अनेक आश्चर्यों के बारे में सुना होगा, सात आश्चर्यों के बारे में तो संशय अवश्य ही सुना होगा; किन्तु वास्तव में देखा जाए तो वे सभी आश्चर्य क्षणभंगुर हैं, एक स्थूल अपेक्षा से ही ‘आश्चर्य’ कहे जा सकते हैं, अन्यथा उनमें कुछ भी विशेष आश्चर्य की बात नहीं है, वे तो पुद्गलद्रव्य के परिणमन मात्र हैं, अनादिकाल से आज तक इतिहास में ऐसे न जाने कितने आश्चर्य उत्पन्न होकर काल के गाल में समा चुके हैं। अतएव आइए, आज हम कुछ ऐसे अद्भुत आश्चर्यों के बारे में जानते हैं, जो वास्तव में बड़े आश्चर्य के विषय हैं और गम्भीरतापूर्वक चितनीय हैं। इन असली आश्चर्यों का वर्णन हमारे ऋषि—मुनियों के प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध होता है। यथा—
आश्चर्य—संख्या १—
प्रतिदिन लोग मर रहे हैं, पहले भी मरे थे और आगे भी मरेंगे; न कभी कोई बचा है और न कोई बचेगा, मृत्यु अनिवार्य सत्य है, सभी इसकी लाइन में लगे हुए हैं और अपनी—अपनी बारी आने पर निश्चित रूप से मरते हैं, फिर भी दुनिया के जीवित लोग मृत्यु से बच जाना चाहते हैं, सदा ही जीवित बने रहना चाहते हैं—यह संसार का सबसे बड़ा आश्चर्य है—
शेषाश्जीवितुमिच्छन्ति किमाश्चर्यमत: परम्।।’’
आश्चर्य संख्या २—
लोग मृत्यु को आश्चर्य समझते हैं, किन्तु मृत्यु तो जन्म के साथ स्वाभाविक रूप से संबद्ध ही है, सभी देहधारियों की प्रकृति ही है—‘मरणं प्रकृति: शरीरिणाम्’ उसमें आश्चर्य क्या ? आश्चर्य तो शरीर में जीवन का टिके रहना है, क्योंकि यह शरीर नव द्वारों केपिंजरे के समान है और इसमें रहने वाला आत्मा किसी तोता आदि पक्षी के समान है। नौ द्वारों केपिंजरे में तो पक्षी का रहना ही आश्चर्य का विषय हो सकता है, उड़कर चले जाना नहीं—
रहिबे को है आचरज, गए अचंभा कौन।।’’
आश्चर्य—संख्या ३—
कुछ लोग कहते हैं कि आत्मा है या नहीं—कौन जाने, परन्तु यह भी संसार का एक बहुत बड़ा आश्चर्य ही है कि आत्मा स्वयं ही है, फिर भी आत्मा के अस्तित्व में शंका करता है—
शंकानो करनार ते, अचरज यहै अमाप।।’’
आश्चर्य—संख्या ४—
संसार के विषय—भोगों की अथवा मोह राग—द्वेष की बातें करने वाले और उनमें ही लिप्त लोग तो इस दुनिया में बहुत हैं, गली—गली में, घर—घर में आसानी से मिल जाते हैं, किन्तु ज्ञानमय आत्मतत्त्व का कुशल वक्ता और ज्ञाता मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, बड़े भारी आश्चर्य का विषय है—
आश्चर्यो वक्ता कुशलोऽस्य लब्धमाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्ट।।’
यही बात समयसार गाथा ४ में भी कही गई है कि काम—भोग—बन्ध की कथा तो अत्यन्त सुलभ है, किन्तु एकत्व—विभक्त आत्मा की कथा अत्यन्त दुर्लभ है।
आश्चर्य—संख्या ५—
इस कलिकाल में मनुष्य का चित्त अत्यन्त चलायमान हो गया है, क्षण भर में किसी भी बात पर मलिन हो जाता है और उसका शरीर भी मानों अन्न कीड़ा ही बन गया है, सदा सर्वत्र कुछ भी खात—पीता रहता है; कोई भी समय, कोई भी स्थान और कोई भी वस्तु ऐसी नहीं बची जिसका संयम रख सके; स्कूल—कॉलेज, बाजार—स्टेशन, अस्पताल, सिनेमाघर, चौराहा आदि सभी स्थानों पर चौबीसों घण्टे कुछ भी खाता रहता है। जिस प्रकार अन्न का कीड़ा अन्न में ही पैदा होता है, अन्न को भी सदा खाता रहता है, उसी में मल—मूत्र करता है और अन्त में उसी में मर जाता है, वैसे ही हालत आज के इस आदमी की हो रही है। बड़े आश्चर्य की बात है कि आज ऐसी स्थिति में भी कुछ मनुष्य महाव्रती मुनिराज होते हैं—
एतत् चित्रं यदद्यपि जिनिंलङ्गधरा: नरा:।।’’
आश्चर्य—संख्या ६—
अहो, एक छोटा—सा बच्चा भी पलंग से गिर जाने से डरता है, गिरना नहीं चाहता है; किन्तु कोई नादान व्रती—संयमी पुरुष अपने त्रिलोकशिखर—सम उच्च संयम—तप से पतित हो जाने से भी नहीं डरता—यह बड़ा आश्चर्य है—
शय्यातलादपि तुकोऽपि भयं प्रपातात्, तुङ्गात्तत: खलु विलोक्य किलात्मपीडाम्।।’’
आश्चर्य—संख्या ७—
अमृत की प्राप्ति ही अत्यन्त दुर्लभ है, फिर यदि कोई पुरुष उसका पान करके भी वमन कर दे तो बड़े आश्चर्य की बात है उसी प्रकार जो जीव संयम—निधि को प्राप्त करके भी उसका त्याग कर दे तो यह बड़े ही आश्चर्य की बात है—
पीत्वामृतं यदि वमन्ति विसृष्टपुण्या: संप्राप्य संयमनििंध यदि च त्यजन्ति।।’’
आश्चर्य—संख्या ८—
जगत में सभी लोग सदा अपनी मनमानी करते रहते हैं, किन्तु जैन—मुनियों की तपस्या अत्यन्त आश्चर्यजनक है, जिसमें बिल्कुल मनमानी नहीं चलती, सदा जिनवाणी की आज्ञानुसार ही प्रवर्तन करना होता है—
आश्चर्य—संख्या ९—
जो जल गन्दगी दूर करने के काम आता है उसे ही यदि कोई गन्दा कर दे तो वह बड़ा अभागा है, उसी प्रकार जो संयम—तप पापों को मिटाने के लिए धारण किया जाता है, उसी से कोई जीव निरन्तर पाप बन्ध करे तो वह बड़ा अभागा है और यह बड़ा ही दु:खद आश्चर्य है—
करोति मलिनं तच्च किल सर्वाधर: पर:।।’’
आश्चर्य—संख्या १०—
देव (भगवान) तो इस देहरूपी देवालय में विराजमान है, परन्तु आश्चर्य है कि लोग उसे मन्दिरों में ऐसे खोजते फिरते हैं मानों सिद्ध भिक्षा हेतु भ्रमण करते हैं—
हासउ महु पडिहाइ इहु, सिद्धे भिक्ख भमेइ।।’’
आश्चर्य—संख्या ११—
जिस प्रकार कस्तूरी तो अपनी नाभि में होती है और मृग उसे वन में ढूँढता हुआ भटकता है, उसी प्रकार राम (भगवान, परम सुख—शान्ति) तो हमारे हृदय में है और हम उसे दुनिया में ढूँढते हुए भटक रहे हैं, अपने अंदर नहीं देख रहे हैं—
ऐसे घट—घट राम है, दुनिया देखे नांहि।।’’
आश्चर्य—संख्या १२—
जगत में सभी लोगों के पास आत्मा का अनमोल खजाना है किन्तु आश्चर्य है कि लोग उसे नहीं देखते और कंगाल बने रहते हैं—
यातें भयो कंगाल, गाँठ खोल देखी नहीं।।’’
आश्चर्य—संख्या १३—
सरस्वती का भंडार बड़ा ही आश्चर्यजनक है, क्योंकि वह खर्च करने से बढ़ता है और संचय करने से घटता है—
व्ययतो वृद्धिमायाति क्षयमायाति स चयात्।।’’
‘‘सुरसुति के भंडार की, बड़ी अपूरव बात।
ज्यों खरचे त्यों—त्यों बढ़े, बिन खरचे घट जात।।’’
आश्चर्य—संख्या १४—
अंधा कुएँ में गिर सकता है, बहरा हितकर उपदेश नहीं सुन पाता है, किन्तु आश्चर्य है कि यह अज्ञानी जीव देखता—सुनता हुआ भी नरकादि दुर्गतियों में गिर जाता है
पेच्छंतो निसुणंतो निरएं जं पडइ तं चोज्जं।।’’
आश्चर्य—संख्या १५—
बड़ा आश्चर्य है कि लोग पुण्य का फल तो चाहते हैं, परन्तु पुण्य को नहीं चाहते (करते) और पाप का फल नहीं चाहते हैं, परन्तु पापों को ही सदा करते रहते हैं—
फलं नेच्छन्ति पापस्य पापं कुर्वन्ति यत्नत:।।’’
आश्चर्य—संख्या १६—
परमात्मा बनने का आश्चर्यजनक रहस्य यह है कि जो कुछ नहीं चाहता, सदा यह भावना करता है कि मैं अिंकचन हूँ, मेरा कुछ नहीं है, वही त्रैलोक्यधिपति बनता है—
आश्चर्य—संख्या १७—
ज्ञान तो सुखदायक ही होता है, पर देखो आश्चर्य कि मिथ्यात्व के कारण ज्ञान भी दुखदायक बन रहा है—
इसी प्रकार के अन्य भी अनेक सच्चे आश्चर्य हमारे तत्त्वद्रष्टा ऋषि—मुनियों ने ग्रंथों में बताये हैं, हमें उन पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। सदैव दुनिया के तथाकथित बाह्य आश्चर्यों में ही उलझे रहना ठीक नहीं। उनमें उलझने से राग—द्बेष की वृद्धि होती है और उपरिलिखित सच्चे आश्चर्यों पर ध्यान देने से ज्ञान—वैराग्य की वृद्धि होती है।
Jai Jinendra
Kripya mujhe ye bataye k kya mein in informations ko share kar skta hu?
Dhanyewad
Yes You can share the information.Also just share the link of this website because “JINVANI MAA KI SEVA KARNA HUMARA MAIN AIM HAI AUR KRIPYA IS KARYA MAI SAHYOG AWASHAYA KARE”
JAI JINENDRA