तत्त्वार्थ सूत्र सातवीं अध्याय

मोक्षमार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम्।

ज्ञातारं विश्वतत्त्वानां वन्दे तद्गुण लब्धये।।

हिंसाऽनृतस्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्र्रतम्।।१।।
अर्थ — हिंसा अर्थात् जीवों को मारने से, अनृत—झूठ बोलने से, स्तेय—चोरी करने से, अब्रह्म—कुशील सेवन से और परिग्रह इन पाँचों पापों का विरति अर्थात् बुद्धिपूर्वक त्याग करने को व्रत कहते हैं।

कोई व्यक्ति इन पापों को नहीं करता है लेकिन उसने त्याग नहीं किया तो उसका व्रत नहीं कहलाता, वह अव्रती ही रहेगा। इसलिये इसे व्रत की संज्ञा दी है कि जब आप इन पापों का बुद्धिपूर्वक—अभिप्रायपूर्वक त्याग करेंगे तभी आप व्रती बन सकते हैं।

इन सबमें प्रधान अिंहसा व्रत है इसलिये उसे सबसे पहले बताया है। शेष चारों व्रत तो अिंहसा व्रत की रक्षा के लिए हैं। जिस प्रकार खेत में धान्यादि बोने पर उसकी रक्षा के लिये चारों ओर बाड़ लगा देते हैं उसी प्रकार अिंहसा व्रत की रक्षा हेतु ये चारों बाड़ के रूप में हैं।

व्रत के भेद बताते हैं—

देशसर्वतोऽणुमहती।।२।।
अर्थ — व्रत के दो भेद हैं—१. अणुव्रत और २. महाव्रत। हिंसादि पापों का एकदेश त्याग करने करना अणुव्रत और सर्वदेश त्याग करना महाव्रत है।

हिंसा आदि पाँचों पापों का एकदेशरूप त्याग करना अर्थात् जहाँ िंहसादि का एकदेशरूप से त्याग किया जाता है, जैसे—स्थूल हिंसा का त्याग, स्थूल झूठ का त्याग, स्थूल चोरी का त्याग, एकदेश ब्रह्मचर्य और परिग्रह का प्रमाण, वह अणुव्रत कहलाता है और पूर्णरूपेण त्याग करना महाव्रत कहलाता है। महाव्रत में पाँचों पापों का पूरी तरह से त्याग कर दिया जाता है। ये दोनों प्रकार के व्रत शुभ आस्रव रूप हैं। वर्तमान में हमारा बाह्य त्याग पर जितना जोर है, उतना आंतरिक जीवन के विकास पर नहीं है अत: पापों का अंतरंग और बहिरंग दोनों रूप से त्याग करना चाहिए। अंतरंग में राग-द्वेष का त्याग और बाहर में मन-वचन-काय की शुभ प्रवृत्ति ही सम्यक् व्रताचरण है।

व्रतों की स्थिरता के कारणों को बताते हैं—

तत्स्थैर्यार्थं भावना: पञ्च पञ्च।।३।।
अर्थ — उन व्रतों की स्थिरता के लिये प्रत्येक व्रत की पाँच-पाँच भावनाएँ हैं।

भावना अर्थात् जिनका बार-बार चिंतवन किया जाये। उन भावनाओं का बार-बार विचार और ध्यान रखने से व्रत में दृढ़ता आती है।

अब अिंहसा व्रत की पाँच भावनाएँ बताते हैं—

वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोकितपानभोजनानि पञ्च।।४।।
अर्थ — वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्या समिति, आदान-निक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन ये अिंहसाव्रत की ५ भावनाएँ हैं।

गुप्ति का पालन तो पूर्णत: मुनिगण करते हैं लेकिन मन, वचन, काय को थोड़ा अनुशासित करना ऐसे एकदेशरूप से उनकी प्रवृत्ति को रोकना गुप्तिरूप है। आंशिक रूप से आपमें भी वह गुप्ति हो सकती है। वचन की प्रवृत्ति को अच्छी प्रकार से रोककर मौन धारण करना वचनगुप्ति है। मन को अशुभ ध्यान से हटाकर आत्महितकारी विचारों में लगाना मनोगुप्ति है। यत्नाचारपूर्वक अिंहसा की भावना से ४ हाथ भूमि को देखकर चलना कि कोई जीव-जन्तु तो नहीं हैं, भूमि स्वच्छ है, गमन योग्य है, यह ईर्या समिति है। उससे विराधना हो करके भी आपको हिंसा का दोष नहीं लगेगा इसलिये इसको भावना में गर्भित किया है। शास्त्र, पिच्छी व कमण्डलु को रखते, उठाते समय देख-शोधकर लेना-रखना तथा अन्य कोई भी वस्तु को जीव रक्षा का ध्यान रखते हुए उठाना-रखना आदाननिक्षेपण समिति है। दिन में अच्छी प्रकार देखभाल कर खाना-पीना कि कोई जीव-जन्तु तो नहीं हैं, बिल्कुल स्वच्छ है कि नहीं है इत्यादि आलोकित- पान भोजन है। इस प्रकार यह अिंहसा महाव्रत की पाँच भावनाएँ हैं। इन पाँचों भावनाओं को महाव्रती तो पालन करते ही हैं अणुव्रती को भी इनका पूर्णतया पालन करना चाहिये।

सत्य व्रत की ५ भावनाएँ निम्न हैं—

क्रोधलोभभीरूत्वहास्यप्रत्याख्यानान्यनुवीचिभाषणं च पञ्च।।५।।
अर्थ — क्रोध, लोभ, भय और हँसी का त्याग करना क्रोध प्रत्याख्यान, लोभ प्रत्याख्यान, भीरूत्व प्रत्याख्यान और हास्य प्रत्याख्यान है तथा शास्त्र की आज्ञानुसार निर्दोष वचन बोलना—सदोष वचन को नहीं बोलना अनुवीचि भाषण है। ज्यादातर गुस्सा, लालच, भय और हँसी से झूठ बात निकलती है इसलिये इनका त्याग करने से जिनेन्द्र भगवान की वाणी के अनुकूल आपकी प्रवृत्तियाँ चलने लगेंगी और इससे आपका सत्य व्रत पलता चला जायेगा।

अचौर्यव्रत की ५ भावनाएँ क्या हैं ? सो ही बताते हैं—

शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकरणभैक्ष्यशुद्धिसधर्माऽविसंवादा: पञ्च।।६।।
अर्थ — शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसम्वाद ये ५ अचौर्यव्रत की भावनाएँ हैं। बिना किसी की दी हुई किसी की वस्तु को ग्रहण करना चोरी है और नहीं ग्रहण करना अचौर्य व्रत है। उस अचौर्य व्रत को पालन करते हुए भी उसकी पाँच भावनायें भावें कि—शून्यागारवास, विमोचितावास, परोपरोधाकरण, भैक्ष्यशुद्धि और सधर्माविसंवाद ये पाँच अचौर्य व्रत की भावनाएँ हैं इनसे बचना है।

पर्वतों की गुफा, वन, वृक्षों की कोटरों आदि निर्जन स्थानों पर रहना शून्यागारवास है, दूसरों के द्वारा छोड़े गये वीरान स्थानों में निवास करना विमोचितावास है। उसमें किसी के घर की चोरी की भावना भी नहीं रहती है, आए और चले गये यह विमोचितावास है।

जहाँ आप ठहरे हैं वहाँ दूसरों को आने से नहीं रोकना परोपरोधाकरण है, क्योंकि वह आपकी निजी वसतिका नहीं है, जो भी आया है उसका उसके ऊपर अधिकार है। शास्त्र के अनुसार भिक्षा की शुद्धि रखना अर्थात् ३२ दोष, ४६ अंतराय आदि टाल कर भोजन करना, उसकी गलतियों को न छुपाना भैक्ष्य शुद्धि है, इसमें स्वादिष्ट वस्तु को अपने हिस्से से अधिक खाने से चोरी का दोष लगता है। सहधर्मी भाइयों से मंदिर के पूजन के बर्तन, धोती-दुपट्टा, सामग्री के थाल बर्तन आदि, शास्त्र सभा में बैठने के स्थान आदि पर झगड़ा करना सधर्मा विसंवाद है। ममकार के अंदर बहुत ज्यादा कलह होती है। इसे त्याग करने से अचौर्यव्रत का पूर्णतया पालन होता है।

ब्रह्मचर्य की पाँच भावनाओं के बारे में बताते हैं—

स्त्रीरागकथाश्रवणतन्मनोहरांगनिरीक्षणपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्टर-सस्वशरीरसंस्कारत्यागा: पञ्च।।७।।
अर्थ — स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग, तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्याग, पूर्वरतानुस्मरणत्याग, वृष्येष्ट रस त्याग और स्वशरीर संस्कार त्याग ये ब्रह्मचर्य व्रत की ५ भावनायें हैं।

ब्रह्मचर्य व्रत कैसे पलता है उसके लिये बाह्य निमित्त हैं। यूँ तो ‘ब्रह्मणि आत्मनि चर्यते इति ब्रह्मचर्य:’ अर्थात् आत्मा में रमण करने को ब्रह्मचर्य कहते हैं। लेकिन बाह्य में ब्रह्मचर्य के लिये स्त्रीमात्र का त्याग कर देना ब्रह्मचर्य व्रत कहलाता है, स्वस्त्री में सन्तोष करके शेष स्त्री का त्याग करना ब्रह्मचर्य अणुव्रत कहलाता है। कैसे ब्रह्मचर्य व्रत पले, उसके लिये बताया है—स्त्रियों में राग बढ़ाने वाली कथाओं को सुनने का त्याग करना स्त्रीरागकथाश्रवणत्याग है। स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखने का त्याग करना तन्मनोहरांगनिरीक्षणत्याग है। पहले भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना पूर्वरतानुस्मरण त्याग है। मान लीजिये कोई ब्रह्मचारी है, पहले शादी की थी बात में उन भोगे हुए विषयों को स्मरण करने से फिर वैसे भाव उत्पन्न होने की आशंका रहती है इसलिये उन भावों का त्याग करना चाहिए। गरिष्ठ कामोत्तेजक पदार्थों का सेवन नहीं करना वृष्येष्टरसत्याग है और जिससे शरीर के अन्दर ऐसी अवस्था उत्पन्न हो जाए कि मेरे को देखकर कोई दूसरा आकर्षित हो जाए इसके लिये अपने शरीर को इत्र तेलादि से न सजाना स्वशरीर संस्कार त्याग है। जिसके शरीर के अन्दर ये पाँच भावनाएँ उत्पन्न हो जावें, उसका ब्रह्मचर्य दृढ़ होता है।

परिग्रहत्याग व्रत की पाँच भावनाएँ निम्न हैं—

मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रियविषयरागद्वेषवर्जनानि पञ्च।।८।।
अर्थ — स्पर्शन आदि पाँचों इन्द्रियों के इष्ट-अनिष्ट आदि विषयों में क्रम से राग-द्वेष का त्याग करना, ये पाँच परिग्रह त्याग व्रत की भावनाएँ हैं।

पाँचों इन्द्रियों के मनोज्ञ विषयों से राग नहीं करना और अमनोज्ञ विषयों से द्वेष नहीं करना, समता परिणति रखना, पाँचों इन्द्रियों के जो विषय हैं स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण और शब्द जो अपने को अच्छे अथवा खराब लगें उनमें परिग्रह का त्याग करना परिग्रह त्याग व्रत की ५ भावनाएँ हैं। स्पर्शन इन्द्रिय के विषय चिकना, रूखा, कड़ा, नरम, हल्का, भारी, ठण्डा, गरम हैं, इन पदार्थों में रागद्वेष के त्याग की भावना मनोज्ञामनोज्ञ स्पर्शरागद्वेषवर्जन है। रसना इन्द्रिय के खट्टे, मीठे, कडुवे, चरपरे और कषायले पदार्थों में रागद्वेष के त्याग की भावना रखना मनोज्ञामनोज्ञ रस राग द्वेषवर्जन है। घ्राण इन्द्रिय के विषय सुगन्ध, दुर्गन्ध वाले पदार्थों में रागद्वेष न करने का विचार होना मनोज्ञामनोज्ञ गंधरागद्वेषवर्जन है। चक्षु इन्द्रिय के विषय सुरूप, कुरूप पदार्थों में रागद्वेष त्याग की भावना मनोज्ञामनोज्ञ वर्णरागद्वेष वर्जन है। कर्ण इन्द्रिय के विषय सुरीले और कानों को कटु लगने वाले शब्दों में रागद्वेष त्याग की भावना मनोज्ञामनोज्ञ शब्द रागद्वेष वर्जन है। ये परिग्रह त्याग व्रत की ५ भावनाएँ हैं। इससे अपने अन्दर लोभ की प्रवृत्ति नहीं बढ़ने पाती है और परिग्रह बढ़ाने की आशंकाएँ नहीं रहती हैं। इन परिग्रहों का पूर्ण त्याग करने वाला महाव्रती और एकदेश पालन करने वाला अर्थात् थोड़ा-थोड़ा राग घटाने वाला अणुव्रती कहलाता है।

हम सुनते हैं—‘‘भरत जी घर में वैरागी’’ भरत चक्रवर्ती सम्राट थे। ९६ हजार रानियाँ, अठारह करोड़ घोड़े, चौरासी लाख हाथी, षट्खण्डाधिपति, नवनिधियाँ, १४ रत्न, अपार वैभव फिर भी अनासक्त रहकर क्रमश: उनका त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा धारण कर ली और उन्हें इतना वैराग्य था जैसे जल से भिन्न कमल, बस वस्त्र उतारते ही केवलज्ञान हो गया। उनके पास इतना परिग्रह था, इस बात पर एक नगरवासी को आशंका हो गई आखिर शंका का निरशन हुआ जब उसने भरत जी से जाकर पूछा कि इतना अपार वैभव होते हुए भी आप वैरागी कैसे हैं ? तब सम्राट भरत ने उसे तेल का एक कटोरा देकर कहा कि इसे लेकर पूरे राज्य में घूमकर आना लेकिन ध्यान रहे कि अगर तेल की एक बूँद भी गिर गयी तो सिपाही तुम्हारा सिर धड़ से अलग कर देंगे। साथ में एक सिपाही भी गया। पूरे राज्य में घूमकर जब वह वापस आया तब भरत सम्राट ने उससे पूछा—क्यों भाई! तूने नगर में क्या-क्या देखा। वह बोला—महाराज क्या देखता ? आपने तो मेरे सिर पर तलवार लटका दी थी। मैं क्या करता ? अगर एक बूँद तेल गिर जाता तो मुझे मार दिया जाता, मेरी दृष्टि तो कटोरे पर थी। वे बोले—तू पूरे राज्य के अन्दर कैसे घूमकर आया ? वह व्यक्ति बोला—मेरे पैर घूमकर आये, मेरा मन घूमकर नहीं आया, मेरा मन तो इस कटोरे पर था। भरत जी बोले—यही बात जो तेरे साथ थी वही मेरे साथ है। मैं भी अपने आत्मारूपी कटोरे को देख रहा हूँ, कहीं ऐसा न हो कि मेरे इस कटोरे से एक बूँद तेल गिरे और काल आकर खंजर से मेरा वध कर दे। इसलिये छह खण्ड का शासन चलाते हुए भी मैं वैराग्य भावना भाता हूँ। मैं तीर्थंकर का पुत्र हूँ, उन्होंने मुझे यही सिखाया है। बस उनके उसी मार्ग पर चलने की कोशिश करता हूँ और इसीलिये मुझे यह सब कुछ अच्छा नहीं लगता है। मैं तो सोचता हूँ कि कैसे मुझे इस राज्य से छुटकारा मिले और अन्ततोगत्वा घर में इतना सब अभ्यास करते-करते एक क्षण ऐसा आया कि कपड़े उतारकर पिच्छी लेते ही उन्हें केवलज्ञान हो गया। क्या है ऐसा कोई दूसरा उदाहरण कि वस्त्र उतारते-उतारते ही केवलज्ञान हो गया हो ? अपनी कर्मशृंखला को उन्होंने इतना सुखा दिया था, इतना निर्जीर्ण कर दिया था कि मात्र इतना बाकी था कि जब तक वस्त्र नहीं उतरेगा तब तक वह कर्म नहीं कटेगा और वस्त्र के उतरते ही दिव्य केवलज्ञान प्रकट हो गया। यही कारण है कि हमारे ऋषि मुनि समझाते हैं कि आप कितना भी करते रहें लेकिन मोक्ष अगर साकार होगा तो दिगम्बर मुद्रा के अन्दर ही होगा। मूलाचार ग्रन्थ में लिखा है कि बिना भोजन के तो मोक्ष हो सकता है लेकिन बिना पिच्छी के निर्वाण की प्राप्ति नहीं हो सकती है ‘‘णिप्पिच्छो णत्थि णिव्वाणं’। यह पिच्छी क्यों है ? क्या यह प्रदर्शन की वस्तु है ?

शास्त्रों में दो भरत के नाम आते हैं। एक जैन रामायण के भरत और दूसरे भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत जिनके नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। लेकिन दोनों ही भरत कितने वैरागी थे यह आप आदिपुराण और पद्मपुराण का अध्ययन करें तो पता चलेगा कि किस प्रकार से राज्य का संचालन करते हुए भी वे वैरागी थे और परिग्रह को रखते हुए भी उनके अन्दर उसकी मूच्र्छा नहीं थी अत: परिग्रह को त्याग करते ही मोक्ष प्राप्त कर लिया।

व्रतों के विरोधी हिसादि पापों से विमुख होने के लिये जो भावना है उसके बारे में बताते हैं—

हिसादिष्विहामुत्रापायावद्यदर्शनम्।।९।।
अर्थ — हिंसादि पाँच पापों के होने पर इस लोक में तथा परलोक में सांसारिक और पारमार्थिक प्रयोजनों का नाश तथा निंदा को देखना पड़ता है, ऐसा विचार करें।

हिंसादि पाप करने से इहलोक तथा परलोक में अनेक आपत्तियाँ आती हैं और इस लोक में निंदा भी होती है इसलिये हिंसादि पापों को छोड़ना ही योग्य है।

किसी ने प्रश्न किया कि सिक्के के दो पहलू हैं, चाहे हम व्रतों का पालन करें, चाहे अव्रतों का पालन करें क्या फर्वâ पड़ता है ? संसार तो दोनों से ही बनता है।

तब आचार्यश्री कहते हैं—नहीं! जैसे कोई किसी का खून कर दे तो इस लोक में तो निंद्य है और परलोक में भी गति बिगड़ी। साथ ही लोग कहते हैं कि देखो! कितना क्रूर प्राणी है, फलां व्यक्ति को मार दिया इसने, उसकी इस लोक में भी निन्दा होती है और परभव में भी नरक आदि गतियों के अन्दर दु:ख उठाना पड़ता है और अगर किसी ने इस लोक में प्राणी रक्षा की तो उसका परलोक भी सुधर गया, इसलिये हिंसा आदि से विरक्त होना ही श्रेयस्कर है इस बात की प्रेरणा दी गयी है। इससे संबंधित एक कथा —

एक ब्राह्मण की पुत्री बहुत से लोगों को दिगम्बर मुनिराज के दर्शनार्थ जाते देख स्वयं भी दर्शनों के लिए गई और मुनि के मुख से पाँच पापों का वर्णन सुनकर उसका मन पवित्र हो गया, उसने पाँचों पापों का त्याग कर दिया तथा पाँच अणुव्रत लेकर वह घर आ गई घर आकर जब उसने व्रत लेने की बात अपने पिता को बताई तो वह बहुत नाराज हुए और बोले कि मेरी आज्ञा के बिना तुम्हें व्रत देने वाले वे मुनि कौन होते हैं? पुन: वह अपनी पुत्री से व्रत छोड़ने के लिए कहने लगा। तब पुत्री बोली कि पिताजी! मैं उन मुनि के सामने ही व्रतों को छोड़ूँगी, चूँकि उसे मुनि ने पहले ही समझा दिया था अत: वह अपने पिता को लेकर मुनि के पास चल पड़ी।

चलते-चलते उन्होंने रास्ते में देखा कि एक व्यक्ति को सूली पर चढ़ाया जा रहा है, लड़की ने उसे देखकर पिता से पूछा कि इसे सूली पर क्यों चढ़ाया जा रहा है, पिताजी बोले कि इसने अपने एक मित्र की हत्या की है अत: इसे फांसी दी जा रही है। लड़की बोली—जो हिंसा इस लोक में सूली और दु:ख को देने वाली है और परलोक में नरकगति में ले जाने वाली है वह हिंसा तो बहुत खराब है, इसलिए हिंसा नहीं करनी चाहिए। पिताजी! यह व्रत तो बहुत अच्छा है, अगर मैंने हिंसा करने का त्याग किया तो क्या बुरा किया? पिता बोले—अच्छा चलो, यह व्रत रख लो किन्तु बाकी ४ छोड़ दो। कुछ और आगे चले तो देखा कि एक पुरुष की जीभ काटी जा रही है। वह पिता से बोली कि पिताजी इसकी जीभ क्यों काटी जा रही है? पिताजी ने कहा कि झूठ बोलने के कारण उसको यह सजा मिली है, तब पुत्री बोली—पिताजी! इसको झूठ बोलने के कारण यह सजा मिली है और आपके अनुसार उसे उस जन्म में भी दुख उठाना पड़ेगा, तो ‘झूठ नहीं बोलना’ यह व्रत लेकर मैंने क्या गलत किया? पिताजी बोले—अच्छा ठीक है! इसे भी रख ले किन्तु शेष ३ व्रत छोड़ दे। कुछ और आगे जाकर उन्होंने देखा कि एक पुरुष को कुछ सिपाही हथकड़ी पहनाकर ले जा रहे हैं, उसे देखकर पुत्री ने पुन: पिता से पूछा कि इसने क्या किया, जो इसे हथकड़ी पहनाकर ले जा रहे हैं? पिताजी बोले—इसने राज्य में चोरी की है अत: सिपाही दण्ड के रूप में इसका हाथ काटने के लिए इसे ले जा रहे हैं। पुत्री बोली—देखो पिताजी! अगर चोरी करने से इस लोक में दण्ड मिला और परलोक में भी गति बिगड़ी, तो चोरी न करना यही तो मेरा तीसरा व्रत है। अब पिता क्या करे, बोला—अच्छा ठीक है। यह व्रत भी रख ले, दो वापस कर दे। आगे बढ़ते गये तो पुन: देखा कि एक आदमी के हाथ-पैर लकड़ी से बांध रखे हैं, तब पुत्री के पूछने पर उसके पिता ने कहा कि इसने व्यभिचार किया है अत: इसे यह सजा मिली है। अब पुत्री कहती है कि पिताजी इसने व्यभिचार अर्थात् कुशील सेवन किया और बेचारा यहाँ भी निंदा का पात्र बना है और परलोक भी बिगड़ गया, तो इसी पाप का त्याग मैंने किया है, यही तो मेरा चौथा व्रत है। कुशील सेवन नहीं करना, क्या यह व्रत लेना गलत है ? पिताजी बोले—अच्छा ठीक है, यह भी रख ले किन्तु पाँचवां व्रत तो तुझे छोड़ना ही पड़ेगा। अब आगे जाते हुए कि एक व्यक्ति फिर दिख गया, जिसे सिपाही पकड़कर ले जा रहे थे, पूछने पर पिताजी बोले कि इसने अन्याय से धन एकत्रित किया है, तब पुत्री बोली कि पिताजी गलत कमाई से ज्यादा धन एकत्रित करने वाला लोभी कहलाता है और जीवन भर दु:ख उठाता है। फिर मैंने यह व्रत लेकर क्या बुरा किया? पिताजी बोले ठीक है, इसे भी रख ले, किन्तु उस मुनि ने मुझसे बिना पूछे व्रत दिए कैसे, चल, अभी चलकर उसे बताता हूँ। पुत्री के लाख समझाने पर भी वह ब्राह्मण उसे लेकर मुनि के पास पहुँचता है और कहता है कि तेरी हिम्मत कैसे हुई मेरी पुत्री को इन व्रतों को देने की ? मुनिराज मुस्कुराए और बोले—हे ब्राह्मण! यह तुम्हारी नहीं अपितु मेरी पुत्री है। इस बात पर ब्राह्मण और भी ज्यादा क्रोधित हो गया और मुनि को यद्वा-तद्वा बकने लगा, तब वहाँ बहुत भीड़ एकत्रित हो गई। आखिरकार बात राजा तक गई। राजा अपने परिकर सहित वहाँ पधारे और मुनिराज को नमस्कार कर पूछा—भगवन्! यह आपकी पुत्री कैसे? आपने तो सभी आरंभ, परिग्रह का त्याग कर रखा है। तब मुनिराज ने उस बालिका के मस्तक पर पिच्छी रखकर कहा—पुत्री! पिछले जन्म में मैंने तुझे जो भी पढ़ाया वह सब सुना दे। इतना कहना था कि उस ब्राह्मण कन्या ने अनेक संस्कृत पाठों का उच्चारण करना प्रारंभ कर दिया, जिसे सुनकर सब चकित रह गए। अन्ततोगत्वा मुनिराज ने सभी को सम्बोधन प्रदान कर सभी के समक्ष अपने पूर्व जन्म का वर्णन करते हुए पाँच अणुव्रतों की महिमा का वर्णन किया, जिससे सबकी श्रद्धा जिनधर्म में दृढ़ हो गई और राजा के साथ-साथ सभी ने उन अणुव्रतों को ग्रहण कर लिया। स्वयं वह ब्राह्मण भी निरुत्तर होकर जिनधर्म का अनुयायी बन गया और मुनिराज के समीप पाँचों पापों का त्याग कर यह व्रत ग्रहण किया और क्रमश: मुनिपद धारण कर अपनी आत्मा का कल्याण किया, उस ब्राह्मण कन्या ने भी आगे आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर स्त्रीपर्याय का छेद किया और कालांतर में मुक्तिपद को प्राप्त करेगी, ऐसी इस अणुव्रत की अचिन्त्य महिमा है, इसलिए हम सभी को अपनी आत्मा का कल्याण करने के लिए इन व्रतों को अवश्य ही ग्रहण करना चाहिए और अणुव्रत लेना चाहिए। शास्त्रों में लिखा है कि अणुव्रती नियम से देवगति प्राप्त करता है और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह करने वाला इस लोक में भी निंदा का पात्र बनता है और परलोक में दुर्गति का पात्र बनता है।

दु:खमेव वा।।१०।।
अर्थ — हिसादि पाँचों पाप दु:खरूप ही हैं ऐसा विचार करना चाहिये।

यह कल्पना करना कि हमें हिंसा से सुख—शांति मिल जायेगी, सर्वथा गलत है। यह कल्पना है कि बलि आदि िंनद्य कार्य करने से कार्य की सिद्धि हो जायेगी।

यशोधर चरित उठाकर देखिये, कैसी रोमांचकारी घटना है। यशोधर की माँ ने कहा—बेटा! तू मुर्गे की बलि कर दे, तुझे शांति मिल जायेगी। तब यशोधर सोचता है कि मैंने जैन कुल में जन्म लिया है, हिंसा तो दु:खस्वरूप ही है, कैसे बलि दूँ। माँ से कहा कि—माँ! ऐसा करना पाप है। माँ बोली—चल! आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि कर दे, तब उसने माँ की बात मान ली कि आटा तो आटा है लेकिन उसमें संकल्पी हिंसा का बहुत बड़ा दोष लगता है, उसने आटे का मुर्गा बनाकर उसकी बलि कर दी। भव-भवान्तर में कितने समय तक उन माता और पुत्र ने दु:ख उठाये और किस प्रकार से उनकी हिंसा होती रही। जब पाप कुछ हल्का हुआ, मुनि का सम्बोधन मिला तो भाई-बहन की पर्याय में विरक्त होकर वे क्षुल्लक-क्षुल्लिका बन गए। उस समय भी एक राजा १०० जोड़े मनुष्यों की बलि दे रहा था। ९९ जोड़े इकट्ठे हो गये थे, मात्र एक युगल सुन्दर जोड़ा चाहिये था। संयोग ऐसा बना कि सिपाहियों ने इन्हें रास्ते में विहार करते हुए देखा तो जोड़ा समझकर पकड़ लिया और बलि स्थल पर लाये। बलिदान की भूमि पर जाकर उन जोड़ों को देखकर उस समय उन्हें जातिस्मरण हो गया कि किस प्रकार से मैंने आटे के मुर्गे की बलि की थी तो जन्म—जन्मांतर में आज भी मैं बलि के लिये आ गया और उस कथानक को जब मारिदत्त राजा और उस चण्डिका देवी के सामने वे अभयरुचि और अभयमती क्षुल्लक-क्षुल्लिका कहते हैं तो उस दिन से बलिप्रथा खत्म हो जाती है।

व्रतधारी सम्यग्दृष्टि के निरन्तर चिंतवन करने योग्य चार भावनाएँ हैं—

मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाऽविनयेषु।।११।।
अर्थ — सत्त्व (प्राणीमात्र में), गुणाधिक (जो गुणों से अधिक हो), क्लिश्यमान (दु:खी) और अविनय (रोगी, मिथ्यादृष्टि या उद्दण्ड प्रकृति के धारक) जीवों में क्रम से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावना भावे।

दूसरों को दुख न हो ऐसे अभिप्राय को मैत्री भावना कहते हैं। अधिक गुणों के धारी जीवों को देखकर सुख—प्रसन्नता आदि से प्रगट होने वाली अन्तरंग की भक्ति को प्रमोद कहते हैं। दुखी जीवों को देखकर उनके उपकार करने के भावों को कारुण्य भाव कहते हैं और जो जीव तत्त्वार्थ श्रद्धान से रहित हैं तथा हित का उपदेश देने से उलटे चिढ़ते हैं उनमें राग—द्वेष का अभाव होना माध्यस्थ भावना है।

इस विषय में शास्त्र में बहुत ही सुन्दर श्लोक है—

सत्वेषु मैत्री गुणिषु प्रमोदं, क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं।
माध्यस्थ भावं विपरीत वृत्तौ, सदा ममात्मा विदधाति देव।।
सामायिक पाठ के अन्दर भी आचार्य अमितगति ने इसका उल्लेख किया है कि—

प्राणी मात्र के प्रति मैत्रीभाव, दीन-दु:खी जीवों के प्रति करुणा, अधिक गुण वालों के प्रति हर्ष और विपरीत वृत्ति वाले हठाग्रही लोगों के प्रति माध्यस्थ भावना, ये चार भावनाएँ अिंहसादि पाँच व्रतों की स्थिरता के लिये बारम्बार चिंतवन करने योग्य हैं। मैं जब चिन्तन करती हूँ तो लगता है कि प्राणीमात्र पर मैत्री रखना भी सहज है, करुणा करना भी सहज है लेकिन विपरीत वृत्ति वाले के प्रति माध्यस्थ भाव रखना बहुत कठिन है। जरा सी बात आती है मन एकदम उद्विग्न हो जाता है। आप शान्त बैठे हैं लेकिन किसी ने गाली दे दी, उद्विग्नता आ गई, क्रोध कषाय भड़क उठती है, कहाँ गई वह माध्यस्थ भावना। उसे बनाए रखना कठिन है और उस कठिनता को अपने अन्दर साकार करना और भी कठिन है यह कहना सरल है कि मुझे किसी ने गाली दे दिया तो क्या फर्व पड़ता है लेकिन जब गाली देता है और झेलना पड़ता है तब उसकी आत्मा से पूछिये कि कैसा लगता है। कहते हैं कि मेरे से तो सहन नहीं होता। अरे! सहन नहीं होता इसीलिये तो आचार्य शिक्षा देते हैं कि हे भाई! तेरे से २३ घण्टे सहन नहीं होता तो कम से कम एक घण्टा भगवान के सामने भावना भा ले कि हे भगवान! मेरे मन के अन्दर वह माध्यस्थ भावना कब आयेगी ? बार-बार अगर किसी दयालु सेठ के सामने भी गिड़गिड़ाते हैं—मेरे पास धन कब आयेगा, मुझे थोड़ा सा धन दे दो? तो थोड़ा बहुत धन तो वह दे ही देता है ऐसे ही भगवान के सामने हम यह भावनायें भायेंगे तो उनके शरीर की शक्ति के कुछ न कुछ परमाणु हमारे अन्दर भी आएंगे और वैसी शक्ति जागृत होगी।

एक व्यक्ति एक महात्मा के पास गया। उसने सुन रखा था कि इनको क्रोध नहीं आता। वह महात्मा के ऊपर बहुत देर तक बड़बड़ाता रहा, गाली देता रहा। महात्मा जी शान्त बैठे रहे। अन्त में झुँझलाकर जाने लगा तो उसे रोककर महात्मा ने कहा कि भैय्या! एक बात पूछूँ ? उसने कहा—अरे मूर्ख! इतनी देर से मैं तुझसे कह रहा हूँ तो तू बोल नहीं रहा है। पूछ, क्या पूछ रहा है ? वह बोला कि भैय्या! मान लो किसी ने कुछ दिया उसने नहीं लिया तो वह किसके पास रहा। वह बोला—अरे मूर्ख! तुझे इतना नहीं पता कि अगर कोई वस्तु किसी को देवे और वह न लेवे तो वह उसकी ही है, उसी के पास रही। तब महात्मा बोले तब तो भैय्या, जो कुछ अभी तक आपने कहा मैंने ग्रहण नहीं किया तो वह किसके पास रही, आपके पास ही ना। यह सुनकर वह व्यक्ति शर्मिन्दा होकर महात्मा के चरणों में गिर पड़ा। सन्त महात्मा उस बात का उत्तर नहीं देते हैं अपितु किसी न किसी माध्यम से उसको सबक सिखाते हैं, यह है माध्यस्थ भाव जो विपरीत आचरण करने वाले के प्रति भी एक जैसा रहता है और ऐसा आचरण होने से यह मानव सम्यग्दृष्टि होता है और उसके अन्दर व्रत सुलभतया आ जाते हैं वर्ना व्रत ऐसे नहीं हैं कि आपके पास भी चले जायें, उसके पास भी चले जायें। वह भी पात्र देखते हैं कि किसके अन्दर समता है, किसके अन्दर मैत्री का स्रोत बह रहा है, किसके अन्दर करुणा की नदी प्रवाहित हो रही है। कहीं ऐसा तो नहीं कि वह व्रत किसी दुरात्मा के पास जाकर मिथ्याव्रत बन जावे। यह व्रत भी जब देख लेते हैं कि इस मानव का हृदय बहुत साफ है, प्राणी मात्र के प्रति मैत्री, दीन-दु:खियों के प्रति करुणा की भावना इसके अन्दर है और विपरीत वृत्ति वालों के प्रति माध्यस्थ भाव रहता है, जल्दी से उखड़ता नहीं है, वह जल्दी से उद्विग्न नहीं होता है तब वह व्रत जल्दी से जाकर उसके अन्दर समाविष्ट हो जाते हैं। जो इन व्रतों का पालन करता है वह सर्वदा सुखी रहता है और इनसे बहुत कुछ प्राप्त करता है।

संसार और शरीर के स्वभाव का विचार करते हुए अगले सूत्र में कहते हैं—

जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।।१२।।
अर्थ — संवेग और वैराग्य के लिए क्रम से संसार और शरीर के स्वभाव का चिन्तवन करे।

संसार और शरीर के स्वभाव का विचार करने से वैराग्य की वृद्धि होती है इसलिये आप संसार और शरीर का विचार ही नहीं करते, कहीं ऐसा न हो कि मेरे वैराग्य उत्पन्न हो जाये और मुझे पत्नी, घर आदि छोड़ना पड़ जाए लेकिन संवेग अर्थात् संसार के दु:खों से भयभीत होने के लिए और वैराग्य अर्थात् बाह्य और आभ्यंतर विषयों में अनासक्ति के लिये संसार और शरीर के स्वभाव का चिन्तन करते रहना चाहिए।

आचार्य कहते हैं कि अगर आपको वैराग्य भावना भानी है तो संसार और शरीर का चिन्तवन करना पड़ेगा। कैसा संसार है, कैसा शरीर है ? इसी बात को पं. मंगतराय जी ने बारह भावना में बताया है—

केसर चंदन और सुगन्धित वस्तु देख सारी।
देह परसते होय अपावन निशदिन मल जारी।।
ऐसा चिन्तन करना कि मैं इत्र पुलेल, तेल आदि लगाकर इस शरीर की इतनी मालिश कर रहा हूँ, इतनी साबुन रगड़ रहा हूँ, सुन्दर वस्त्र और अलंकारों से इसे सजा रहा हूं लेकिन कितना भी इस शरीर का पोषण कर लूं, यह साथ छोड़ने वाला ही है। संसार में सभी जीव दु:खी हैं, नाना योनियों में दु:ख भोग रहे हैं, यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं है। यह जीवन जल के बुलबुले के समान है, भोग सम्पदा बिजली की भाँति चंचल है फिर मैं यह क्या कर रहा हूँ ? इन विषय भोगों को भोग रहा हूँ। उमास्वामी आचार्य कहते हैं कि क्रम से संसार व शरीर की स्थिति का चिन्तन करना चाहिए। जब हम इस प्रकार भावना भाएँगे तो हमारी यह स्थिति हो जाएगी कि एक दिन हम इनसे छूट जाएंगे।

हिंसा पाप का लक्षण क्या है ? सो ही बताते हैं—

प्रमत्तयोगप्राणव्यपरोपणं हिंसा।।१३।।
अर्थ — प्रमाद के योग से यथासंभव द्रव्य प्राण या भाव प्राणों का वियोग करना हिंसा है।

प्रमाद अर्थात् असावधानी, कषाय, राग, द्वेष अर्थात् अयत्नाचारपूर्वक अथवा प्रमादी जीव द्वारा मन, वचन, काय के योग से जीव के प्राणों का घात करना हिंसा है। अगर मन, वचन, काय से हिंसा की प्रवृत्ति है तो उसमें भी हमें दोष लग जाता है।हिंसा दो प्रकार की होती है—द्रव्य हिंसा और भाव हिंसा ।

जिस पुरुष के क्रोधादि कषाय प्रगट होती है उसके अपने शुद्धोपयोग रूप भाव प्राणों का घात होता है और भाव प्राणों का घात होने से वह भाव हिंसा कहलाती है तथा हिंसा के समय यदि जीव के प्राणों का वियोग हो तो वह द्रव्य हिंसा है।

जो यत्नपूर्वक कार्य नहीं करता है तो जीव जिये या मरे उसे हिंसा का पाप अवश्य लगता है किन्तु जो यत्नाचारपूर्वक कार्य करता है उसे हिंसा होने पर भी हिंसा का पाप नहीं लगता है अत: हिंसारूप परिणाम का होना ही वास्तव में हिंसा है। जैसे—जिस समय कोई व्रती जीव ईर्यासमिति से गमन कर रहा हो, उस समय कोई क्षुद्र जीव अचानक उसके पैर के नीचे आकर दब जावे तो वह व्रती उस हिंसा पाप का भागी नहीं होगा क्योंकि उसके प्रमाद नहीं है और एक जीव किसी जीव को मारना चाहता था किन्तु मौका न मिलने से मार नहीं सका तो भी वह हिंसा का भागी होगा क्योंकि वह प्रमाद सहित है और अपने भाव प्राणों की हिंसा करने वाला है।

आचार्यों ने गृहस्थ के त्याग करने योग्य हिंसा के चार भेद बताए हैं—

आरम्भी हिंसा, उद्योगी हिंसा, विरोधी हिंसा, संकल्पी हिंसा। गृहस्थी के खाना बनाने, शरीर, मकान आदि को स्वच्छ रखने में होने वाली हिंसा आरम्भी हिंसा है। आजीविका के लिये व्यवसाय आदि करने में होने वाली हिंसा उद्योगी हिंसा है। अत्याचारियों से अपने धन और अपनी रक्षा करने में जो हिंसा होती है वह विरोधी हिंसा है और जो हिंसा केवल किसी के प्राण लेने अथवा दु:ख पहुँचाने के इरादे से संकल्पपूर्वक की जाती है वह संकल्पी हिंसा है।

इन चारों हिंसाओं में गृहस्थ केवल संकल्पी हिंसा का त्याग कर सकता है शेष हिंसा का त्याग वह नहीं कर सकता है। मुनि पूर्णरूपेण सभी प्रकार की हिंसा का त्यागी होता है।

असत्य पाप का लक्षण बताते हैं—

असदभिधानमनृतम्।।१४।।
अर्थ — प्रमाद के योग से जीवों को दु:खदायक अथवा मिथ्यारूप वचन बोलना असत्य है।

जिन शब्दों से प्राणियों को पीड़ा पहुँचती है वह बात सत्य होवे अथवा असत्य, उसका कहना अनृत अर्थात् असत्य है। जैसे—अन्धे को अन्धा कहना। दशलक्षण पूजन में कहा है—

निन्दा चुगली वैर वचन, कर्वश गर्हित पाप वचन। सब असत्य के परिकर हैं, सब दुर्गति के किंकर हैं।।

किसी की निन्दा करना, ईष्र्या द्वेष के वशीभूत हो चुगली करना, कड़ुवे, मन को चुभने वाले शब्द बोलना भी असत्य ही है। सत्य बोलने में भी ऐसा सत्य नहीं बोलना चाहिये कि किसी धर्मात्मा या धर्म पर ही संकट आ जाये।

चोरी पाप का लक्षण बताते हैं—

अदत्तादानं स्तेयम्।।१५।।
अर्थ — प्रमाद के योग से बिना दी हुई किसी की वस्तु को ग्रहण करना चोरी है।

बिना दी हुई वस्तु का लेना स्तेय अर्थात् चोरी है। बुरे भाव से पराई वस्तु को उठा लेना, बिना पूछे किसी की वस्तु को ले लेना भी चोरी के अन्तर्गत ही आता है।

अब्रह्म पाप का क्या लक्षण है, यह बताते हुए आचार्यश्री कहते हैं—

मैथुनमब्रह्म।।१६।।
अर्थ — मैथुन को अब्रह्म अर्थात् कुशील कहते हैं।

स्त्री तथा पुरुष का जोड़ा मिथुन कहलाता है और चारित्र मोहनीय कर्म का उदय होने पर राग परिणाम से युक्त स्त्री-पुरुष के द्वारा की गई स्पर्शन आदि क्रिया मैथुन अर्थात् अब्रह्म है।

परिग्रह पाप का लक्षण क्या है, उसके बारे में बताया है—

मूर्च्छा परिग्रह:।।१७।।
अर्थ — मूर्च्छा को परिग्रह कहते हैं।

किसी भी पर वस्तु में मूर्च्छा अर्थात् आसक्ति—ममत्व भाव का होना परिग्रह है। परिग्रह के दो भेद हैं—

(१) अंतरंग परिग्रह तथा

(२) बाह्य परिग्रह। अंतरंग परिग्रह १४ प्रकार का है और बाह्य परिग्रह १० प्रकार का है। इस प्रकार कुल परिग्रह २४ प्रकार का है।

मूर्च्छा को यहाँ इसलिये विशेष रूप से दिया है कि तीर्थंकर के पास भी धन वैभव था किन्तु विवेक था और अन्त में उसका त्यागकर संसार से मुक्त हो गये। मूर्च्छा को विशेषरूप से रखने वाला परिग्रही कहलाता है। वास्तव में आभ्यन्तर ममत्व भाव ही परिग्रह है क्योंकि पास में एक पैसा न होने के बाद भी दुनिया भर की वस्तुओं के प्रति आसक्ति है वह परिग्रही है। बाह्य वस्तुओं को इसलिये परिग्रह कहा है कि ये ममत्व भाव के होने में कारण होती हैं इसलिए परिग्रह त्याग में मूर्च्छा के त्याग के साथ ही बाह्य पदार्थों के त्याग पर भी जोर दिया गया है। परिग्रह में प्रमाद योग तो है ही फिर भी रत्नत्रयधारी जीव के जितने अंश में प्रमाद का भाव न हो, उतने अंश में अपरिग्रहीपना है। परिग्रह अर्थात् लोभ का होना पाप है, इसके बारे में बहुत अच्छी कथा शास्त्र में बताई है—एक बार राजा श्रेणिक अपने महल की खिड़की से बाहर देख रहे थे, रात्रि का समय था, आकाश में बादल छाए हुए थे और बिजली चमक रही थी, उसी चमक में उन्होंने देखा कि एक वृद्ध जंगल में लकड़ी बीन रहा है, उसे देखकर राजा का मन करुणा से भर आया कि बेचारा इतना गरीब है कि दिन भर काम करने के बाद भी अपना पेट नहीं भर पाता है, इसलिए रात्रि में भी उसे काम करना पड़ रहा है। उन्होंने सिपाही को भेजकर उस वृद्ध को बुलाने भेजा। प्रात:काल वह वृद्ध जब सभा के सामने उपस्थित हुआ, तो उन्होंने देखा कि उसके चेहरे पर झुर्रियाँ हैं तथा शरीर की भी जर्जर अवस्था है, उन्होंने बहुत ही करुणापूर्वक उससे पूछा कि भाई! तुम कौन हो? तुम्हारी इतनी दयनीय स्थिति क्यों हैं ? वृद्ध ने कहा—महाराज! मैं मम्मन नाम का सेठ हूँ। मेरे पास एक बैल है, मैं उस बैल की जोड़ी का दूसरा बैल खरीदना चाहता हूँ, इसलिए रात-दिन मेहनत करता हूँ। जब तक उस बैल की जोड़ी का बैल न खरीद लूँ, मुझे इसी प्रकार मेहनत करना है। दयालु महाराज ने कहा—कि देखो! अब तुम्हें मेहनत करने की कोई आवश्यकता नहीं है, तुम्हें मेरे बैलों में से जो बैल अच्छा लगे ले लो, वह कहने लगा कि महाराज! मेरे बैल की जोड़ी का बैल आपके पास भी नहीं है। अब राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ और वह बोले—तुम्हारे बैल में ऐसी क्या विशेषता है? तब सेठ ने राजा को अपने घर चलने का अनुरोध किया। राजा उस सेठ के साथ बैल देखने के लिए उसके घर गए और जब वह तलघर में राजा को लेकर गया, तो राजा उसका वैभव देखकर चकित रह गए क्योंकि उसका बैल रत्नों से निर्मित था, पुन: राजा उससे बोले कि जब तुम्हारे पास इतना धन है तब तुम रात-दिन मेहनत क्यों करते हो? किन्तु वह सेठ चूँकि लालची था, अत: राजा की बात उसने नहीं मानी, लकड़ी बीनते-बीनते ही उसकी आयु पूरी हो गई और उसकी मृत्यु के पश्चात् उसका धन राज्यभण्डार में जमा हो गया।

आज व्यक्ति के पास अगर सौ रुपये हैं, तो हजार की इच्छा करता है, हजार वाला लाख की, लाख वाला करोड़ की और करोड़ वाला अरबों-खरबों की इच्छा करता है, उसकी तृष्णा, उसका लालच बढ़ता ही जाता है। वास्तव में लोभ की कोई सीमा नहीं है, उससे कोई तृप्ति, कोई शांति मिलने वाली नहीं है, शांति तो संतोष करने में है इसलिए पूजा में कहा है—संतोषी गुण रतन भण्डारी।

व्रती का लक्षण बताते हैं—

नि:शल्यो व्रती।।१८।।
अर्थ — जो शल्यरहित हो वह व्रती कहलाता है।

जब तक एक भी शल्य रहती है तब तक जीव व्रती नहीं हो सकता है क्योंकि व्रती को शल्य नहीं होती। शल्य का अर्थ है—काँटा, जैसे काँटा कहीं चुभ जाता है तो उसका दर्द हृदय में होता है, ऐसे ही शल्य होती है इसलिये उसे काँटे की उपमा दी गयी है। शल्य के तीन भेद हैं—माया, मिथ्या और निदान। व्रतों के पालन में कपट, ढोंग अथवा ठगने की प्रवृत्ति होना माया शल्य है। मिथ्या तत्त्वों का श्रद्धान,कुदेव पूजा, व्रतों का पालन करते हुए भी सत्य पर श्रद्धा न होना, असत्य का आग्रह रखना मिथ्या शल्य है। व्रतों के फलस्वरूप विषय भोगों की चाह करना निदान है। तपस्या या व्रत करते समय जो कर्मों की निर्जरा होती है उस समय सांसारिक भोगों की इच्छा करना निदान है। निदान करने से तपस्या, व्रतादि का जो फल हमको मिलना चाहिये था वह नहीं मिलेगा।

 

अगार्यऽनगारश्च।।१९।।
अर्थ — अगार और अनगार इस प्रकार व्रती के दो भेद हैं।

अगार अर्थात् घर और अगारी अर्थात् गृहस्थ श्रावक, अनगारी अर्थात् पूर्णरूपेण गृहत्यागी मुनि-साधु। इस प्रकार व्रती के यह दो भेद हैं। जैसे—किसी का घर का त्याग है और किसी के यहाँ ठहर गये तो क्या अगारी हो गये  ? नहीं! क्योंकि उनके मन में ममकार नहीं आता, यह सब भावों से होता है। जब घर का त्याग किया जाता है, व्रतों को ग्रहण किया जाता है तब अनगारी होता है।

अगारी का लक्षण क्या है, सो ही बताते हैं—

अणुव्रतोऽगारी।।२०।।
अर्थ — अणु अर्थात् एकदेश व्रत पालन करने वाला जीव अगारी कहलाता है।

अणुव्रती अर्थात् जो एकदेश व्रत का पालन करने वाला सम्यग्दृष्टि जीव है वह अगारी है। दशवीं प्रतिमाधारी भी घर में रहकर व्रतों का पालन करता है वह अगारी है लेकिन जब ग्यारहवीं प्रतिमा ले लेता है तो एकदेश अनगारी हो जाता है। अणुव्रत के ५ भेद हैं—अहिंसाणुव्रत, सत्याणुव्रत, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिग्रहपरिमाण अणुव्रत। संकल्पपूर्वक त्रस जीवों की हिंसा का परित्याग करना अहिंसाणुव्रत है। राग, द्वेष, भय आदि के वश होकर स्थूल असत्य बोलने का त्याग करना सत्याणुव्रत है। स्थूल चोरी के त्याग को अचौर्याणुव्रत कहते हैं, परस्त्री सेवन का त्याग करना ब्रह्मचर्याणुव्रत है और आवश्यकता से अधिक परिग्रह का त्यागकर शेष का परिमाण करना परिग्रह परिमाण अणुव्रत है।

अब अणुव्रत के सहायक सात शीलव्रतों को बताते हैं—

दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधोपवासोपभोगपरिभोग-परिमाणातिथिसंविभागव्रत-सम्पन्नश्च।।२१।।
अर्थ — वह व्रती दिग्व्रत, देशव्रत तथा अनर्थदण्डव्रत ये तीन गुणव्रत और सामायिक, प्रोषधोपवास, उपभोग परिभोग परिमाण तथा अतिथि संविभाग व्रत इन चार शिक्षाव्रतों सहित होता है अर्थात् व्रतधारी श्रावक पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इन १२ व्रतों से सहित होता है।

अणुव्रतों में सहायता प्रदान करने वाले सात शीलव्रत हैं। यह अणुव्रत को वृद्धिंगत करने में निमित्त होते हैं। जैसे—मैं दशलक्षण पर्व में दस दिन इतनी दूर से ज्यादा नहीं जाऊँगा इत्यादि नियम से उन्हें विशेष पुण्य की प्राप्ति होती है। इन १२ व्रतों का धारी सम्यग्दृष्टि कहलाता है। यदि वह असली व्रती है तो वह इन्द्रादि के वैभव की आकांक्षा नहीं करेगा।

मरण पर्यंत सूक्ष्म पापों की निवृत्ति के लिए दशों दिशाओं में आने-जाने का परिमाण कर उससे बाहर नहीं जाना दिग्व्रत है। जीवन पर्यंत के लिए किये हुए दिग्व्रत में और भी संकोच करके घड़ी, घण्टा, दिन, महीना आदि तक किसी घर, मोहल्ले आदि तक आने-जाने की सीमा रखना देशव्रत है। दिग्व्रत और देशव्रत में समय की मर्यादा की अपेक्षा अन्तर होता है। प्रयोजनरहित पापवर्धक क्रियाओं का त्याग करना अनर्थदण्डव्रत है। इसके पाँच भेद हैं—पापोपदेश अर्थात् हिंसा, आरंभ आदि पाप कर्मों का उपदेश देना, हिंसादान अर्थात् तलवार आदि हिंसा के उपकरण देना, अपध्यान अर्थात् दूसरे का बुरा सोचना, दु:श्रुति अर्थात् रागद्वेष को बढ़ाने वाले खोटे शास्त्रों को सुनाना तथा प्रमादचर्या अर्थात् बिना प्रयोजन के यत्र-तत्र घूमना एवं पृथ्वी आदि को खोदना। इस प्रकार ये तीन गुणव्रत हुए। चार शिक्षाव्रतों में मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से पाँच पापों का त्याग करना सामायिक है। पहले और आगे के दिनों में एकाशन के साथ अष्टमी और चतुर्दशी के दिन उपवास आदि करना प्रोषधोपवास है। भोग अर्थात् जो एक बार भोगने में आवे और उपभोग अर्थात् जो बार-बार भोगने में आवे, उन वस्तुओं का परिमाण कर उससे अधिक में ममत्व नहीं करना भोगोपभोग परिमाणव्रत है। अतिथि अर्थात् मुनियों के लिए आहार, कमण्डलु, पिच्छी, वसतिका, शास्त्र आदि का दान देना अतिथिसंविभाग व्रत है।

सुपात्र उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार के हैं, जिनमें मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक-क्षुल्लिका उत्तम पात्र हैं, व्रती गृहस्थ मध्यम और अव्रती श्रावक जघन्य पात्र हैं।

आचार्यश्री ने इस सूत्र में व्रती को सल्लेखना धारण करने का उपदेश दिया है—

मारणांतिकीं सल्लेखनां जोषिता।।२२।।
अर्थ — व्रतधारी श्रावक मरण के समय होने वाली सल्लेखना को प्रीतिपूर्वक ग्रहण करता है।

व्रती जीव घर में भी रहकर सल्लेखना धारण कर सकता है। कई बार हमारे सामने प्रश्न आता है कि वह घर में सल्लेखना कैसे धारण करेगा ? सत् लेखना—सम्यक् प्रकार से काय और कषायों को कृष करना यह सल्लेखना है। श्रावक पर्याय में भी जिनेन्द्रदेव के प्रति अनुराग है, वह प्रीतिपूर्वक कषायों का शमन कर रहा है तो वह उच्च समाधिमरण कर लेगा। जाना तो सभी को है अब यह सोचना है कि खड़े-खड़े जाना या आड़े-आड़े जाना। जैसे किसी साधु की विमान यात्रा देखी है उन्हें बिठाकर ले जाया जाता है और श्रावक लेटकर जाता है। इसीलिये भावना भानी चाहिये कि हम साधु अवस्था धारण कर समाधिपूर्वक मरण करें। यदि नहीं कर सकते तो इतना तो कर सकते हैं कि अपने घर वालों से कहें कि अन्त समय में आप हमें णमोकार मन्त्र सुनाएं, आप हमें समाधिमरण पाठ सुनाएं, हममें वैराग्य भावना उद्योतित करें।

श्रावक स्वयं भी पहले से समाधि धारण कर सकता है। जब मनुष्य यह समझे कि ऐसी आपत्ति, बुढ़ापा, रोग अथवा अकाल आ गया है कि जिसका उपाय ही नहीं है तब उसको चाहिए कि सभी झंझटों से मन को हटाकर, राग द्वेषादि का त्याग कर, बाह्य और आभ्यन्तर सभी परिग्रह त्यागकर, मन को शुद्ध करे, सभी जीवों कुटुम्बी, पड़ोसी आदि से क्षमा माँगे और स्वयं भी सबको क्षमा कर दे। वैराग्यवर्धक शास्त्र सुने, पढ़े, समाधिमरण आदि पाठ सुने। फिर धीरे-धीरे आहार का त्यागकर दूध और मट्ठे पर निर्वाह करे, पुन: उन्हें छोड़कर गर्म जल पीवे, तदनन्तर पानी का भी त्याग करके उपवास धारण करे, अन्त में णमोकार मन्त्र का उच्चारण, मनन, स्मरण करता हुआ शरीर छोड़े, मरण करे।

कई बार यह प्रश्न उठता है कि सल्लेखना में अनशन आदि किया जाता है, तो क्या यह एक तरह की आत्महत्या है ? परन्तु ऐसा नहीं है। सल्लेखना में प्राण नाश तो है पर राग-द्वेष और मोह न होने से कारण हिंसा में नहीं गिना जाता है, वह तो शरीर से निर्ममता और वीतराग भावना से उत्पन्न होती है। आत्मघात तो किसी कषाय के आवेश में किया जाता है और सल्लेखना कषायों की निवृत्ति के लिये की जाती है।

सम्यग्दर्शन के अतिचार बताते हैं—

शंकाकांक्षाविचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवा:सम्यग्दृष्टे-रतीचारा:।।२३।।
अर्थ — शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टिप्रशंसा और अन्यदृष्टिसंस्तव ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं। जो गुण या व्रत अंश रूप में भंग हों अर्थात् जिसमें दोष लगे वे अतिचार कहलाते हैं। सर्वज्ञ देव—अरहंत देव के द्वारा कहे हुए तत्त्वों के स्वरूप में संदेह करना शंका नाम का अतिचार है। भगवान के द्वारा कहे हुए शास्त्रों पर पूर्णरूपेण श्रद्धा न होने के कारण यह दोष लगा करता है। इहलोक और परलोक सम्बन्धी विषयों की अभिलाषा करना कांक्षा नाम का अतिचार है। यह राग रूप दोष है। रत्नत्रय के द्वारा पवित्र किन्तु बाह्य में मलिन शरीर वाले मुनियों को देखकर उनके प्रति अथवा धर्मात्मा के गुणों के प्रति या दु:खी-दीन जीवों के प्रति ग्लानि होना विचिकित्सा नाम का अतिचार है। मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, तप आदि को अच्छा मानना अन्यदृष्टि प्रशंसा है तथा मिथ्यादृष्टि जीवों के ज्ञान, तप आदि की वचन से प्रशंसा करना अन्यदृष्टि संस्तव है।

५ व्रत और ७ शीलों के अतिचारों की संख्या बताते हैं—

व्रतशीलेषु पंच पंच यथाक्रमम्।।२४।।
अर्थ — अिंहसादिक पाँच अणुव्रतों तथा दिग्व्रत आदि सात शीलों में क्रम से ५-५ अतिचार होते हैं।

जो व्रतों की रक्षा के लिये होते हैं उन्हें शील कहते हैं तथा व्रत के एकदेश भंग होने को अतिचार कहते हैं।

अहिंसाणुव्रत के ५ अतिचार कौन-कौन से हैं ? उसको बताते हुए आचार्यश्री उमास्वामी कहते हैं—

बन्धवधच्छेदातिभारारोपणान्नपाननिरोधा:।।२५।।
अर्थ — बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपाननिरोध ये अहिंसाणुव्रत के ५ अतिचार हैं।

किसी भी प्राणी को रस्सी, सांकल आदि से बांध देना, जैसे—कोई पक्षी अच्छा लगा तो उसे लाकर पिंजरे में बंद कर दिया उससे बन्ध का दोष लगता है। लाठी, डण्डे और कोड़े आदि से पीटना वध है। यहाँ वध से तात्पर्य प्राण लेने से नहीं है, ऐसा करना अनाचार है। जैसे—कुत्ते को पाल तो लिया पर भागता है तो पिटाई करना। जीवों के पूंछ, नाक, कान आदि को छेद देना छेदन है। शक्ति और मर्यादा का विचार न करके अधिक बोझ लादना अतिभारारोपण है। खानपान में रुकावट डालना, उन्हें समय पर खाना नहीं देना यह अन्नपान निरोध है। ये पाँच अिंहसाणुव्रत के अतिचार हैं जिनसे सदैव बचना चाहिये। सत्याणुव्रत के ५ अतिचार बताते हैं—

मिथ्योपदेशरहोभ्याख्यानकूटलेखक्रियान्यासापहार—साकारमंत्रभेदा:।।२६।।
अर्थ — मिथ्या उपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेख क्रिया, न्यासापहार और साकार मंत्र ये सत्याणुव्रत के ५ अतिचार हैं। झूठा और अहितकर उपदेश देना मिथ्या उपदेश है। जैसे—सीता ने पृथ्वीमती माताजी से दीक्षा ली परन्तु उन्हें कहना कि वे पृथ्वी में समा गयीं, द्रौपदी को पाँच पति वाला कहना, शास्त्र में कहा है कि सती द्रौपदी के एकमात्र पति अर्जुन थे जो उन्हें पाँच पति वाला कहे उसकी जिव्हा के सौ-सौ टुकड़े हो जायें।

स्त्री और पुरुष के द्वारा एकान्त में की गई क्रिया को प्रकट कर देना रहोभ्याख्यान है। किसी के भी दबाव में आकर दूसरों के फंस जाने योग्य बात को लिख देना कूटलेख क्रिया है। कोई आदमी आपके पास कुछ धरोहर रखकर गया और भूलकर अगर उसने कम मांगा तो उसको ठीक-ठीक न बताकर जितना मांगे उतना ही देना न्यासापहार है। चर्चा, वार्ता से, मुख की आकृति आदि से दूसरों के मन की बात को जानकर उसकी बदनामी करने के उद्देश्य से प्रकट कर देना साकार मंत्रभेद है। इसको चुगली भी कह सकते हैं। ये सत्याणुव्रत के ५ अतिचार हैं, जिन्हें भूलकर भी नहीं करना चाहिए।

अचौर्याणुव्रत के ५ अतिचार हैं, वह कौन-कौन हैं, उसे बताते हुए कहा है—

स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिकमानोन्मान-प्रतिरूपकव्यवहारा:।।२७।।
अर्थ — स्तेन प्रयोग, तदाहृतादान, विरुद्धराज्यातिक्रम, हीनाधिकमानोन्मान, प्रतिरूपक व्यवहार ये अचौर्याणुव्रत के ५ अतिचार हैं।

चोरी खुद तो नहीं करते किन्तु चोर को चोरी की प्रेरणा दे दी। भावना तो चोरी की आई अत: भले ही व्रत खण्डित नहीं हुआ पर दोष लग जाता है। बाहर मत जाना पर दूसरे से कहकर सामान मंगवा लेना यह भी दोष है।

जिस चोर को चोरी की न प्रेरणा दी, न अनुमोदना की मगर ऐसे चोर के द्वारा चुराये गए माल को खरीद लेना तदाहृतादान कहलाता है। राजा की आज्ञा के विरुद्ध चलना अर्थात् इन्कम टैक्स की चोरी करना यह विरुद्धराज्यातिक्रम है।। आज श्रावक कहते हैं कि अगर हमने ईमानदारीपूर्वक उन्हें टैक्स दिया तो हम अपना पालन-पोषण कैसे करें लेकिन दिल्ली में एक सप्तम प्रतिमाधारी महानुभाव ऐसे भी थे जिनने एक लाख में ८० हजार रुपये टैक्स दिया है। तोलने के बाटों को मान कहते हैं और तराजू को उन्मान कहते हैं। बाट तराजू दो तरह के रखना, दूसरों को कम तोलकर देना और स्वयं अधिक ले लेना यह हीनाधिकमानोन्मान है। कीमती वस्तु में कम कीमत की वस्तु मिलाकर असली भाव से बेच दिया। जैसे—नकली मोती को असली कह दिया, गेहूँ आदि में जौ, वंकड़ आदि मिला दिया, यह प्रतिरूपक व्यवहार कहलाता है।

ब्रह्मचर्याणुव्रत के ५ अतिचारों को बताते हैं—

परविवाहकरणेत्वरिकापरिगृहीतापरिगृहीतागमनानङ्गक्रीड़ाकाम-तीव्राभिनिवेशा:।।२८।।
अर्थ — परविवाहकरण, अपरिगृहीतइत्वरिकागमन, परिगृहीतइत्वरिकागमन, अनंगक्रीड़ा और कामतीव्राभिनिवेश ये ब्रह्मचर्याणुव्रत के ५ अतिचार हैं।

पर विवाहकरण का अर्थ है दूसरे के पुत्र-पुत्रियों का विवाह करना-कराना। पतिरहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के यहाँ आना-जाना अपरिगृहीतइत्वरिकागमन है। पतिसहित व्यभिचारिणी स्त्रियों के पास आना-जाना, लेनदेन रखना, रागभावपूर्वक बातचीत करना परिगृहीतइत्वरिकागमन है। अनंगक्रीड़ा—कामसेवन के लिए निश्चित अंगों को छोड़कर अन्य अंगों से कामसेवन करना। कामसेवन की तीव्र लालसा रखना कामतीव्राभिनिवेश है, ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत के अतिचार हैं।

परिग्रह परिमाण अणुव्रत के ५ अतिचार कौन-कौन से हैं, उसे बताते हुए कहा है—

क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्यदासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रम:।।२९।।
अर्थ — क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम, हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम, धनधान्यप्रमाणा-तिक्रम, दासीदासकुप्यप्रमाणातिक्रम और कुप्यप्रमाणातिक्रम ये परिग्रह परिमाण अणुव्रत के ५ अतिचार हैं ।

जितना-जितना इनका प्रमाण किया था उनका अतिक्रमण कर दिया, जैसे—एक तोले सोने का प्रमाण किया था, बढ़ गया, बेटे-पोते के नाम कर दिया तो व्रत तो नहीं खण्डित हुआ पर दोष लग गया ।  खेत तथा रहने के घरों के प्रमाण का उल्लंघन करना क्षेत्रवास्तुप्रमाणातिक्रम है। चांदी, सोने के प्रमाण का उल्लंघन करना हिरण्यसुवर्णप्रमाणातिक्रम है। गाय, भैंस आदि पशु तथा गेहूँ, चना आदि अनाज के प्रमाण का उल्लंघन करना धनधान्यप्रमाणातिक्रम है । नौकर-नौकरानियों के प्रमाण का उल्लंघन करना दासीदासप्रमाणातिक्रम है और वस्त्र, बर्तन आदि के प्रमाण का उल्लंघन करना कुप्यप्रमाणातिक्रम है, ये पाँच परिग्रहपरिमाण व्रत के अतिचार हैं ।

दिग्व्रत के ५ अतिचार बताते हैं—

ऊर्ध्वाधस्तिर्यग्व्यतिक्रमक्षेत्रवृद्धिस्मृत्यन्तराधानानि।।३०।।
अर्थ — ऊर्ध्वातिक्रम, अधोव्यतिक्रम, तिर्यग्व्यतिक्रम, क्षेत्रवृद्धि और स्मृत्यन्तराधान ये ५ दिग्व्रत के अतिचार हैं। प्रमाण से अधिक अर्थात् मर्यादा से अधिक ऊँचाई वाले पर्वत पर चढ़ना ऊर्ध्वातिक्रम है। समान स्थान, सुरंग आदि में मर्यादा से अधिक लम्बे तक जाना तिर्यग्व्यतिक्रम है। दिशाओं का परिमाण करने के बाद भी लोभ में आकर उससे अधिक क्षेत्र में जाने की इच्छा करना तिर्यग्व्यतिक्रम है और प्रमाण किए हुए क्षेत्र को बढ़ा लेना, जैसे—ाqनयम नीचे का किया है कि इतनी दूर नहीं जाना पर हवाई जहाज पर चढ़कर चले गए तो भी दोष लगेगा यह क्षेत्र वृद्धि है तथा की हुई मर्यादा को भूल जाना स्मृत्यन्तराधान है।

देशव्रत के ५ अतिचार बताते हैं—

आनयनप्रेष्यप्रयोगशब्दरूपानुपातपुद्गलक्षेपा:।।३१।।
अर्थ — आनयन, प्रेष्यप्रयोग, शब्दानुपात, रूपानुपात और पुद्गगलक्षेप ये ५ देशव्रत के अतिचार हैं।

आनयन अर्थात् अपने संकल्प किये हुए देश में रहते हुए मर्यादा से बाहर के क्षेत्र की किसी वस्तु को किसी के द्वारा मंगाना। जैसे भारत में रहते हुए अमेरिका जाने वालों से वहाँ की विदेशी वस्तु मंगवाना। प्रेष्यप्रयोग का अर्थ है मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में किसी को भेजकर काम करा लेना। मर्यादा से बाहर के क्षेत्र में काम करने वाले पुरुषों को लक्ष्य करके खांसना आदि अर्थात् खांसी, ताली, चुटकी आदि बजाकर इशारे से अपना अभिप्राय समझाना शब्दानुपात है। रूपानुपात अर्थात् मर्यादा से बाहर रहने वाले आदमियों को अपना शरीर, मुँह, हाथ आदि दिखाकर इशारा करना और पुद्गलक्षेप अर्थात् मर्यादा से बाहर वंâकड़-पत्थर आदि पेंâककर संकेत करना, ये देशव्रत के ५ अतिचार हैं।

अनर्थदण्डव्रत के ५ अतिचार क्या-क्या हैं ? सो ही बताते हैं—

कन्दर्पकौत्कुच्यमौखर्यासमीक्ष्याधिकरणोपभोगपरिभोगानर्थक्यानि।।३२।।
अर्थ — कन्दर्प, कौत्कुच्य, मौखर्य, असमीक्ष्याधिकरण और उपभोग-परिभोग आनर्थक्य यह ५ अतिचार अनर्थदण्डव्रत के हैं ।

राग की अधिकता होने से हास्य के साथ अशिष्ट वचन बोलना कन्दर्प कहलाता है । जरूरत से ज्यादा हंसी से कभी-कभी बड़े-बड़े अनर्थ हो जाते हैं, बड़े-बड़े युद्ध हो जाते हैं जैसे—द्रौपदी की एक हंसी से महाभारत हो गई । कौत्कुच्य—हास्य और अशिष्ट वचन के साथ शरीर से भी कुचेष्टा करना । मौखर्य का अर्थ है धृष्टतापूर्वक बहुत बकवास करना । बिना विचारे और बिना प्रयोजन के मन, वचन, काय की अधिक प्रवृत्ति करना असमीक्ष्याधिकरण है । जितने उपभोग और परिभोग में अपना काम चल सकता हो उससे अधिक संग्रह करना उपभोग परिभोगानर्थक्य है, ये पांच अतिचार अनर्थदण्डव्रत के हैं । सामायिक व्रत के ५ अतिचार बताते हैं—

योगदुष्प्रणिधानानादरस्मृत्यनुपस्थानानि।।३३।।
अर्थ — मनोयोगदुष्प्रणिधान, वचन दुष्प्रणिधान, काय दुष्प्रणिधान, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये सामायिक व्रत के ५ अतिचार हैं।

सामायिक के समय मन में अन्य विकल्प लाना, सामायिक में मन न लगना, मन:दुष्प्रणिधान है। सामायिक तो करने बैठ गये पर मन नहीं लग रहा है। महाराज ने नियम दिया था कि चाहे दुकान पर सामायिक करना पर करना जरूर अत: सामायिक करने बैठ गये पर कुत्ता आ गया तो क्या हुआ ?

सामायिक में समता भाव, गुड़ की भेली कुत्ता खाव।।

अब कैसे भी करके सामायिक को निपटाया परन्तु रे मन! तू कहाँ जा रहा है। क्या सामायिक में तेरा मन नहीं लग रहा है? अगर ऐसा किया तो दोष लग जाएगा। एकाग्रतापूर्वक विकल्परहित होकर सामायिक करना चाहिये। वचन दुष्प्रणिधान—सामायिक के मंत्र को अशुद्ध और जल्दी-जल्दी बोलना। सामायिक करते समय शरीर को निश्चल न रखना कायदुष्प्रणिधान है। सामायिक में उत्साह का न होना, जैसे-तैसे करके सामायिक पूरी करना और सोचना कि हमारे भगवन्तों ने ऐसा रच दिया, यह अनादर कहलाता है। चित्त की चंचलता से पाठ वगैरह को भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।

प्रोषधोपवास व्रत के ५ अतिचार बताते हैं—

अप्रत्यवेक्षिताप्रमार्जितोत्सर्गादानसंस्तरोपक्रमणानादरस्मृत्यनुपस्थानानि।।३४।।
अर्थ — अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान, अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण, अनादर और स्मृत्यनुपस्थान ये प्रोषधोपवास व्रत के ५ अतिचार हैं।

अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित उत्सर्ग—बिना देखी और बिना शोधी हुई जमीन में मल-मूत्र आदि त्याग करना। बिना देखे तथा बिना शोधे पूजा की सामग्री, उपकरण और अपने वस्त्र आदि उठा लेना अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित आदान है। बिना देखी और बिना साफ की हुई भूमि पर चटाई आदि बिछाना अप्रत्यवेक्षित अप्रमार्जित संस्तरोपक्रमण है। उपवास के कारण भूख-प्यास से पीड़ित होने से आवश्यक क्रियाओं में उत्साह न होना अनादर है। आवश्यक क्रियाओं को भूल जाना स्मृत्यनुपस्थान है।

अब भोग-उपभोग परिमाण व्रत के अतिचार को बताते हुए कहते हैं—

सचित्त संबंधसम्मिश्राभिषवदु:पक्वाहारा:।।३५।।
अर्थ — सचित्ताहार, सचित्तसम्बन्धाहार, सचित्तसन्मिश्राहार, अभिषवाहार और दु:पक्वाहार ये पाँच भोग, उपभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं।

जीव सहित हरे फल, पूâल, पत्र आदि का खाना सचित्त संबंध आहार है। सचित्त पदार्थ से मिले हुए पदार्थ का आहार करना सचित्त-सन्मिश्राहार है। इन्द्रियों को मद उत्पन्न करने वाले गरिष्ट पदार्थों को खाना अभिषव आहार है तथा अधपके अथवा अधिक पके हुए पदार्थ का आहार करना दु:पक्वाहार है। ये पाँच भोग-उपभोग परिमाणव्रत के अतिचार हैं।

अतिथिसंविभाग व्रत के ५ अतिचार बताते हैं—

सचित्तनिक्षेपापिधानपरव्यपदेशमात्सर्यकालातिक्रमा:।।३६।।
अर्थ — सचित्त निक्षेप, सचित्त अपिधान, परव्यपदेश, मात्सर्य और कालातिक्रम ये ५ अतिथिसंविभाग व्रत के अतिचार हैं।

सचित्त कमल के पत्ते वगैरह पर रखकर आहार देना, ज्यादा पक गया या कच्चा रह गया उसे भी महाराज को दे देना सचित्तनिक्षेप है। आहार को सचित्त पत्ते वगैरह से ढक देना सचित्त अपिधान है।स्वयं दान न देकर दूसरे से दिलवाना अथवा दूसरे का द्रव्य उठाकर स्वयं दे देना परव्यपदेश है। आहारदान का पुण्य विशेष होता है चूँकि भारतीय संस्कृति हमारे अतिथि संविभाग को निभाने वाली संस्कृति है, अत: श्रद्धापूर्वक आहार देने से कभी-कभी पंचाश्चर्य की वृष्टि भी हो जाती है। आदरपूर्वक दान न देना अथवा देने वाले दाताओं से ईष्र्या करना मात्सर्य है और योग्य काल का उल्लंघन कर अकाल में आहार देना कालातिक्रम है। जैसे महाराज को आहार देना है पर काल का उल्लंघन कर दिया, सोचा साधु तो हमारे हैं हम पहाड़ से उतरकर आकर आहार देंगे। क्या हुआ ? अतिचार लग गया। इस प्रकार ये अतिथिसंविभाग व्रत के ५ अतिचार हैं। सल्लेखना व्रत के ५ अतिचार निम्न हैं—

जीवितमरणाशंसामित्रानुरागसुखानुबंधनिदानानि।।३७।।
अर्थ — जीविताशंसा, मरणाशंसा, मित्रानुराग, सुखानुबंध और निदान ये सल्लेखना व्रत के ५ अतिचार हैं। सल्लेखना तो ले ली, मगर प्राण बच गए तो जीने की इच्छा है क्योंकि सेवा, पूजा हो रही है। मेरी भावना में आपने पढ़ा होगा—जीने की हो ना इच्छा, मरने की हो ना वांछा।

और वही हमारा कत्र्तव्य भी है। यह जीविताशंसा है, रोग आदि से घबराकर जल्दी मरने की इच्छा करना, सोचते हैं कि भगवान मुझे उठा भी नहीं लेता, लेकिन सोचें कि क्या अगले भव में जाकर आपको दु:ख नहीं मिलेगा, क्या अगले भव में मरना नहीं पड़ेगा, यह मरणाशंसा है। मित्रों का अन्त समय में अनुरागपूर्वक स्मरण करना मित्रानुराग है। पूर्व में भोगे हुए सुखों का स्मरण करना सुखानुबंध है। तपस्या के फल में आगामी काल में भोगों की चाह करना निदान है।

अब आचार्यश्री दान का स्वरूप या लक्षण बताते हैं—

अनुग्रहार्थं स्वस्यातिसर्गो दानम्।।३८।।
अर्थ — अपने और पर के उपकार के लिये धन आदिक अपनी वस्तु का त्याग करना दान है।

किसी को दान दिया तो अपना क्या उपकार हुआ ? अरे! अपना उपकार शाश्वत हुआ और पर का तो क्षणिक उपकार हुआ। देने वालों ने तो जन्म-जन्मान्तर तक सुख का बन्ध कर लिया। स्वस्यातिसर्गो दानम् अर्थात् धन आदिक अपनी वस्तु का त्याग करना।

शास्त्रों में चार प्रकार के दान कहे हैं—औषधिदान, शास्त्रदान, अभयदान एवं आहारदान। इन चारों प्रकार का दान देने से महान पुण्य का संचय होता है। दान देने से अपना तो अनुग्रह यह है कि अशुभ राग दूर होकर शुभोपयोग होता है, लोभ घटता है, धर्म में अनुराग बढ़ता है, दाता को पुण्य का बंध होता है और पर का उपकार यह है कि उस पात्र के धर्मसाधन में सहायता मिलती है, सम्यग्ज्ञान आदि गुणों की वृद्धि होती है। हाँ, अपनी पूजा, प्रतिष्ठा, मान, बड़ाई के लिये दान देना दान नहीं है। दान देने से क्या विशेषता आती है, इस बात को बताते हुए अन्तिम सूत्र अवतरित होता है—

विधिद्रव्यदातृपात्रविशेषात्तद्विशेष:।।३९।।
अर्थ — विधि, द्रव्य, दातृ और पात्र की विशेषता से दान में विशेषता आती है।

विधि—आदरपूर्वक नवधाभक्ति से आहार देना। द्रव्य—तप, स्वाध्याय आदि की वृद्धि में कारणभूत आहार आदि को द्रव्य विशेष कहते हैं परन्तु आहार सुपाच्य और हल्का हो न कि गरिष्ठ और मादक हो।

श्रद्धातुष्टिर्भक्तिर्विज्ञानमलुब्धता क्षमा सत्त्वम्।
यस्यैते सप्तगुणास्तं दातारं प्रशंस्ति।।
दाता में इन सात गुणों के होने से दान के फल में विशेषता आती है। जो सम्यक्चारित्र आदि गुणों से सहित हों, ऐसे मुनि आदि को पात्र विशेष कहते हैं। विधि अगर उत्तम है, देने वाला उत्तम है, लेने वाला पात्र उत्तम है तो उसमें विशेषता आ जाती है जैसे—देने वाले राजा श्रेयांस उत्तम हैं, लेने वाले भगवान ऋषभदेव उत्तम पात्र हैं और विधि तो राजा श्रेयांस की उत्तम थी ही इसलिए पंचाश्चर्य की वृष्टि हो गयी। उन्होंने कोई षट्रस व्यंजन नहीं दिया मात्र इक्षुरस का आहार दिया और आज भी हस्तिनापुर में इतना गन्ना है कि रास्ते गुजरते लोगों का मुख अनायास ही मीठा हो जाता है।

इस प्रकार इस सातवीं अध्याय में आचार्य उमास्वामी ने जीव-अजीव तत्त्वों के बारे में बताते हुए दान के बारे में भी बता दिया क्योंकि श्रावकों के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है। अत: इन सबको जानकर अशुभ कर्मों को छोड़कर शुभ कर्म की ओर प्रवृत्त होना चाहिये, यही इस अध्याय का सार है।

।।इति तत्वार्थाधिगमे मोक्षशास्त्रे सप्तमोऽध्याय: समाप्त:।।