जैन दर्शन में ६ द्रव्य माने गए हैं—
१.जीव,
२. पुद्गल,
३. धर्म,
४. अधर्म,
५. आकाश,
६. काल द्रव्य।
१.जीव द्रव्य:—
जिस हृदय में जानने—देखने की शक्ति एवं ज्ञान, दर्शन चेतना पाई जाती हैं वह जीव द्रव्य कहलाता है। जीव शब्द का अर्थ है, जीने वाला। जीव द्रव्य नित्य हैं तथा अमर्तिक हैं। पृथ्वी, जल, अग्नि, वनस्पति, वायु भी जीवन है। वर्तमान में विज्ञान ने इन पांचों को प्रकृति का पुद्गल में शामिल किया है जिसे जैन दर्शन में पहले ही सिद्ध कर चुके हैं। डॉ. जगदीश चन्द्र बसु ने पेड़—पौधों पर प्रयोंगों द्वारा जीवन सिद्ध किया है। अन्य वैज्ञानिकों ने पहाड़ों की चट्टानों और खानों को भी बढ़ते हुए पाता देखकर उनमें जीवन सिद्ध किया है।
२. पुद्गल द्रव्य:—
पुद्गल शब्द का अर्थ पूरण और गलन हैं। अर्थात जो परस्पर परमाणुओं के संयोग और वियोग से बनता हैं, पुद्गल कहलाता है। जिस हृदय में रूप, रस, गंध, पूर्ण सारी चारों गुण पाये जाते हैं। पुद्गल द्रव्य कहलाता है। पुद्गल द्रव्य मूर्तिक हैं। पुद्गल के दो भेद हैं— परमाणु और स्कंध। विज्ञान के अनुसार वायु, पानी, अग्नि, पृथ्वि, मन सभी पुद्गल हैं। विज्ञान और जैन दर्शन दोनों ने शब्द अर्थात ध्वनि को भी पुद्गल सिद्ध किया है।
पुद्गल में स्निग्ध और रूक्ष गुण पाये जाने से तथा परस्पर आकर्षण शक्ति के कारण जुड़ने से स्कंध बनते हैं तथा टूटने से परमाणु बनते हैं स्निग्ध और रूक्ष गुणों को ही विज्ञान ने धनात्मकता पोझीटीवली एवं ऋणात्मकता, नेगेटीवली माना हैं, जिससे विद्युत उत्पन्न की जा सकती है।
३.धर्म द्रव्य:-
जीव और पुद्गल द्रव्यों को जो द्रव्य चलने में सहायता करता है वह धर्म द्रव्य कहलाता है। मोडर्न साइंस ने धर्म द्रव्य की तुलना में इथर नामक तत्व से की हैं, यह पौद्गलिक नहीं है, यह संपूर्ण जगत में व्याप्त हैं। धर्म द्रव्य अमूर्तिक, निष्क्रिय तथा अदृश्य हैं। साइल्सन—मोलें प्रयोग एवं सापेक्षवाद के सिद्धान्तानुसार इथर को गति का माध्यम माना जाता हैं। डॉ. जे.बी. राजन अपनी पुस्तक मोडर्न फीझीक्स में इथर के विषय में लिखते हैं— देट इस अ हायपोथिकल मिडीयम कोल्ड इथर। वीच फिल्ड युनीफोर्मली ओल स्पाइस एण्ड पेरेन्टेड ओल सेटर। लाइट एण्ड हेवेप्ली बोडीज पर एस्युम्ड टु मुव फ्रीली थ्रु आइथर ।
४. अधर्म द्रव्य:—
जो द्रव्य जीव और पुद्गल द्रव्यों को ठहरने में सहायता करता है वह अधर्म द्रव्य हैं। अधर्म द्रव्य की तुलना सर आइजक न्यूटन ने आकर्षण सिद्धान्त से की हैं। अत: इसका माध्यम क्षेत्र (फिल्ड) हैं। इसलिए अधर्म द्रव्य को स्थिति का माध्यम माना जाता है।
यद्यपि चलने और ठहरने की शक्ति जो जीव पुद्गल में ही है, किन्तु बाह्म सहायता के बिना उस शक्ति की व्यक्ति नहीं हो सकती, जैसे परिणमन करने की शक्ति तो संसार की प्रत्येक वस्तु में मौजूद हैं, किन्तु द्रव्य उसमें सहायक होने पर भी धर्म और अधर्म द्रव्य प्रेरणा कारण नहीं है, अर्थात् किसी को बलात् नहीं चलाते या ठहराते हैं, किन्तु चलते हुए को चलने में और ठहरे हुए को ठहरने में सहायक मात्र होते हैं। यदि उन्हें गति और स्थिति में मुख्य कारण लिया जाए तो जो चल रहे हैं, वे भी चलते ही रहेंगें और ठहरे हैं वे ठहरे ही रहेंगे, किन्तु जो चलते हैं, वे ही ठहरते ही रहेंगे, किन्तु जो चलते हैं, वे ही ठहरते भी हैं । अत: जीव और पुद्गल स्वयं ही चलते हैं और स्वयं ठहरते हैं । धर्म और अधर्म द्रव्य केवल सहायक या माध्यम मात्र हैं। यहीं न्यूटन की गति के नियम हैं— जो वस्तु गत्यावस्था में है वह तब तक गत्यावस्था में ही रहेगी अथवा जो वस्तु विराम/स्थिर अवस्था में है।, वह तब तक विराम—स्थिर अवस्था में ही रहेगी जब तक की उस पर बाह्म बल (मध्यम) आरोपित न किया जाए। धर्म और अधर्म द्रव्य बिल्कुल अदृश्य हैं, क्योंकि ये अमूर्तिक हैं तथा लोकव्यापी होने के कारण इसका सीमायें प्रतीति में नहीं आती हैं। सामान्यत: लोक में धर्म और अधर्म का तात्पर्य पुण्य और पाप से समझा जाता हैं, जैन दर्शन में धर्म और अधर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य, अन्य द्रव्यों की भांति दो स्वतंत्र द्रव्य है।
५. आकाश द्रव्य:—
साधारणत: यह जो ऊपर नीला—नीला दिखाई देता हैं, उसे आकाश कहते हैं, परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है, वह तो इंद्रियों से दिखाई देता है अर्थात् वह पुद्गल है और स्पेश वास्तव में आकाश द्रव्य हैं। आकाश द्रव्य असीम हैं, किन्तु अनंत हैं, इसे फिनीट बट अनबाउन्डेड द्वारा प्रगट किया गया है। आईसटीन ने आकाश को असीम प्रकृति के निमित्त से कहा है। प्रकृति (पुद्गल) के अभाव में आकाश अनंत है।
जैन दर्शनानुसार:— जो द्रव्य सभी द्रव्यों (जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल) को स्थान या अवकाश देता हैं, वह ही आकाश द्रव्य हैं। यह द्रव्य अमूर्तिक हैं, सर्वव्यापी हैं। इसे अन्य दार्शनिक भी मानते हैं। जैन दर्शन में आकाश के दो भेद हैं ।
१. लोकाकाश,
२. अलोकाकाश।
जिस आकाश खण्ड में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, काल में पांचों द्रव्य व्याप्त हैं, उसे लोकाकाश कहते हैं। सर्वं व्यापी लोक के मध्य में लोकाकाश हैं। इसके चारों और तथा लोक के बाहर अलोकाकाश है। जिसमें केवल आकाश द्रव्य पाया जाता हैं। लोकाकाश अकृत्रिम हैं। आकाश के केवल असंख्यात प्रदेश हैं और उनमें स्थान पाने वाले पदार्थ अनंतानंत हैं। जैन दर्शन लोकाकाश को शान्त मानता हैं और इसके आगे अनंत आकाश मानता हैं। वैज्ञानिक आइंसटीन समस्त लोक को शांत मानते हैं किन्तु कुछ भी नहीं मानते हैं जैन दर्शन में आकाश द्रव्य को परमार्थ तत्व ओबजेक्टीवीटी रील माना है। जैसे पुद्गल, धर्म, अधर्म और काल द्रव्य जोक के बाहर नहीं है और आकाश उस लोक के अंदर भी हैं, तथा बाहर भी है, क्योंकि अंत नहीं है। दिशाओं का आकाश के प्रदेशों में ही सूर्य , चंद्रमा आदि के उदय को पूर्व पश्चिम इत्यादि का व्यवहार होता हैं, अत: सभी दिशायें भी आकाश द्रव्य में समाहित हैं।
६. काल द्रव्य:—
जैन दर्शन में काल को स्वतंत्र द्रव्य माना हैं। जो वस्तु मात्र के परिवर्तन में सहायक हैं, उसे काल द्रव्य कहते हैं। यद्यपि परिणमन करने की शक्ति सभी पदार्थों में हैं, किन्तु बाह्म निमित्त के बिना उस शक्ति की व्यक्ति नहीं हो सकती।जैसे कुम्हार के चाक के घूमने की शक्ति मौजूद है, किन्तु कील का सहारा पाये बिना वह घुम नही सकता, वैसे ही संसार के पदार्थ भी काल द्रव्य का सहारा लिये बिना वह घूम नहीं सकता। वैसे ही संसार के पदार्थ भी काल द्रव्य का सहारा लिए बिना परिवर्तन नहीं कर सकते । अत: कालद्रव्य उनके परिवर्तन में सहायक हैं। किन्तु वह भी वस्तुओं को बलात् परिणमन नहीं कराता है, किन्तु परिणमन करते हुए द्रव्यों को सहायक मात्र हो जाता है।
काल का दूसरा नाम अद्धा समय भी हैं। साइंस ने जीव आदि में नवीन अवस्था से प्राचीन अवस्था बनने रूप परिवर्तन का माध्यम काल नाम का द्रव्य माना है।
जैन दर्शन में काल द्रव्य को परमाणु के आकार का अर्थात एक प्रदेशी मानते हैं। एक प्रदेशी का अर्थ संख्या में एक ही हैं, ऐसा नहीं हैं। काल द्रव्य अणु रूप हैं। इसलिए कालाणु कहते हैं। ये कालाणु अमूर्तिक हैं, एक प्रदेश पर नियम से एक ही कालाणु रहता हैं। ये कालाणु अपना स्थान नहीं बदलते हैं। परमाणु में स्निग्ध—रूक्ष गुण होने से परस्पर मिलकर स्कंध का निर्माण करते हैं परन्तु कालाणु में परस्पर जुड़ने की शक्ति नहीं होती हैं। अत: कालाणु नित्य है। कालाणु जीव तथा पुद्गल को स्थूल रूप से ओर आकाशादि पदार्थों को सूक्ष्म रूप से यथायोग्य गुण तथा स्थान रूप परिवर्तन में सहायक होते हैं।
काल के दो भेद हैं:—
१. निश्चित काल,
२. व्यवहार काल।
इन कालाणुओं को निश्चय काल कहते हैं इन कल्याणुओं के निमित्त से ही संसार में प्रतिक्षण परिवर्तन होता रहता हैं। कालाणु के निमित्त से प्रत्येक वस्तु का अस्तित्व कायम हैं। घड़ी , घण्टा,पल, दिन, रात, ऋतु, वर्ष, समय, आवली, उच्छवास, प्राणस्टोक आदि व्यवहार काल कहलाता है। व्यवहार काल सौरमण्डल की गति और घड़ी वगैरह के मध्यम से जाना जाता हैं।
जीवादिक द्रव्यों में जो पर्याय उत्पन्न होती हैं उनकी उत्पत्ति में जो असाधारण साधकतम है उसको काल द्रव्य कहते हैं। काल के बिना जीवादि की पर्याय उत्पन्न ही नहीं होती। काल के साधारण और असाधारण दो प्रकार के गुण हैं। उनमें असाधारण गुण वर्तना हेतुत्व हैं तथा साधारण गुण अचेतनत्व, अमूर्तत्व, सूक्ष्मत्व और अगुरूलधुत्व आदि हैं। इसी प्रकार उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य रूप पर्यायें भी हैं। अत: काल द्रव्य की स्वतंत्र रूप से सत्ता सिद्ध होती हैं। प्रत्येक पदार्थ परिवर्तनशील तथा विनष्ट होने वाला है, अत: काल के अधीन हैं। अत: अपने जीवन को उन्नत बनाने के लिए काल की सामथ्र्य को पहिचान कर सत् की ही प्राप्ति करने का प्रयत्न करे।
ब्र. समता जैन मारौरा शिवपुरी म.प्र.
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अध्भुत , सराहनीय और ज्ञानवर्धक सामग्री ……
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I m not Jain but very much like Jain philosophy and belief…..great knowledge are sharing by us….Jay Jinendra….n Jay sachchidanand
Please tell a principles of Jain philosophy that is fully connected with modern science
A great effort and very informative.
Thank you.
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स्वस्थ और लंबी आयु के लिए movement (चलना) जरूरी है। जैनिज्म में 6 द्रव्यों में धर्म की वैज्ञानिक व्याख्या में भी कहा है कि जीव और पुद्गल (अजीव) द्रव्यों को जो द्रव्य चलने (movement) में सहायता करता है वह धर्म द्रव्य कहलाता है। और जो रोकता है वो अधर्म द्रव्य। यहां चलने का तात्पर्य सभी से है, शरीर, उसके सिस्टम्स, सांस, दिल, बाकी अन्य पशु पक्षी, पेड़, पोधे, जल, अग्नि, वायु, अजीव, (पुद्गल) आदि आदि… सभी। जिससे इन्हें चलने में सहायता हो वो इनका धर्म, जिससे इन्हें रोकने में सहायता हो वो अधर्म द्रव्य।