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एकत्व-वितर्क-अवीचार – मोहनीय कर्म को पूर्णतः नष्ट करने के लिए साधु मन-वचन-काय रुप किसी एक योग में स्थित रहकर, अर्थ, व्यंजन व योग के परिवर्तन से रहित होकर श्रुत के माध्यम से जो किसी एक द्रव्य, गुण या पर्याय का चिंतन करता है उसे एकत्व-वितर्क-अवीचार नामक द्वितीय शुक्लध्यान कहते है।
एकत्वानुप्रेक्षा –‘मै अकेला ही उत्पन्न होता हूँ, अकेला ही मरता हूँ, अकेला ही कर्मों का उपार्जन करता हूँ और अकेला ही उन्हे भोगता हूँ, कोई भी स्वजन और परिजन मेरे जन्म, जरा और मरण आदि के कष्ट को दूर नहीं कर सकते, धर्म ही एकमात्र ऐसा है जो मेरा सहायक है और मेरे साथ जाकर भवान्तर में भी सहायक हो सकता है, ’- इस प्रकार बार-बार चिन्तन करना एकत्वानुप्रेक्षा है।
एकभक्त – जीवन-पर्यत प्रतिदिन सूर्य के प्रकाश में विधिपूर्वक एक ही बार आहार ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना एकाभक्त व्रत कहलाता है। यह साधु का एक मूलगुण है।
एकलविहारी – एकाकी विचरण करने वाले साधु को एकल-विहारी कहते है। पंचम काल में दीक्षा धारण करके अकेले रहना या अकेले विहार करना साधु के लिए प्रशसनीय नहीं है। तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आचार कुशल, उत्तम सहनन के धारी, धैर्यवान विशिष्ट साधु को ही अकेले विहार की अनुमति, आचार्यो ने दी है।
एकविधअवग्रह – एक प्रकार के अथवा एक जाति के, एक या अनेकपदार्थों को जानना एकविध-अवग्रह है। जैसे – गेहूँ, चावल आदि एक प्रकार के धान्य को जानना।
एकान्त- मिथ्यात्व –तत्व के विषय में ‘ यही है, इस प्रकार का है’ – ऐसा भ्रान्त और एकान्त अभिप्राय या आग्रह रखना एकान्त मिथ्यात्व है। जैसे – जीव सर्वथा नित्य ही है या अनित्य ही है – ऐसा मानना।
एकावग्रह – किसी एक पदार्थ को जानना एकावग्रह है। जैसे – अनेक शब्दो में से किसी एक शब्द को जानना।
एकेन्द्रिय – जिसके एकमात्र स्पर्शन इन्द्रिय है वह एकेन्द्रिय जीव है। वनस्पति, जल, वायु आदि सभी स्थावर जीव एकेन्द्रिय है।
एलाचार्य – गुरु के पश्चात्जो श्रेष्ठ साधु संघस्थ अन्य साधुओं को मार्गदर्शन देता है उसे अनुदिश अर्थात्एलाचार्य कहते है।
एवंभूत-नय – जो वस्तु जिस पर्याय को प्राप्त हुई है उसी रुप निश्चय करने वाले या नाम देने वाले नय को एवभूत – नय कहते है। आशय यह है कि जिस शब्द का जो वाच्य है उस रुप क्रिया करते समय ही उस शब्द का प्रयोग करना ठीक है अन्य समयो में नहीं। जैसे-जिस समय आज्ञा या ऐश्वर्यवान्हो उस समय ही इन्द्र है, पूजा या अभिषेक करने वाला इन्द्र नहीं कहलाएगा।
एषणा-समिति – जीवन पर्यन्त सुकुल श्रावक के द्वारा दिया गया निर्दोष और प्रासुक आहार समतापूर्वक ग्रहण करने की प्रतिज्ञा लेना एषणा-समिति है। यह साधु का एक मूलगुण है।