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इङिगनी-मरण – शास्त्र में कही गई विधि के अनुरुप क्रमशः आहार का त्याग करके स्वाश्रित रहकर दूसरे के द्वारा वेयावृत्ति आदि नहीं कराते हुए जो समाधि ली जाती है वह इङ्गिनी-मरण नामक सल्लेखना है। इस प्रकार की सल्लेखना लेने वाले साधु उत्तम सहनन के धारी होते हैं ।
इच्छाकार – ऐलक, क्षुल्लक आदि उत्कृष्ट श्रावक व श्राविका के प्रति आदर प्रकट करना इच्छाकार कहलाता है।
इतर-निगोद – जिन्होंने त्रस पर्याय पहले कभी पायी है फिर पुनः निगोद में उत्पन्न हुए है, ऐसे जीव चतुर्गति निगोद या इतर-निगोद कहलाते हैं ।
इन्द्रिय – जो सूक्ष्म आत्मा के अस्तित्व का ज्ञान कराने में सहायक है उसे इन्द्रिय कहते हैं । शरीरधारी जीवों को ज्ञान के साधन रुप स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियां अपने-अपने निश्चित विषय को ही जान पाती है, जैसे – आँख मात्र रुप को जानती है वह रस को नहीं जान पाती। स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इन्द्रियाँ है । ये पाँचो इन्द्रियाँ द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय दोनों रुप में होती हैं ।
इन्द्रिय-जय – पाँचो इन्द्रियों को ज्ञान, वेराग्य और उपवास आदि के द्वारा वश में रखना इन्द्रिय-जय कहलाता है। यह पाँचो इन्द्रियों के भेद से पाँच प्रकार का है। यह साधु का मूलगुण है।
इन्द्रिय-संयम – देखिए संयम।
इन्द्रिय-सुख – साता वेदनीय आदि पुण्य कर्म के उदय से जो इन्द्रिय जनित सुख प्राप्त होता है उसे इन्द्रिय-सुख कहते हैं ।
इष्ट-वियोगज-आर्तध्यान – स्त्री, पुत्र और धन आदि प्रिय वस्तु या व्यक्ति का वियोग होने पर उनके लिए निरंतर चिन्तित या दु:खी होना इष्ट-वियोगज नाम का आर्तध्यान कहलाता है।
इहलोकभय –‘इस भव में लोग न मालूम मेरा क्या बिगाड़ करेंगे’ – ऐसा भय बना रहना इहलोक भय है।