Jain Darshan Dictionary : द

–द–

 दम –  इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना दम कहलाता है ।

दया – दीन-दुखी जीवों के प्रति अनुग्रह या उपकार का भाव होना दया या करुणा हैं ।

दर्शन – 1 जो मोक्ष मार्ग को दिखावे वह दर्शन हैं । मोक्ष मार्ग सम्यग्दर्शन संयम और उत्तम क्षमादि धर्म रुप है । अतः बाह्‌य में निर्ग्रंथ और अंतरंग में वीतरागी मुनि के रुप को दर्शन कहा है । 2 दर्शन का अर्थ मत है । 3 जिसके द्वारा देखा जाए उसे दर्शन कहते हैं या वस्तु के आकार-प्रकार को ग्रहण न करके जो मात्र निर्विकल्प रुप से सामान्य अवलोकन होता है उसे दर्शन कहते हैं । यही दर्शनोपयोग कहलाता है जो निराकार होता है । इसके चार भेद हैं – चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ।

दर्शन-क्रिया – रागवश रमणीय रुप देखने का अभिप्राय होना दर्शन-क्रिया है ।

दर्शन-प्रतिमा – निर्मल सम्यग्दर्शन के साथ अष्टमूलगुण का पालन करना और सप्त व्यसन का त्याग करना यह श्रावक की पहली दर्शन-प्रतिमा है ।

दर्शनमोहनीय कर्म – जिस कर्म के उदय से सच्चे देव शास्त्र गुरु के प्रति अश्रद्धान होता है या श्रद्धान की अस्थिरता होती है वह दर्शन मोहनीय कर्म है । यह तीन प्रकार का है – सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व ।

दर्शनविनय – शंकादि दोषों से रहित तत्‍वार्थ का श्रद्धान करना और सच्चे देव शास्त्र गुरु की पूजा भक्ति आदि मेम तत्पर रहना दर्शन-विनय है ।

दर्शन-विशुद्धि – सम्यग्दर्शन का अत्यन्त निर्मल व दृढ़ होना दर्शन-विशुद्धि कहलाती है । सोलह कारण भावना में यह प्रथम भावना है । इसके होने पर ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध संभव होता है ।

दर्शनाचार नि: शंकित आदि आठ अङ्ग युक्त सम्यग्दर्शन का पालन करना अर्थात्‌उस रुप आचरण करना दर्शनाचार कहलाता है ।

दर्शनावरणीय कर्म – जिस कर्म के उदय से जीव का दर्शन गुण आवरित हो जाता है उसे दर्शनावरणीय कर्म कहते है । यह नौ प्रकार का है – चक्षु दर्शनावराणीय, निद्रा, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला और स्त्यानगृद्धि ।

दशवैकालिक – जिसमें साधुओं की आचार-विधि और गोचर-विधि अर्थात्‌आहार-चर्या की विधि का वर्णन हो उसे दशवेकालिक कहते है ।

दशमशक-परीषह-जय – मच्छर, मक्खी, चींटी आदि के द्वारा पीड़ा पँहुचाये जाने पर साधु उसे समता पूर्वक सहन कर लेता है उसके यह दशमशक-परीषह-जय है ।

दान – परोपकार की भावना से अपनी वस्तु का अर्पण करना दान कहलाता है । दान चार प्रकार का है – आहार दान, औषधि दान, उपकरण दान या ज्ञान-दान और अभयदान । दान के चार भेद और भी हैं – करुणा-दान या दया-दत्ति, सम्दत्ति और सकल-द्त्ति । भावों की अपेक्षा दान तीन प्रकार का है- राजसिक, तामसिक और सात्विक ।

दानान्तराय कर्म – जिस कर्म के उदय से जीव दान देने की इच्छा करता हुआ भी दान नहीं दे पाता वह दानान्तराय कर्म है ।

दायक दोष – जो मदिरापान आदि व्यसन करता हो , रोगी हो, अतिबाल या अतिवृद्ध हो, अशुद्ध हो , ऐसा अयोग्य दाता यदि साधु को आहार देता है तो यह दायक नाम का दोष है ।

दिगम्बर साधु – जो वस्त्र आभूषण आदि समस्त परिग्रह का त्याग करके बालकवत्‌निर्विकार निर्ग्रंथ रुप धारण करते हैं और इन्द्रिय – विजयी होते हैं वे दिगम्बर साधु कहलाते हैं ।

दिग्व्रत – जीवन-पर्यंत दशो दिशाओं की सीमा करके ‘मैं इससे बाहर नही जाऊँगा’ – ऐसा संकल्प करना दिग्व्रत कहलाता है ।

दिव्यध्वनि – केवलज्ञान होते ही अर्हन्त भगवान् के मुख से जो सब जीवों का कल्याण करने वाली ओंकार रुप वाणी खिरती है उसे दिव्यध्वनी कहते हैं । यह सर्वभाषाओं से युक्त होती है और मनुष्य , तिर्यंच आदि सभी की भाषा में सुनाई देती है । तीर्थंकर के समवसरण में सुबह, दोपहर, शाम और अर्धरात्रि के समय छ-छ घड़ी तक दिव्य ध्वनि खिरती है । इसके अतिरिक्त गणधर, इन्द्र या चक्रवर्ती आदि के द्वारा प्रश्न पूछे जाने पर शेष समयो में भी दिव्यध्वनि खिरती है।

दीक्षा-कल्याणक – तीर्थंकर की दीक्षा के अवसर पार होने वाला उत्सव दीक्षा या तप कल्याणक कहलाता है । तीर्थंकरों को वेराग्य उत्पन्न होते ही लोकान्तिक देव आकर उनके वेराग्य की प्रशंसा करते हैं। इन्द्र उनका अभिषेक करके उन्हे वस्त्राभूषण से अलंकृत करता है। कुबेर द्वारा निर्मित पालकी में भगवान् स्वयं बैठ जाते हैं । इस पालकी को पहले तो मनुष्य कंधो पर लेकर कुछ दूर पृथिवि पर चलते हैं फिर देव उसे आकाश मार्ग से ले जाते हैं । तपोवन में पहुँचकर समस्त वस्त्राभूषणों को त्यागकर तीर्थंकर केशलुचन करके दिगम्बर मुद्रा धारण कर लेते हैं । इन्द्र केशो को एक मणिमय पिटारे में रखकर क्षीरसागर में विसर्जित करता है । ‘नमः सिद्धेभ्य ’ कहकर तीर्थंकर स्वयं दीक्षा ले लेते हैं, वे स्वयं जगद्‌गुरु हैं । अपना नियम पूरा होने पर वे आहार-चर्या के लिए नगर में जाते हैं और विधिपूर्वक आहार लेते हैं, आहार देने वाले दाता के घर मे रत्नवृष्टि आदि पंच-आश्चर्य होते हैं ।

दीप्त-तप-ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से निरंतर उपवास करने पर भी साधु के शरीर की दीप्ति बढ़ती ही जाती है वह दीप्त तप ऋद्धि कहलाती है ।

दुर्भग-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव रुपादि गुणों से युक्त होकर भी अप्रीतिकर लगता है उसे दुर्भग-नामकर्म कहते हैं ।

दु:ख – पीड़ा रुप आत्मा का परिणाम ही दुःख है । दुःख चार प्रकार का है – भूख, प्यास आदि से उत्पन्न स्वाभाविक दुःख , सर्दी गर्मी आदि से उत्पन्न नैमित्तिक दुःख , रोगादि से उत्पन्न शारीरिक दु:ख तथा वियोग आदि से उत्पन्न मानसिक दु:ख ।

दु:श्रुति – जिन शास्त्रों या पुस्तकों में हंसी -मज़ाक, काम भोग आदि मन को कलुषित करने वाली बातों का वर्णन किया गया हो उनको पढ़ना या सुनना अथवा दूसरे के दोषों की चर्चा करना या सुनना दु: श्रुति नाम का अनर्घदण्ड है ।

दुषमा-दुषमा – मुनि,आर्यिका, एक श्रावक और एक श्राविका शेष रह जाते हैं । प्रथम ग्रास मागे जाने पर मुनिराज अन्तराय मानकर निराहार रह जाते हैं और अवधिज्ञान के द्वारा पंचमकाल का अंत जानकर चारों जीव समाधि पूर्वक देह का त्याग कर देते हैं । इस तरह पंचमकाल पूर्ण होता है । उत्सर्पिणी के इस द्वितीय काल के प्रारंभ में मनुष्यों की आयु बीस वर्ष और ऊँचाई साढ़े तीन हाथ होती है, जो क्रम से उत्तरोत्तर बढ़ती जाती है । इक्कीस हज़ार वर्ष प्रमाण इस द्वितीय काल के एक हज़ार वर्ष शेष रहने पर कुलकरों की उत्पत्ति होने लगती है । कुलकर मनुष्यों को अग्नि जलाने, अन्न पकाने आदि की प्रक्रिया सिखाते हैं और अंतिम कुलकर के समय में विवाह आदि की पद्धति भी प्रचलित हो जाती है ।अवसर्पिणी के छठवे और उत्सर्पिणी के प्रथम काल का नाम दुषमा-दुषमा है । अवसर्पिणी के इस छठे काल में मनुष्यों की अधिकतम आयु बीस वर्ष और ऊँचाई साढ़े तीन हाथ रहती है । मनुष्यों का नैतिक पतन होने से वे पशुवत्‌आचरण करने लगते हैअ । मनुष्य नग्न अवस्था में वनों में घूमते हुए अत्यन्त दीन-हीन, दरिद्र और पीड़ित जीवन जीते हैं । इनकी आयु, बल, ऊँचाई आदि सभी क्रमशः हीन-हीन होते जाते हैं । इस छ्ठे काल के अंत में अर्थात्‌उनचास दिन कम इक्कीस हज़ार वर्ष बीत जाने पर अत्यन्त भयानक प्रलय आती है । अत्यन्त शीतल जल, क्षार जल, विष, धुआं, धूलि, वज्र और अग्नि – ऐसी सात प्रकार की वृष्टि सात-सात दिन तक होने से यह प्रलय का क्रम उनचास दिन तक लगातार चलता है । इस प्रलय के समय विजयार्ध की गुफाओं में जो बहत्तर कुलों में उत्पन्न दीन-हीन स्त्री-पुरुष तथा कुछ तिर्यंच जीव शेष बच जाते हैं उनकी ऊँचाई मात्र एक हाथ और पंद्रह – सोलह वर्ष होती है । उत्सर्पिणी के इस प्रथम काल के प्रारम्भ में जल, दूध, अमृत, रस आदि सात प्रकार के सुखदायी मेघों की वृष्टि सात-सात दिन तक होने से उनचास दिन में सारी पृथिवी शीतल और लता गुल्म आदि से समृद्ध हो जाती है । शीतल सुगंध का अनुभव होने से मनुष्य और तिर्यंच गुफाओं से बाहर निकल आते हैं और वृक्षों के मुल, फल , पत्ते आदि खाकर जीवन-यापन करने लगते है। आयु, बल, तेज आदि उत्तरोत्तर बढ़ते जाते हैं । इस काल का प्रमाण इक्कीस हज़ार वर्ष है ।

दुषमा-सुषमा – अवसर्पिणी के चतुर्थकाल और उत्सर्पिणी के तृतीय काल का नाम दुषमा-सुषमा है । अवसर्पिणी के इस चतुर्थकाल में मनुष्य असि, मसि, कृषि, विद्या, वाणिज्य और शिल्प – इन षट्‌कर्मों के द्वारा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं । मनुष्यों की अधिकतम आयु एक पूर्व कोटि और ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण होती है । इस काल में धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने वाले तीर्थंकर और अन्य महापुरुष जन्म लेते है । उत्सर्पिणी क इस तृतीय काल के प्रारंभ में मनुष्यों की आयु एक सौ बीस वर्ष और ऊँचाई सात हाथ होती है । मनुष्य मर्यादा, विनय, लज्जा आदि श्रेष्ठ गुणों से संपन्न होते हैं । इस काल में शेष सभी बातें अवसर्पिणी के चतुर्थकाल के समान होती हैं । विशेषता यह है कि मनुष्यों की आयु, बल, तेज आदि उत्तोत्तर बढ़ते जाते हैं।

देवमूढ़्ता – वरदान पाने की आशा से रागी-द्वेषी देवी-देवताओं को सच्चे देव मानकर पूजा-अर्चना करना देवमूढ़ता है ।

देवर्षि – आकाशगमन ऋद्धि से सम्पन्न साधु को देवर्षि कहते हैं । काम सेवन से रहित होने के कारण लोकान्तिक-देव भी देवर्षि कहलाते हैं ।

देवावर्णवाद – ‘स्वर्गलोक में रहने वाले देवी-देवता सुरापान करते हैं और मांस खाते है’ – इस प्रकार देवगति के देवों पर मिथ्या आरोप लगाना यह देवावर्णवाद हैं ।

देशना-लब्धि – समीचीन धर्म का उपदेश देना देशना है । देशना देनेवाले आचार्य आदि की प्राप्ति होना तथा उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण और विचारण की सामर्थ्य प्राप्त होना देशना-लब्धि कहलाती है ।

देशव्रत – श्रावक के द्वारा दिग्व्रत में जो आवागमन की सीमा की जाती है उसमें भी प्रतिदिन या चार माह आदि के लिए आवागमन की सीमा कम कर लेना देशव्रत कहलाता है ।

देशसत्य – नियत समय के लिए जो वचन अलग-अलग प्रान्त, नगर या ग्राम आदि में प्रचलित होता है या विभिन्न भाषाओं में बोला जाता है उसे देशसत्य कहते हैं । जैसे – भात को चोरु, कूल, भक्त आदि कहा जाता है ।

द्रव्य – गुण और पर्याय के समूह को द्रव्य कहते हैं या जो उत्पाद व्यय और ध्रोव्य से युक्त है उसे द्रव्य कहते हैं । द्रव्य छह हैं – जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ।

द्रव्य-कर्म – जीव के शुभा- शुभ भावों के निमित्त से बंधन वाले सूक्ष्म पुद्गल स्कन्धों को द्रव्य-कर्म कहते हैं । ये आठ प्रकार के हैं – ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, आयु , नाम, गोत्र और अन्तराय ।

द्रव्यत्व – जिसके द्वारा द्रव्य का द्रव्यपना अर्थात्‌एक पर्याय से दूसरी पर्याय रुप परिणमन बना रहता है वह द्रव्यत्व-गुण है ।

द्रव्य-निक्षेप – आगामी पर्याय की योग्यता वाले उस पदार्थ को जो उस समय उस पर्याय के अभिमुख हो, द्रव्य कहते हैं । द्रव्य का आगामी या पूर्व पर्याय की अपेक्षा कथन करना द्रव्य-निक्षेप कहलाता है । जैसे- आगे सेठ बनने वाले बालक को सेठ कहना या जो राजा दीक्षित होकर मुनि अवस्था में विद्यमान है, उन्हें अभी भी राजा कह देना ।

द्रव्य-परिवर्तन – द्रव्य-परिवर्तन के दो भेद हैं – नो कर्म द्रव्य-परिवर्तन और कर्म द्रव्य-परिवर्तन । इसे पुद्गल-परिवर्तन भी कहते हैं । नो कर्मद्रव्य-परिवर्तन – किसी एक जीव ने औदारिक, वैक्रियिक या आहारक इन तीनों शरीरो और आहार आदि छह पर्याप्तियों के योग्य पुद्गलों को एक समय में ग्रहण किया फिर वे पुद्गल स्कंध द्वितीयादि समय में निर्जीण जो गये तत्पश्चात्‌अगृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके उस जीव ने छोड़ा, मिश्र परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा और बीच में गृहीत परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ा तत्पश्चात्‌जब उसी जीव के सर्वप्रथम ग्रहण किए गये वे ही परमाणु उसी प्रकार से पुनः नो कर्म (शरीर) के रुप में प्राप्त होते हैं तब यह सब मिलकर एक नो कर्म द्रव्य-परिवर्तन कहलाता है । कर्म द्रव्य-परिवर्तन – संसारी जीव निरन्तर कर्मबंध करता रहता है चूंकि आयुकर्म सदा नहीं बंधता अतः ज्ञानावरणीय आदि शेष सात कर्मों के योग्य पुद्गल स्कंधों को वह प्रति समय ग्रहण करता है और उन्हें भोगकर छोड़ देता है । इस प्रक्रिया में वह अनन्त बार अगृहीत परमाणुओं को ग्रहण करके छोड़ देता है, मिश्र परमाणुओं को अनन्त बार ग्रहण करके छोड़ता है और अनन्त बार गृहीत परमाणुओं को ग्रहण करके छोड़ता है । तत्पश्चात्‌जब उस जीव के द्वारा सर्वप्रथम ग्रहण किए गये वे ही परमाणु उसी प्रकार से पुनः कर्म रुप में परिणत होते हैं तब यह सब मिलकर एक कर्म द्रव्य-परिवर्तन कहलाता है । तात्पर्य यह है कि पुद्गल परिवर्तन रुप संसार में अनेक बार भ्रमण करता हुआ जीव सभी पुद्गलो को क्रम से भोगकर छोड़ता रहता है ।

द्रव्य-पूजा – पंच परमेष्ठी के सम्मुख भक्ति-भाव से गन्ध, पुष्प, धूप व अक्षत आदि श्रेष्ठ अष्ट द्रव्य समर्पित करना द्रव्य-पूजा है ।

द्रव्य-श्रुत – भावश्रुत के आश्रय से उत्पन्न होने वाले वचनात्मक श्रुत को द्रव्य-श्रुत कहा जाता है या अक्षर रुप जिनवाणी को द्रव्य-श्रुत कहते हैं ।

द्रव्य-सामायिक – चेतन-अचेतन द्रव्यों में इष्ट-अनिष्ट रुप विकल्प नहीं करना द्रव्य-सामायिक है ।

द्रव्य-स्तव – शुभ लक्षणों से युक्त चौबीस तीर्थंकरों के शरीर की छवि का कीर्तन करना द्रव्य-स्तव कहलाता है ।

द्रव्यानुयोग – जिसमें मुख्य रुप से जीव-अजीव तत्व का, पुण्य-पाप और बन्ध-मोक्ष का विवेचन किया गया है वह द्रव्यानुयोग है । इस अनुयोग की कथन पद्धति का प्रयोजन यह है कि जो जीव , तत्व के वास्तविक स्वरुप से अपरिचित होने के कारण आपा-पर के भेद विज्ञान से वंचित है वे तत्व को पहचाने और उसका अभ्यास करें, जिससे मोक्षमार्ग में रुचि बढ़े ।

द्रव्यार्थिक – नय – जो पर्याय को गौंण करके द्रव्य को मुख्य रुप से अनुभव करावे वह द्रव्यार्थिक नय है । यह वस्तु को जानने का एक दृष्टिकोण है जिसमें वस्तु के विशेष रुपों से युक्त सामान्य रुप को दृष्टिगत किया जाता है । जैसे – मनुष्य, देव, तिर्यंच आदि विविध रुपों में रहने वाले एक जीव सामान्य को देखना या कहना कि यह सब जीव द्रव्य है ।

द्रव्येन्द्रिय – जो निर्वृत्ति और उपकरण रुप है तथा बाहर दिखाई पड़ती है उसे द्रव्येन्द्रिय कहते हैं । इसमें जो इन्द्रिय के निश्चित आकार आदि की रचना है वह निर्वृत्ति कहलाती है और जो निश्चित आकार है वह निर्वृत्ति है तथा जो सफेद और काला गोलक व पलके हैं वह उपकरण है ।

द्वादशाङ्ग – श्रुत के बारह अङ्ग आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग, स्थानाङ्ग, समवायाङ्ग,व्याख्याप्रज्ञप्ति, ज्ञातृधर्मकथाङ्ग, उपासकाध्ययनाङ्ग,अन्तकृद्दशाङ्ग, अनुत्तरोपपादिक दशाङ्ग, प्रश्नव्याकरणाङ्ग, विंपाकसूत्राङ्ग और दृष्टिप्रवादाङ्ग ही द्वादशाङ्ग हैं । द्रव्यश्रुत रुप द्वादशाङ्ग की रचना गणधर करते हैं । इसे ही जिनवाणी कहते हैं ।

द्वितीयोपशम-सम्यक्त्व – उपशम श्रेणी चढ़ने वाले साधु को क्षयोपशम सम्यग्दर्शन से पुन: जो उपशम-सम्यक्त्व प्राप्त होता है उसे द्वितीयोपशम सम्यग्दर्शन कहते हैं । यह सम्यग्दर्शन अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारो कषायों की विसंयोजना और मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन तीन कर्म प्रकृतियों के उपशम से होता है ।

द्विदल – मूंग, चना, उडद आदि जिस धान्य के दो दल अर्थात्‌दो भाग हो जाते हैं उसे दही या छाछ के साथ मिलाने पर वह द्विदल कहलाता है । इसे अभक्ष्य माना है ।

द्वीन्द्रिय-जीव – जिनके स्पर्शन व रसना – ये दो इन्द्रियां होती हैं वे द्वीन्द्रिय-जीव कहलाते हैं । जैसे – इल्ली, कृमि आदि ।

द्वीप-सागर-प्रज्ञप्ति – जिसमें द्वीप और समुद्रों का प्रमाण तथा द्वीप व समुद्र के अन्तर्भूत अन्य वस्तुओं का भी वर्णन किया गया है वह द्वीप-सागर-प्रज्ञप्ति है ।

द्वेष – अप्रीति या वैरभाव होना द्वेष है । क्रोध , मान, अरति, शोक, जुगुप्सा, भय ये सभी द्वेष के ही विविध रुप हैं ।

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