–ज्ञ–
ज्ञात-भाव – ‘इसे मारना है, या इसे बचाना है’ – इस प्रकार जानबूझकर प्रवृत्ति करना ज्ञात-भाव है ।
ज्ञातृधर्मकथाङ्ग – जिसमें अनेक आख्यान और उपाख्यानों का वर्णन है वह ज्ञातृधर्मकथाङ्ग है ।
ज्ञान – जो जानता है वह ज्ञान है या जिसके द्वारा जाना जाए वह ज्ञान है । या जानना मात्र ही ज्ञान है । ज्ञान जीव का विशेष गुण है । सम्यग्दर्शन के सद्भाव में यह सम्यग्ज्ञान कहलाता है और मिथ्यात्व के उदय में यह मिथ्याज्ञान हो जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये पाँच सम्यग्ज्ञान के भेद है । कुमति, कुश्रुत और विभग – अवधिज्ञान ये तीन मिथ्याज्ञान है । इस प्रकार ज्ञानोपयोग के आठ भेद हैं । ज्ञान स्व-पर प्रकाशक होता है ।
ज्ञान-कल्याणक – तीर्थंकरों के केवलज्ञान के अवसर पर होने वाला उत्सव ज्ञान-कल्याणक कहलाता है । इस अवसर पर सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर समवसरण की रचना करता है जिसमे देव, मनुष्य और तिर्यंच जीव एक साथ बैठकर धर्म श्रवण करते हैं । तीर्थंकर भगवान् का विहार बड़ी धूमधाम से होता है । भगवान् के श्रीचरणों में देवगण तत्परता से सुवर्णमय कमलों की रचना करते जाते हैं । आगे-आगे धर्मचक्र चलता है । सारा मार्ग आठ दिव्य मंगल द्रव्यो से शोभित होता रहता है । ऋषि/मुनि भगवान् के पीछे-पीछे चलते हैं । परस्पर विरोध रखने वाले जीव भी विरोध भूल जाते हैं । अत्यन्त सुखद और आत्मीय वातावरण निर्मित हो जाता है ।
ज्ञान-चेतना – केवलज्ञान रुप शुद्ध चेतना को ज्ञान-चेतना कहते हैं ।
ज्ञानदान – धर्म से अनभिज्ञ जीवों के लिए धर्म का उपदेश देना तथा आत्म-ज्ञान के साधन भूत शास्त्रादि सुपात्र को देना ज्ञानदान कहलाता है ।
ज्ञान-प्रवाद – जिसमें मति, श्रुत आदि पाँच ज्ञानों और पाँच इन्द्रियों के विभाग आदि का विस्तृत वर्णन किया गया है वह ज्ञान-प्रवाद नाम का पाँचवा पूर्व है ।
ज्ञान-विनय 1 सम्यग्ज्ञान को अत्यन्त सम्मान-पूर्वक ग्रहण करना, उसका अभ्यास करना और उसका स्मरण रखना ज्ञान-विनय है । 2 ज्ञान में, ज्ञान के उपकरण शास्त्र आदि में एवं ज्ञानवान्पुरुषों में भक्ति और आदर-भाव रखना तथा उनके अनुकूल आचरण करना ज्ञान-विनय है ।