Jain Darshan Dictionary : ज

–ज–

जङ्घाचारण-ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु पृथिवी से चार अंगुल ऊपर आकाश में घुटनो को मोड़े बिना गमन करने में समर्थ होते हैं वह जङ्घाचारण-ऋद्धि कहलाती है ।

जन्तु-वध – साधु के आहार करते समय किसी जीव-जन्तु आदि का घात हो जानें पर जन्तु-वध नाम का अन्तराय होता है ।

जन्म – जीव के नवीन शरीर की उत्पत्ति होना जन्म कहलाता है । जीवों का जन्म तीन प्रकार से होता है- गर्भ-जन्म, सम्मूर्छन-जन्म और उपपाद-जन्म ।

जन्म-कल्याणक – तीर्थंकर के जन्म का उत्सव जन्मकल्याणक कहलाता है । इस अवसर पर सौधर्म इन्द्र आदि सभी इन्द्र व देवगण भगवान् का जन्मोत्सव मनाने बड़ी धूमधाम से पृथिवि पर आते हैं । कुबेर नगर की अद्‌भुत शोभा करता है । सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से इन्द्राणी भगवान् की माता को मायामयी निद्रा में सुलाकर बालक भगवान् को लाती है और इन्द्र की गोद में देती है । ऐरावत हाथी पर भगवान् को लेकर इन्द्र सुमेरु पर्वत की ओर जाता है । वहाँ पहुँचकर पांडुक शिला पर भगवान् को विराजमान करके क्षीर समुद्र से लाए गए जल के द्वारा एक हजार आठ कलशों से अभिषेक करता है फिर बालक भगवान् को दिव्य-वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उत्सव पूर्वक नगर में लौट आता है । इस अवसर पर इन्द्र भक्ति-भाव से नृत्य आदि विभिन्न आश्चर्यजनक लीलाएं करता है ।

जम्बूद्वीप – मनुष्य लोक के ठीक मध्य में एक लाख योजन विस्तार वाला गोलाकार जम्बूद्वीप नाम का द्वीप है । यह जम्बूद्वीप सात क्षेत्रों में विभक्त है । भरत, हेमवत, हरि, विदेह, रम्यक, हेरण्यवत और ऐरावत ये सात क्षेत्र हैं । जम्बूद्वीप के मध्य में एक लाख योजन ऊँचा सुमेरु पर्वत है और जम्बूद्वीप को चारो ओर से घेरे हुए लवण समुद्र नाम का समुद्र है ।

जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति – जम्बूद्वीप में मनुष्य, तिर्यंच आदि का तथा पर्वत, नदी, वेदिका, अकृत्रिम चैत्यालय आदि का वर्णन जिसमें किया गया हो उसे जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति कहते हैं ।

जय-जिनेन्द्र – जैनों में परस्पर विनय और प्रेमभाव प्रकट करने के लिए जय-जिनेन्द्र शब्द बोला जाता है।

जया-वाचना – जिनेन्द्र भगवान् द्वारा कहे गए सिद्धान्त के अर्थ की व्याख्या करना जया-वाचना कहलाती है ।

जरायुज – रक्त और मांस से बने जाल के समान आवरण को जरायु कहते हैं । गर्भ-जन्म लेने वाले जो जीव जरायु सहित उत्पन्न होते हैं वे जरायुज कहलाते हैं ।

जलकाय – जलकायिक जीव से रहित जल जलकाय कहते हैं ।

जलकायिक-जीव – जल ही जिसका शरीर है ऐसे एक इन्द्रिय जीव को जलकायिक जीव कहते हैं।

जलगता-चूलिका – जल में गमन करने और जलस्तम्भन आदि में कारणभूत मंत्र , तंत्र और तपश्र्चरण रुप अतिशय का जिसमें वर्णन होता है उसे जलगता-चूलिका कहते हैं ।

जलगालन – जल को उपयोग में लेने से पहले स्वच्छ सफेद दुहरे छ्न्ने से छानना जलगालन कहलाता है ।

जल-जीव – जो जीव जलकायिक में उत्पन्न होने के लिए विग्रह गति में जा रहा है उसे जल-जीव कहते हैं ।

जल्लौषधि-ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के शरीर पर पसीने के माध्यम से संचित हुई धूल भी औषधि रुप हो जाती है उसे जल्लौषधि-ऋद्धि कहते हैं ।

जाति – माता के वंश को जाति कहते हैं ।

जाति नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पञचेन्द्रिय कहलाता है वह जाति नामकर्म है ।

जातिस्मरण – अपने पूर्व जन्म की किसी घटना विशेष का स्मरण हो आना जाति स्मरण कहलाता है ।

जानुव्यतिक्रम – यदि साधु घुटने के बराबर ऊँचे काष्ठ आदि को लांघ कर आहार के लिए जाए तो यह जानुव्यतिक्रम नाम का अन्तराय है ।

जान्बध-परामर्श – यदि कारणवश साधु आहार के समय घुटने के नीचे हाथ स्पर्श करे तो यह जान्ब्ध परामर्श नाम का अन्तराय है ।

जिन- जिन्होंने काम, क्रोध, मोह आदि विकारो को जीत लिया है वे जिन कहलाते हैं । जिन दो प्रकार के हैं – सकल जिन और देश जिन । आचार्य, उपाध्याय और साधु देश जिन है तथा अर्हन्त और सिद्ध भगवान् सकल जिन हैं ।

जिनकल्पी – जिन्होंने राग, द्वेष और मोह को जीत लिया है जो उपसर्ग व परीषह को समता पूर्वक सहन करते है और जो जिनेन्द्र भगवान् के समान विहार आदि चर्या करते हैं ऐसे उत्त्म सहनन और सामायिक चारित्र के धारी महामुनि जिनकल्पी कहलाते हैं ।

जिनबिंब – जिनेन्द्र भगवान् की निरावरित , निर्विकार/ वीतराग प्रतिमा को जिनबिंब कहते हैं ।

जिनलिंग – जिनेन्द्र भगवान् के समान अंतरंग में वीतरागता और बाह्‌य में परिग्रह से रहित निर्विकार यथाजात बालकचवत् रुप धारण करना जिनलिंग या जिनमुद्रा कहलाती है ।

जिनवाणी – सब जीवों के हित का उपदेश देने वाली श्री अर्हन्त भगवान् की वाणी ही जिनवाणी कहलाती है । तत्व का स्वरुप बताने वाली यह जिनवाणी द्वादशांग रुप होती है ।

जिनालय – देखिए – चैत्यालय ।

जीव – जो जानता – देखता है उसे जीव कहते हैं । या जिसमें चेतना है वह जीव है । जीव दो प्रकार के हैं – संसारी जीव और मुक्त जीव । जो जीव संसार में निरंतर जन्म-मरण का दुःख भोग रहे हैं वे संसारी जीव हैं । जो जीव अपने आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होकर संसार से पार हो जाते हैं वे मुक्त जीव कहलाते हैं ।

जीवविपाकी – जिन कर्मों का विपाक अर्थात्‌फल मुख्यतः जीव में होता है वे जीव विपाकी कर्म कहलाते हैं । इन कर्मों के उदय से जीव के ज्ञान-दर्शन आदि गुण ढ़क जाते हैं ।

जीव-समास – जीव और उनके भेद-प्रभेदों का जिसमें संग्रह किया जाए उसे-जीव समास कहते हैं। चौदह जीव-समास प्रसिद्ध है – एकेन्द्रिय वादर व सूक्ष्म ( पर्याप्त-अपर्याप्त), द्वीन्द्रिय ( पर्याप्त-अपर्याप्त), त्रीन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त), चतुरिन्द्रिय (पर्याप्त-अपर्याप्त) एवं पंचेन्द्रिय – संज्ञी व असंज्ञी (पर्याप्त-अपर्याप्त) ।

जीव-सपात – आहार करते समय यदि साधु के दोनों पैरो के बीच में कोई जीव गिर जाए तो यह जीव-सपात नाम का अन्तराय है ।

जीवानी – जल छानने के पश्चात्‌शेष बचे जल को सावधानी-पूर्वक उसी जलाशय में डालना यह जीवानी कहलाती है ।

जुगुप्सा – घृणा या ग्लानि होना जुगुप्सा हैं । जिस कर्म के उदय से अपने दोषों को ढ़कने और दूसरे के दोषों को प्रकट करने का भाव उत्पन्न होता है या दूसरे के प्रति घृणा होती है वह जुगुप्सा नामक नो-कषाय है ।

जुहार – परस्पर नमस्कार करने के लिए जुहार शब्द का प्रयोग किया जाता है । जुहार शब्द का अर्थ है युग के प्रारंभ में सर्व संकटो को हरने वाले और सब जीवों की रक्षा करने वाले भगवान् ऋषभदेव को प्रणाम हो ।

जैन – जिन्होने काम, क्रोध, मोह आदि विकारो को जीत लिया है वे जिन या जिनेन्द्र कहलाते है। जिनेन्द्र भगवान् के उपासक को जैन कहते हैं ।

जैनदर्शन – जिसके द्वारा जीवन का और जीवन के विकास का ज्ञान प्राप्त किया जाए उसे दर्शन कहते हैं । जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा प्रतिपादित दर्शन ही जैनदर्शन है । जैनदर्शन आत्मा, परमात्मा और पुनर्जन्म में विश्वास करता है । जैनदर्शन के अनुसार आत्मा की परम-विशुद्ध अवस्था ही परमात्मा है जिसे प्रत्येक आत्मा अपने आत्म-पुरुषार्थ के द्वारा प्राप्त कर सकता है ।

जैनाचार – जिनेन्द्र भगवान् के द्वारा जो श्रावक और साधु के योग्य आचरण का उपदेश दिया गया है वह जैनाचार का मूल आधार अहिंसा है ।

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