–छ —
छ्द्मस्थ – ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय को छद्म कहते हैं । उसमें जो रहते हैं उन्हे छद्मस्थ कहते हैं । आशय यह है कि जो जीव ज्ञानावरणीय एवं दर्शनावरणीय आदि घातिया कर्मॊं से युक्त हैं वे छद्मस्थ कहलाते हैं । केवलज्ञान होने से पूर्व सभी जीव छ्द्मस्थ या संसारस्थ हैं ।
छर्दि – आहार के समय यदि साधु को वमन हो जाए तो यह छर्दि नाम का अन्तराय है ।
छाया – प्रकाश के आवरण रुप शरीरादि की जो परछाई पड़ती है उसका नाम छाया है । छाया दो प्रकार की है – दर्पण में बने प्रतिबिंब रुप और रंगो से निर्मित आकृति या चित्र रुप ।
छिन्न-निमित्त – किसी के द्वारा छेदे गये वस्त्र, शस्त्र आदि को देखकर तथा खण्डित भवन, नगर एव देश आदि को देखकर शुभ-अशुभ एवं सुख-दुखादि को जान लेना छिन्न-निमित्त ज्ञान कहलाता है ।
छेद – पूर्व दीक्षा को छेदना अर्थात्दीक्षा को एक दिन, एक पक्ष, एक महीना आदि कम कर देना छेद नाम का प्रायश्चित है । जो साधु व्रतों में बार-बार दोष लगाता है तथा सामर्थ्यवान और अभिमानी है उसे छेद-प्रायश्चित दिया जाता है ।
छेदोपस्थापना-चारित्र – 1 प्रमादवश व्रतों में दोष लग जाने पर प्रायश्चित आदि द्वारा उसका शोधन करके पुनः व्रतों में स्थिर होना छेदोपस्थापना चारित्र है । २ निर्विकल्प साम्य अवस्था में अधिक समय न रह पाने पर साधक विकल्प रुप अर्थात्भेद रुप मूलगुणों का आलम्बन लेता है यही छेदोपस्थापना-चारित्र है।