Jain Darshan Dictionary : ग

–ग–

गंगा नदी – चौदह महानदियों में प्रथम नदी । यह हिमवान्‌पर्वत पर पद्म-सरोवर के पूर्व द्वार से निकली है । इसके उद्‌गम स्थान का विस्तार छह योजन और एक कोस तथा गहराई आधा कोस है । यह अपने उद्‌गम से पाँच सौ योजन पूर्व दिशा की ओर बहकर गंगाकूट से लौटती हुई दक्षिण की ओर भरत क्षेत्र में आयी है । अंत में यह चौदह हजार सहायक नदियों के साथ पूर्व -लवण -समुद्र में प्रवेश करती है । इसे जाह्न्वी, व्योमापगा, आकाशगंगा, त्रिमार्गा और मंदाकिनी भी कहते हैं ।

गण – दो या तीन चिरदीक्षित साधुओं के समूह को गण कहते हैं ।

गणधर – जो तीर्थंकर के पादमूल में समस्त ऋद्धियां प्राप्त करके भगवान् की दिव्यध्वनि को धारण करने में समर्थ हैं और लोक-कल्याण के लिए उस वाणी का सार द्वादशांग श्रुत के रुप में जगत को प्रदान करते हैं, ऐसे महामुनीश्वर ‘गणधर’ कहलाते हैं । प्राप्त ऋद्धियों के बल से गणधर आहार, नीहार, निद्रा, आलस्य आदि से सर्वथा मुक्त हैं अतः चौबीस घंटे निरंतर भगवान् की वाणी हृदयगम करने में सलग्न रहते हैं । ये तद्‌भव मोक्षगामी होते हैं ।

गति-नामकर्म – जिस कर्म के उदय से जीव मनुष्य, तिर्यंच, देव व नारकीपने को प्राप्त करता है । मनुष्यगति, तिर्यंचगति, देवगति व नरकगति – ये चार गतियां है।

गन्ध-नामकर्म – जिस नामकर्म के उदय से जीव के शरीर में अपनी जाति के अनुरुप गंध उत्पन्न होती है उसे गंध-नामकर्म कहते हैं । यह दो प्रकार का है – सुरभि-गंध और दुरभि-गंध नामकर्म ।

गन्धकुटी – समवसरण में तीर्थंकर भगवान् के बैठने का स्थान गंधकुटी कहलाता है । इसके मध्य में अत्यंत मनोहर सिंहासन होता है । जिस पर स्थित कमल के ऊपर भगवान् अंतरिक्ष में विराजमान होते हैं ।

गरिमा-ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से वज्र से भी गुरुतर अर्थात्‌भारी शरीर बनाया जा सके उसे गरिमा-ऋद्धि कहते हैं ।

गर्तपूरण-वृत्ति – जिस किसी भी प्रकार से गड्ढ़ा भरने की तरह साधु स्वादिष्ट या अस्वादिष्ट अन्न जल के द्वारा पेट रुपी गड्ढ़े को भर देते हैं, इसलिए साधु की यह आहार चर्या गर्तपूरण या स्वभ्रभरण – वृत्ति कहलाती है ।

गर्भकल्याणक – तीर्थंकरों के गर्भ में आने पर होने वाला एक उत्सव । इस अवसर पर इन्द्र आकर तीर्थंकर के माता-पिता को भक्ति पूर्वक सिंहासन पर बैठाकर उनका अभिषेक-सम्मान आदि करते हैं और तीर्थंकर का स्मरण कर तीन प्रदक्षिणा देते हैं ।

गर्भजन्म – माता के उदर में रज और वीर्य के परस्पर मिश्रण को गर्भ कहते हैं । इस गर्भ को ही शरीर रुप से ग्रहण करके जीवों का उत्पन्न होना गर्भजन्म हैं । जरायुज, अण्डज और पोतज ये तीन गर्भजन्म के भेद हैं । गर्भजन्म मनुष्य और तिर्यंच के ही होता है ।

गर्हा – गुरु के समक्ष अपने दोष प्रकट करना गर्हा कहलाती है ।

गारव – गर्व या बड़प्पन को गारव कहते हैं । यह तीन प्रकार का है – ऋद्धि-गारव, सात-गारव या रस-गारव ।

गिरिनार – गुजरात प्रान्त के जूनागढ़ में स्थित एक पर्वत जहाँ तीर्थंकर नेमिनाथ ने दीक्षा ग्रहण करके क्रमशः केवलज्ञान तथा मोक्ष प्राप्त किया । इसका दूसरा नाम उर्जयन्तगिरि भी है ।

गुण – जो एक द्रव्य को दूसरे द्रव्य से पृथक्‌करता है उसे गुण कहते हैं । गुण सदा द्रव्य के आश्रित रहते हैं अर्थात्‌द्रव्य की प्रत्येक अवस्था में उसके साथ रहते हैं । प्रत्येक द्रव्य में अनेक गुण होते हैं । कुछ साधारण या सामान्य गुण होते हैं और कुछ असाधारण या विशेष गुण । अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व, प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व- ये सभी द्रव्यो में पाए जाने वाले सामान्य गुण हैं । चेतना, ज्ञान, दर्शन आदि जीव के विशेष गुण हैं तथा रुप, रस, गंध, स्पर्श आदि पुद्‌गल के विशेष गुण हैं । गति हेतुत्व, स्थिति हेतुत्व, वर्तना हेतुत्व और अवगाहनत्व – ये कमशः धर्म, अधर्म, काल और आकाश के विशेष गुण हैं ।

गुणप्रत्यय – सम्यग्दर्शन से युक्त अणुव्रत और महाव्रत रुप गुन जिस अवधिज्ञान की उत्पत्ति में प्रमुख है वह गुण-प्रत्यय-अवधिज्ञान कहलाता है । मनुष्य और तिर्यंचों के गुण-प्रत्यय-अवधिज्ञान ही संभव है ।

गुणव्रत – जो गुणों को बढ़ाने वाले व्रत हैं वे गुणव्रत कहलाते हैं या जो अणुव्रतों का उपकार करते हैं उन्हे गुणव्रत कहते हैं । दिग्व्रत, देशव्रत और अनर्थ दण्डव्रत – ये तीन गुणव्रत हैं ।

गुणश्रेणी-निर्जरा – जब कर्मों की निर्जरा प्रति समय क्रमशः असंख्यात-गुणी-असंख्यात-गुणी हो तो गुणश्रेणी- निर्जरा कहते हैं

गुणस्थान – मोह और योग के माध्यम से जीव के परिणामों मे होने वाले उतार-चढ़ाव को गुणस्थान कहते हैं । जीवों के परिणाम यद्यपि अनन्त हैं परन्तु उन सभी को चौदह श्रेणियों में विभाजित किया गया है । चौदह गुणस्थानो के नाम इस प्रकार हैं – मिथ्यादृष्टि, सासादन-सम्यग्दृष्टि, सम्यग्‌मिथ्यादृष्टि, अविरत-सम्यग्दृष्टि, सयतासयत, प्रमत्त-संयम, अप्रमत्त-संयत, अपूर्वकरण-शुद्धि-संयत, अनिवृत्तिकरण-शुद्धि-संयत, सूक्ष्म-साम्पराय-शुद्धि-संयत, उपशान्त-कषाय-वीतराग-छ्द्मस्थ, क्षीणकषाय-वीतराग-छ्द्मस्थ, संयोग-केवली-जिन और अयोग-केवली-जिन ।

गुप्ति – संसार के कारणभूत रागादि से जो आत्मा की रक्षा करें उसे गुप्ति कहते हैं । अथवा सम्यक्‌प्रकार से योगो का निग्रह करना गुप्ति है । अथवा मन, वचन, काय की स्वच्छद प्रवृत्ति को रोकना गुप्ति है । मनोगुप्ति, वचनगुप्ति और कायगुप्ति ये तीन गुप्ति हैं ।

गुरु – गुरु शब्द का अर्थ महान हैं । लोक में अध्यापक व माता पिता को गुरु कहते हैं । मोक्षमार्ग में आचार्य, उपाध्याय और साधु ये तीन गुरु हैं । अर्हन्त भगवान् त्रिलोक गुरु हैं । शिष्यों को जिनदीक्षा या प्रव्रज्या देने वाले आचार्य को दीक्षा-गुरु कहते हैं । जो प्रायश्चित आदि देकर शिष्य को दोष-मुक्त करते हैं और वैराग्यजनक परमागम द्वारा शिष्य का पोषण करते हैं वे निर्यापक कहलाते हैं । उन्हे शिक्षा-गुरु या श्रुत-गुरु भी कहते हैं ।

गुरुमूढता – हिंसादिपाप-क्रियाओं में और आरम्भ-परिग्रह में लिप्त रहने वाले साधुओं को गुरु मानकर उनकी भक्ति, वंदना, प्रशंसा आदि करना गुरुमूढ़ता है । इसे समय-मूढ़ता भी कहते हैं ।

गुरुपास्ति – आचार्य आदि वीतरागी गुरुओं की पूजा करना तथा उनकी सेवा में सदा तत्पर रहना गुरुपास्ति है ।

गृहीत-मिथ्यात्व – दूसरे के द्वारा मिथ्या उपदेश सुनकर जीवादि पदार्थों के विषय में जो अश्रद्धान रुप भाव उत्पन्न होता है उसे गृहीत-मिथ्यात्व कहते हैं ।

गोचरी – गृहस्वामी के द्वारा लायी गई घास को खाते समय जैसे गाय घास को ही देखती है लाने वाले के रुप या स्थान की सजावट आदि को नहीं देखती उसी प्रकार साधु भी आहार देने वाले के रंग-रुप, गरीबी-अमीरी आदि को न देखते हुए आहार ग्रहण कर लेते हैं इसलिए साधु की आहारचर्या गोचरी-वृत्ति कहलाती है ।

गोत्र कर्म – 1 जिस कर्म के उदय से जीव उच्च और नीच कहा जाता है या उच्च नीच कुल में उत्पन्न होता है वह गोत्र-कर्म है । इसके दो भेद हैं- उच्च गोत्र और नीच-गोत्र ।

ग्रामदाह – जिस ग्राम में साधु आहार के लिए गए हैं यदि वहाँ अग्नि आदि का प्रकोप हो जाए तो यह ग्रामदाह नाम का अन्तराय है ।

ग्रैवेयक – वैमानिक देवो के जो विमान पुरुष की ग्रीवा के समान हैं या जो लोक के ग्रीवा में स्थित हैं वे ग्रैवेयक विमान कहलाते हैं ।

ग्लान – जिनका शरीर रोग आदि से पीड़ित हो उस साधु को ग्लान कहते हैं ।

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