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क्षपक – क्षपक श्रेणी पर चढ़ने वाला जीव चारित्र मोहनीय का अन्तरकरण कर लेने पर क्षपक कहलाता है । क्षपक दो प्रकार के हैं – अपूर्वकरण-क्षपक और अनिवृत्तिकरण-क्षपक ।
क्षपक-श्रेणी – मोहनीय कर्म का क्षय करता हुआ साधु जिस श्रेणी अर्थात्अपूर्वकरण, अनिवृत्तिकरण, सूक्ष्म-साम्पराय और क्षीण-मोह नामक आठवे , नौंवे, दसवे और बारहवे – इन चार गुण स्थानो रुप सीढ़ी पर आरुढ़ होता है उसे क्षपक-श्रेणी कहते हैं ।
क्षमा-धर्म – क्रोध उत्पन्न कराने वाले कारण मिलने पर भी जो थोड़ा भी क्रोध नहीं करता उसके यह क्षमाधर्म है । अथवा क्रोध का अभाव होना ही क्षमा है ।
क्षय – क्षय का अर्थ है नष्ट होना । जैसे फिटकरी आदि मिलाने पर स्वच्छ हुए जल को दूसरे साफ बर्तन में बदल देने पर कीचड़ का अत्यन्त अभाव हो जाता है ऐसे ही कर्मों का आत्मा से सर्वथा दूर हो जाना क्षय है ।
क्षयोपशम – जैसे कोदो को धोने से कुछ कोदो की मादकता नष्ट हो जाती है कुछ बनी रहती है इसी तरह परिणामों की निर्मलता से कर्मों के एकदेश का क्षय और एकदेश का उपशम होना क्षयोपशम कहलाता है । यद्यपी इस अवस्था में कुछ कर्मों का उदय भी विद्यमान रहता है परन्तु उसकी शक्ति अत्यंत क्षीण हो जाने के कारण वह जीव के गुणों को घातने में समर्थ नहीं होता । इसीलिए कर्मॊं का उदय होते हुए भी जो जीव के गुण का अंश उपलब्ध रहता है उसे क्षयोपशम कहते हैं ।
क्षयोपशम-लब्धि – ज्ञानावरणीय कर्म के एकदेश क्षय होने को क्षयोपशम कहते हैं । क्षयोपशम होने पर आत्मा में जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे क्षयोपशम -लब्धि कहते हैं ।
क्षायिक-उपभोग – उपभोगान्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से आत्मा के अनन्त उपभोग होता है । इसे क्षायिक -उपभोग भी कहते हैं । इसके फलस्वरुप अर्हन्त अवस्था सिंहासन, छत्र, चमर आदि रुप विभूतियां प्राप्त होती हैं ।
क्षायिक-भोग – भोगान्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से आत्मा के अनन्त-भोग या क्षायिक-भोग का प्रादुर्भाव होता है । जिसके फलस्वरुप अर्हन्त अवस्था में पुष्प-वृष्टि आदि अतिशय होते हैं ।
क्षायिक-दान – दानान्तराय कर्म के नष्ट हो जाने से आत्मा में अनन्त क्षायिक दान प्रगट होता है जिसके फलस्वरुप अनन्त जीवों का उपकार करने कि सामर्थ्य होती है ।
क्षायिक-चारित्र – चारित्र मोहनीय के क्षय से उत्पन्न होने वाले वीतराग परम यथाख्यात चारित्र को क्षायिक-चारित्र कहते हैं ।
क्षायिक-ज्ञान – ज्ञानावरण-कर्म के क्षय से उत्पन्न होने वाले अनन्त ज्ञान को क्षायिक-ज्ञान कहते हैं । इसे केवलज्ञान भी कहते हैं ।
क्षायिक-भाव – जो कर्मों के क्षय से उत्पन्न होता है वह क्षायिक-भाव कहलाता है । क्षायिक भाव के नो भेद हैं – क्षायिक-ज्ञान, क्षायिक-दर्शन, क्षायिक-दान, क्षायिक-भोग, क्षायिक-उपभोग, क्षायिक-वीर्य, क्षायिक-सम्यक्त्व और क्षायिक-चारित्र ।
क्षायिक-लाभ – लाभान्तराय कर्म के क्षय से आत्मा में अनन्त लाभ या क्षायिक-लाभ का प्रादुर्भाव होता है जिसके फलस्वरुप अर्हन्त अवस्था मे शरीर के योग्य अत्यंत शुभ, सूक्ष्म और असाधारण पुद्गल स्कंध प्रति समय प्राप्त होते रहते हैं ।
क्षायिक-वीर्य – वीर्यान्तराय कर्म के क्षय से आत्मा में अनन्त वीर्य या क्षायिक वीर्य का प्रादुर्भाव होता है जिसके फलस्वरुप केवली भगवान् को चराचर अनन्त पदार्थों को जानने की सामर्थ्य प्राप्त होती है ।
क्षायिक-सम्यक्त्व – अनन्तानुबंधी क्रोध-मान-माया-लोभ तथा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व इन सात कर्म प्रकृतियो का क्षय होने से आत्मा में जो निर्मल श्रद्धान उत्पन्न होता है उसे क्षायिक-सम्यक्त्व या क्षायिक-सम्यग्दर्शन कहते हैं ।
क्षायोपशमिक-चारित्र – चारित्र-मोहनीय कर्म के क्षयोपशम से आत्मा में जो विषय-कषाय से निवृत्ति और व्रतादिक में प्रवृत्ति रुप परिणाम उत्पन्न होता है उसे क्षायोपशमिक-चारित्र कहते हैं ।
क्षायोपशमिक-ज्ञान – मतिज्ञानावरणादि अपने-अपने आवरणी कर्मॊं के क्षयोपशम से उत्पन्न होने वाले मति, श्रुत, अवधि और मन पर्यय इन चार ज्ञानो को क्षयोपशमिक-ज्ञान कहते हैं ।
क्षायोपशमिक-भाव – जो कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है वह क्षायोपशमिक-भाव है । क्षायोपशमिक भाव के अठारह भेद हैं – मतिज्ञान आदि चार ज्ञान, कुमति आदि तीन अज्ञान, चक्षुदर्शन आदि तीन दर्शन, दान आदि पाँच लब्धि, सम्यक्त्व, चारित्र और सयंमा संयम ।
क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व – अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ तथा मिथ्यात्व और सम्यक्मिथ्यात्व इन छह प्रकृतियो के उदयाभावी क्षय और उन्हीं के सदवस्थारुप उपशम से तथा सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले तत्त्वार्थ -श्रद्धान को क्षायोपशमिक-सम्यक्त्व कहते हैं ।
क्षितिशयन-व्रत – जीवन पर्यंत प्रासुक भूमि पर या तृणादि से बने सस्तर पर किसी एक करवट से शयन करने की प्रतिज्ञा लेना क्षितिशयन-व्रत कहलाता है । यह मुनियों का एक मूलगुण है ।
क्षिप्र-अवग्रह – वस्तु को शीघ्रता पूर्वक अर्थात्जल्दी से जान लेना क्षिप्र – अवग्रह कहलाता है ।
क्षीण-कषाय – मोहनीय कर्म का क्षय करने वाले बारहवे गुणस्थानवर्ती निर्ग्रंथ वीतराग साधु को क्षीण-कषाय-वीतराग-छ्द्यस्थ कहते हैं ।
क्षीरस्रावी ऋद्धि – जिस ऋद्धि के प्रभाव से साधु के हाथ में दिया गया रुखा – सूखा आहार तत्काल दूध के समान हो जाता है या जिसके प्रभाव से साधु के वचन सुनने मात्र से मनुष्य और तिर्यंचों के दुखादि शांत हो जाते है उसे क्षीरस्रावी – ऋद्धि कहते हैं।
क्षुद्रभव – एक अन्तर्मुहूँ र्त में लब्ध्यपर्याप्तक जीव के जितने भव होते हैं वे क्षुद्रभव कहलाते हैं । एकेन्द्रिय के क्षुद्रभव ६६१३२, दो, तीन व चार इन्द्रिय के १८०, पंचेन्द्रिय के २४ इस प्रकार कुल ६६३३६ क्षुद्रभव एक अंतर्मुहूँ र्त में हो सकते हैं ।
क्षुधा-परिषह-जय – जो साधु आहार नहीं मिलने पर या अन्तराय हो जाने पर उत्पन्न होने वाली क्षुधा अर्थात्भूख की वेदना को समता पूर्वक सहन करता है, उसके क्षुधा-परिषह-जय होता है ।
क्षुल्लक – जो श्रावक की समस्त ग्यारह प्रतिमाओं का पालन करते हैं, शरीर पर एक चादर और एक कोपीन रुप वस्त्र धारण करते हैं और दिन में एक बार बैठकर थाली या कटोरे में गृहस्थ के द्वारा दिया गया प्रासुक आहार लेते हैं वे क्षुल्लक कहलाते हैं ।
क्षेत्र – वर्तमान काल संबंधी निवास का नाम क्षेत्र है । किस गुणस्थान या मार्गणा स्थान वाले जीव इस लोक में कहाँ और कितने भाग में पाए जाते हैं यह जानकारी क्षेत्र के द्वारा मिलती है ।
क्षेत्र-परिवर्तन – क्षेत्र परिवर्तन के दो भेद हैं – स्वक्षेत्र परिवर्तन और परक्षेत्र परिवर्तन । स्वक्षेत्र परिवर्तन – कोई जीव सूक्ष्म निगोदिया की जघन्य अवगाहना से उत्पन्न हुआ और अपनी आयु पूर्ण करके मर गया फिर वही जीव एक प्रदेश अधिक अवगाहना लेकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया । इस प्रकार एक-एक प्रदेश अधिक की अवगाहनाओं को धारण करते-करते महामत्स्य की उत्कृष्ट अवगाहना पर्यन्त अनेक अवगाहना धारण करता है । इस प्रकार छोटी अवगाहना से लेकर बड़ी अवगाहना पर्यन्त सब अवगाहनाओ को धारण करने में जितना काल लगता है उसे स्वक्षेत्र परिवर्तन कहते है। परक्षेत्र परिवर्तन – जिसका शरीर आकाश के सबसे कम प्रदेशो पर स्थित है ऐसा एक सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव लोक के आठ मध्यप्रदेशो को अपने शरीर के आठ मध्यप्रदेश बनाकर उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण करके मर गया फिर वही जीव पुनः उसी अवगाहना से वहाँ दूसरी बार उत्पन्न हुआ, तीसरी बार उत्पन्न हुआ, इस प्रकार अङ्गुल के असंख्यातवे भाग में आकाश के जितने प्रदेश है उतनी बार वहीं उत्पन्न हुआ । पुनः उसने आकाश का एक-एक प्रदेश बढ़ाकर सब लोक को अपना जन्म क्षेत्र बनाया । इस प्रकार यह सब मिलकर एक परक्षेत्र परिवर्तन होता है । तात्पर्य यह है कि क्षेत्र परिवर्तन रुप संसार में अनेक बार भ्रमण करता हुआ जीव तीनो लोकों में ऐसा कोई भी स्थान नहीं है जहाँ पर अनेक अवगाहनाओं के साथ उत्पन्न न हुआ हो ।
क्षेत्र-पूजा – तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म, आदि पंच – कल्याणक जहाँ-जहाँ हुये हैं उन स्थानों की विधिपूर्वक पूजा करना क्षेत्र -पूजा है ।
क्षेत्र-विपाकी- जिन कर्मों का विपाक अर्थात्फल विग्रह गति के रुप