Jain Darshan Dictionary : क

–क–

 कथा – 1 मोक्ष पुरुषार्थ के लिए उपयोगी होने से धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ का कथन करना कथा कहलाती है । 2 जिससे जीवों को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति होती है वह धर्म कहलाता है । धर्म से संबंध रखने वाली कथा को धर्मकथा या सत्कथा कहते है । 3 प्रथमानुयोग आदि शास्त्र ही धर्मकथा है । आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेगनी और निर्वेगनी – ये चार धर्म-कथा के भेद है ।

कदलीघात-मरण – विष, वेदना, रक्त-क्षय, भय, शस्त्राघात, संक्लेश, अनीति, आहार व श्वास के रोकने आदि किसी बाह्‌य कारण के द्वारा जो सहसा आयु का घात होता है उसे कदलीघात-मरण या अकाल-मृत्यु कहते हैं ।

करण-लब्धि – करण का अर्थ परिणाम है । सम्यग्दर्शन के योग्य परिणामों की प्राप्ति होना करण -लब्धि है । करण-लब्धि भव्य जीवों को ही होती है । करण-लब्धि के अन्तर्गत जीव अध प्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्ति करण रुप तीन करण करता है ।

करणानुयोग – लोक-अलोक के विभाग, युगों के परिवर्तन और चारों गतियों के स्वरुप को बताने वाला शास्त्र करणानुयोग है । इस अनुयोग के कथन का प्रयोजन यह है कि लोक-अलोक आदि के वर्णन में उपयोग रम जाए तो पाप-प्रवृत्ति से छूटकर जीव स्वयमेव धर्म में लग जाएगा । लोक-अलोक का ऐसा सुक्ष्म वर्णन पढ़ने से श्रद्धान में दृढ़ता और परिणामों में निर्मलता आयेगी ।

करुणा-दान – दीन-दुखी जीवों को दयापूर्वक यथायोग्य आहार औषध आदि देना करुणा-दान या दया कहलाता है ।

करेण-किंचित्‌ग्रहण – आहार के समय यदि साधु अपने हाथ से उठा लेता है तो यह करेण-किंचित्‌ग्रहण नाम का अन्तराय कहलाता है ।

कर्म – जीव मन वचन काय के द्वारा प्रतिक्षण कुछ ना कुछ करता है वह सब उसकी क्रिया या कर्म है । कर्म के द्वारा ही जीव परतंत्र होता है और संसार में भटकता है | कर्म तीन प्रकार के हैं – द्रव्य-कर्म, भाव-कर्म और नो-कर्म ।

कर्म-चेतना – ऐसा अनुभव करना कि ‘इसे मैं करता हूँ’ – यह कर्म-चेतना है । वास्तव में, जीव का स्वभाव मात्र जानना देखना है पर कर्म से युक्त जीव ‘पर’ वस्तुओं में करने-धरने रुप विकल्प करता है यही कर्म-चेतना है ।

कर्मप्रवाद – जिसमें कर्मों की बध, उदय, उपशम आदि विविध अवस्थाओं का और स्थिति आदि का वर्णन है वह कर्म-प्रवाद-पूर्व नाम का आठवां पूर्व है |

कर्मफल-चेतना – ऐसा अनुभव करना कि ‘ इसे मैं भोगता हूँ’ यह कर्मफल-चेतना है । अज्ञानी संसारी जीव इन्द्रिय-जनित सुख-दुःख में तन्मय होकर ‘सुखी या दुखी’ – ऐसा अनुभव करता है यही कर्म-फल- चेतना है ।

कर्मभूमि – जहाँ के निवासी खेती व्यापार आदि कर्म करके अपनी आजीविका चलाते है उसे कर्मभूमि कहते हैं । कर्मभूमि कहते है । कर्मभूमि में जीव दान पुण्य आदि धर्म कार्य कर सकते हैं और संयम धारण करके मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं । तीर्थकर आदि सभी महापुरुष कर्म-भूमि में ही उत्पन्न होते हैं । अढ़ाई द्वीप में पाँच भरत, पाँच ऐरावत और पाँच विदेह संबंधी पंद्रह कर्मभूमिया हैं ।

कर्माहार – नारकी जीवों के आहार को कर्माहार कहते हैं ।

कल्की – साधुजनों पर अत्याचार करने वाले धर्मद्रोही राजा को कल्की कहते हैं। अवसर्पिणी के पंचमकाल में प्रत्येक एक हजार वर्ष के बाद एक-एक कल्की का जन्म होता है तथा प्रत्येक पाँच सौ वर्ष के बाद एक-एक उपकल्की जन्म लेता है । इस प्रकार पूरे पंचमकाल में इक्कीस कल्की और उतने ही उपकल्की धर्मात्माओं पर अत्याचार करने के कारण प्रथम नरक जाते है । प्रत्येक कल्की के समय में साधु-संघ अत्यन्त अल्प रह जाता है । अंतिम कल्की के समय मात्र एक साधु, एक आर्यिका, एक श्रावक और एक श्राविका शेष रहते है जो समाधि-मरण ग्रहण करके स्वर्ग जाते है । इसके उपरान्त धर्म-कर्म से शून्य दुःख मा-दुःख मा नामक छ्ठा काल प्रारम्भ होता है ।

कल्प-काल – दश कोड़ाकोड़ी सागर प्रमाण अवसर्पिणी और उतना ही उत्सर्पिणी, ये दोनों मिलकर अर्थात्‌बीस कोड़ा-कोड़ी सागर प्रमाण एक कल्प-काल होता है ।

कल्पद्रुम-पूजा – चक्रवर्ती के द्वारा किमिच्छ्क-दान अर्थात्‌सभी को इच्छानुरुप दान देकर जो भगवान् जिनेन्द्र की पूजा की जाती है उसे कल्पद्रुम पूजा कहते हैं ।

 कल्पवासी-देव – इन्द्र सामानिक आदि भेद युक्त देव जहाँ रहते हैं उसे कल्प कहते हैं । अतः कल्प में उत्पन्न होने वाले देवों को कल्पवासी देव कहा जाता है । सभी सोलह स्वर्गों के देव कल्पवासी हैं ।

कल्पवृक्ष – जो जीवों को अपनी-अपनी मनवांछित वस्तुऐं दिया करते हैं वे कल्पवृक्ष कहलाते हैं । भोगभूमि में पानांग, तूर्याग, भूषणाग, वस्त्राग, भोजनाग, आलयाग, दीपाग, भाजनाग, मालाग और तेजाग आदि कल्पवृक्ष होते हैं ।

कल्पातीत-देव – इन्द्र सामानिक आदि भेद से रहित देव कल्पातीत-देव कहलाते हैं । सोलह स्वर्ग से ऊपर नो ग्रैवेयक, नो अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमानो में सभी कल्पातीत-देव हैं ।

कल्पव्यवहार – जिसमें साधुओं के योग्य आचरण का और अयोग्य आचरण होने पर प्रायश्चित विधि का वर्णन है वह कल्प व्यवहार नामक अङ्ग्बाह्‌य श्रुत है ।

कल्प्याकल्प्य – ” द्रव्य,क्षेत्र , काल और भाव की अपेक्षा मुनियों के लिए यह योग्य है, और यह अयोग्य है” , – इस तरह इन सबका वर्णन करने वाला कल्प्याकल्प नामक अङ्गबाह्‌य श्रुत है ।

कल्याणक – तीर्थंकरों के जीवन में पाँच प्रसिद्ध अवसर ऐसे आते हैं जो जगत्‌के लिए कल्याणकारी होते हैं इन्हें ही पंचकल्याणक कहते है। गर्भ-कल्याणक, जन्म-कल्याणक, दीक्षा-कल्याणक, ज्ञान-कल्याणक और मोक्ष-कल्याणक – ये पाँच कल्याणक हैं । भरत और ऐरावत क्षेत्र में पाँचों कल्याणक वाले तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं । विदेह क्षेत्र में दो या तीन कल्याणक वाले तीर्थंकर भी होते हैं ।

कल्याणवाद-पूर्व – जिसमें सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र और तारा गणों के गमन-क्षेत्र , उपपाद-स्थान, अनुकूल-प्रतिकूल गति तथा उसके फल का, पक्षियों के शब्दों का एवं तीर्थंकर के पंच कल्याणकों का वर्णन किया गया है वह कल्याणवाद-पूर्व नाम का ग्यारहवाँ पूर्व है ।

कवलाहार – मनुष्य और तिर्यंचों के द्वारा कवल अर्थात्‌ग्रास के रुप में जो साहार मुख से ग्रहण किया जाता है वह कवलाहार है । यह खाद्‌य, स्वाद्य, लेह्‌य और पेय – ऐसे चार प्रकार का है ।

कषाय – आत्मा में होने वाली क्रोधादि रुप कलुषता को कषाय कहते हैं । क्रोध, मान. माया और लोभ रुप चार कषायें है ।

कषाय-समुद्‌घात – बाह्य निमित्त पाकर कषाय की तीव्रता में जीव के आत्म-प्रदेश शरीर से तिगुने फैल जाते हैं यह कषाय-समुद्‌घात है ।

काक – आहार के लिए जाते समय या आहार करते समय साधु के ऊपर कौआ आदि पक्षी बीट कर दे तो यह काक नाम का अन्तराय है ।

काकादि-पिण्ड-हरण – आहार करते समय कौआ आदि पक्षी साधु के हाथ से ग्रास उठा ले जाए तो यह काकादि-पिण्ड-हरण नाम का अन्तराय है ।

कापोत-लेश्या – ईर्ष्या करना, चुगली करना, दूसरे का अपमान करना, आत्म-प्रशंसा करना, दूसरों की निन्दा करना, अपनी प्रशंसा सुनकर संतुष्ट होना, युद्ध में मरने की इच्छा रखना और कर्तव्य-अकर्तव्य को नहीं पहचानना – ये सब कापोत लेश्या के लक्षण हैं ।

कामदेव – चौबीस तीर्थंकरों के समय में अनुपम सौंदर्य को धारण करने का है – निश्चय-काल और व्यवहार- काल ।

काल-परिवर्तन – कोई जीव उत्सर्पिणी काल के प्रथम समय में उत्पन्न हुआ व आयु पूर्ण होने पर मर गया फिर वह भ्रमण करके द्वितीय उत्सर्पिणी काल के द्वितीय समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण होने पर मर गया, फिर वह भ्रमण करके तृतीय समय में उत्पन्न हुआ और आयु पूर्ण होने पर मर गया, इस प्रकार क्रम से उसने उत्सर्पिणी काल के प्रत्येक समय में जन्म लिया और फिर क्रम से अवसर्पिणी काल पूरा किया । अर्थात्‌उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी-काल के बीस कोड़ा-कोड़ी सागर के जितने समय है उनमे क्रमशः उत्पन्न हुआ और क्रमशः मरण भी किया। यह सब मिलकर एक काल-परिवर्तन है । तात्पर्य यह है कि काल-परिवर्तन रुप संसार में भ्रमण करता हुआ यह जीव उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल के संपूर्ण समयों में अनेक बार जन्म धारण करता है और मरता है ।

काल-पूजा – तीर्थंकरों के पंचकल्याणक की तिथियाँ तथा अन्य दसलक्षण आदि पर्व के दिनों को निमित्त बनाकर जो पूजा की जाती है वह काल-पूजा है ।

काल-लब्धि – सम्यग्दर्शन की प्राप्ति में काल लब्धि आदि बहिरंग कारण और करण लब्धि रुप अंतरंग कारण होना अनिवार्य है । तीन प्रकार की काल लब्धि मानी गयी है – प्रत्येक भव्यात्मा अर्धपुद्‌गल परिवर्तन काल शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है इससे अधिक काल शेष रहने पर नहीं होता, यह संसार-स्थिति संबंधी प्रथम काल -लब्धि है । उत्कृष्ट या जघन्य स्थिति वाले कर्मॊ के शेष रहने पर प्रथम सम्यक्त्व का लाभ नहीं होता बल्कि जब बंधने  वाले कर्मों की स्थिति अतः कोड़ा-कोड़ी सागर होती है और विशुद्ध परिणामों के फलस्वरूप सत्ता में स्थित कर्मों की स्थिति संख्यात हजार सागर कम अत कोड़ा-कोड़ी सागर रह जाती है, तब यह जीव प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य होता है, यह कर्म-स्थिति संबंधी द्वितीय काललब्धि है । जो जीव भव्य है, संज्ञी, पंचेन्द्रिय,पर्याप्तक है और सर्वविशुद्ध है वह प्रथम सम्यक्त्व ग्रहण करने योग्य है, यह भव संबंधी तीसरी काल-लब्धि है ।

काल-सामायिक – ग्रीष्म आदि किसी भी ऋतु के आने पर उसमें राग-द्वेष नहीं करना समता-भाव रखना काल-सामायिक है ।

काल-स्तव – तीर्थंकरों के गर्भ, जन्म आदि पंच-कल्याणकों की शुभ क्रियाओं से जो महत्ता को प्राप्त हो चुका है ऐसे काल का वर्णन करना काल-स्तव है ।

कालाचार – स्वाध्याय के योग्य काल में ही शास्त्र का पठन-पाठन आदि करना कालाचार या काल-शुद्धि है ।

कालोदधि – मध्यलोक का द्वितीय समुद्र । यह कृष्णवर्ण का है और घातकीखण्ड द्वीप को सब ओर से घेरे हुए है । इसमें चौबीस द्वीप अभ्यन्तर सीमा में और चौबीस बाह्य सीमा में हैं । इन सभी द्वीपों में हाथी, घोड़ा, ऊँट आदि के समान आकृति वाले कुभोगभूमिज मनुष्य रहते हैं ।

कीलक-सहनन – जिस कर्म के उदय से शरीर में हड्डियों की संधिया कील आदि के बिना मात्र परस्पर जुड़ी रहती हैं वह कीलक-सहनन नामकर्म कहलाता है ।

 कुगुरु – आरंभ और परिग्रह में सलग्न साधु तथा पाखण्डी वेषधारी साधु कुगुरु कहलाते हैं ।

कुदेव – जो देव अपने साथ स्त्री, अस्त्र-शस्त्र, वस्त्र आदि परिग्रह रखते हैं एवं रागद्वेष से दूषित होकर शाप और वरदान देते हैं वे कुदेव कहलाते हैं ।

कुधर्म – जिस धर्म या धर्मग्रन्थ में हिंसादि पापाँचरण को धर्म माना गया हो उसे कुशास्त्र या कुधर्म कहते हैं ।

कुंथुनाथ – सत्रहवे तीर्थंकर और छ्ठे चक्रवर्ती । हस्तिनापुर के कौरववंशी महाराज सूरसेन और रानी श्रीकान्ता के यहाँ जन्म लिया । इनकी आयु पंचानवे हजार वर्ष थी । शरीर की ऊँचाई पैंतीस धनुष और आभा स्वर्ण के समान थी । चक्रवर्ती का विपुल-वैभव त्याग कर एक दिन दिगम्बर दीक्षा अङ्गीकार कर ली । सोलह वर्ष तक कठिन तपस्या के उपरान्त केवल ज्ञान प्राप्त किया । इनके चतुर्विध संघ में स्वंयभू आदि पैंतीस गणधर, साठ हजार मुनि, साठ हजार तीन सौ पचास आर्यिकाएं, तीन लाख श्राविकाएं और दो लाख श्रावक थे । इन्होंने सम्मेद शिखर से निर्वाण प्राप्त किया ।

कुब्जक-संस्थान – जिस कर्म के उदय से जीव का शरीर कुबड़ा होता है । उसे कुब्जक-शरीर-संस्थान नामकर्म कहते हैं ।

कुल -1 दीक्षा देने वाले आचार्य की शिष्य परंपरा को कुल कहते है। 2 पिता की वंश परंपरा को कुल कहते हैं ।

कुलकर – कर्मभूमि के प्रारंभ में आर्य पुरुषों को कुल या कुटुम्ब की भांति इकट्‌ठे रहकर जीने का उपदेश देने वाले महापुरुष कुलकर कहलाते हैं । प्रजा के जीवन-यापन का उपाय जानने से ये मनु भी कहलाते हैं । प्रत्येक अवसर्पिणी के तीसरे और उत्सर्पिणी के दूसरे काल में चौदह कुलकर होते है । ये सभी क्षायिक सम्यग्दृष्टि होते है । इसमें किसी को जातिस्मरण और किसी को अवधिज्ञान होता हैं ।

कुशील – कामसेवन में आसक्त होना कुशील है । अथवा शील का अर्थ स्वभाव है अतः अपने आत्म-स्वभाव से विचलित होना कुशील है ।

कुशील साधु – यह निर्ग्रन्थ साधु का एक भेद है । कुशील नामक निर्ग्रन्थ साधु दो प्रकार के हैं – कषाय कुशील और प्रतिसेवना कुशील । जिन्होंने अन्य सभी कषायो को जीत लिया है जो केवल सज्वलन कषाय के अधीन हैं ऐसे निर्ग्रन्थ साधु कषाय-कुशील कहलाते हैं । जो मूलगुण और उत्तर गुणों से परिपूर्ण है लेकिन कभी उत्तरगुणों की विराधना जिनसे हो जाती है ऐसे निर्ग्रन्थ साधु प्रतिसेवना-कुशील कहलाते हैं ।

कृत – स्वयं अपने द्वारा किया गया कार्य कृत कहलाता है ।

कृतिकर्म -1 अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य और बहुश्रुतवान्‌साधु की वंदना करते समय जो विनय आदि क्रिया की जाती है उसे कृतिकर्म कहते हैं । 2 जिसमें अर्हन्त, सिद्ध, आचार्य और साधु की पूजा विधि का वर्णन है वह कृतिकर्म नाम का अङ्गबाह्य है ।

कृष्ण-लेश्या – कृष्ण-लेश्या से युक्त दुष्ट पुरुष अपने ही गोत्रीय बधु और एकमात्र पुत्र को भी मारने की इच्छा करता है । दुराग्रह, तीव्र, वेर, अतिक्रोध, निर्दयता, क्लेश, संताप, हिंसा, असंतोष  आदि तामस-भाव कृष्ण-लेश्या के लक्षण हैं ।

केवलज्ञान – जो सकल चराचर जगत्‌को दर्पण में झलकते प्रतिबिंब की तरह एक साथ स्पष्ट जानता है वह केवलज्ञान है । यह ज्ञान चार घातिया कर्मों के नष्ट होने पर आत्मा में उत्पन्न होता है ।

केवलदर्शन – समस्त आवरण का क्षय होने से जो सर्व चराचर जगत्‌का सामान्य प्रतिभास होता है उसे केवल-दर्शन कहते हैं । केवलज्ञान और केवलदर्शन क्रमशः न होकर एक साथ ही होते हैं । केवलि-अवर्णवाद – ” केवली भगवान् कवलाहार करते हैं, कम्बल व भिक्षा-पात्र ग्रहण करते है उनके ज्ञान व दर्शन एक साथ न होकर क्रमशः होते हैं तथा वे नग्न होते हुए भी वस्त्राभूषण से आभूषित दिखाई देते हैं ” – इस प्रकार केवली भगवान् के विषय में मिथ्या कथन करना केवलि-अवर्णवाद है ।

केवलि-समुद्‌घात – आयुकर्म की स्थिति अल्प और वेदनीय कर्म की स्थिति अधिक होने उसे आयु के समान करने के लिए केवली भगवान्‌के आत्म-प्रदेश मूल शरीर से बाहर फैलते हैं इसे केवलि-समुद्‌घात कहते हैं । जैसे- दूध में उबाल आकर शांत हो जाता है उसी प्रकार यह प्रक्रिया होती है । यह समुद्‌घात दंड, कपाट, प्रतर व लोकपूरण – इन चार अवस्थाओं में क्रमशः पूर्ण होता है ।

केवली – चार घातिया कर्मों के क्षय होने से जिन्हे केवलज्ञान प्राप्त हो गया है वे केवली कहलाते हैं । इन्हे अर्हन्त भी कहते हैं । केवली दो प्रकार के हैं – संयोग-केवली और अयोग-केवली। केवली भगवान् जब तक विहार और उपदेश आदि क्रियाएं करते हैं तब तक संयोग-केवली कहलाते हैं । आयु के अंतिम कुछ क्षणों में जब इन क्रियाओ का त्याग करके योग-निरोध कर लेते हैं तब वे अयोग-केवली कहलाते हैं । तीर्थंकर-केवली, सातिशय-केवली, मूक-केवली, उपसर्ग-केवली, अन्तकृत-केवली और सामान्य केवली – ऐसे केवली के छ्ह भेद हैं ।

केशलौंच – जीवन पर्यन्त निश्चित अवधि के उपरान्त अपने सिर, दाढ़ी और मूछ के बालों को बिना खेद के शान्त-भाव से उखाड़ कर अलग कर देने की प्रतिज्ञा लेना यह साधु का केशलौंच नाम का मूलगुण है । इसे अधिकतम चार महीने के अंतराल में करना अनिवार्य है । केशलौंच के दिन उपवास भी किया जाता है ।

कैलाश-पर्वत – यह तीर्थंकर ऋषभदेव की निर्वाणभूमि है । चक्रवर्ती भरत ने यहाँ महारत्नो से निर्मित चौबीस जिनालय बनवाये थे । पाँच सौ धनुष ऊँची भगवान् ऋषभदेव की प्रतिमा भी उन्होंने यहीं स्थापित करायी थी ।

कोड़ाकोड़ी – एक करोड़ में एक करोड़ का गुणा करने पर जो राशि प्राप्त होती है उसे एक कोड़ाकोड़ी या एक कोटाकोटी कहते हैं ।

कोष्ठ-बुद्धि – उत्कृष्ट धारणा ज्ञान से युक्त जो साधु गुरु के उपदेश से अनेक प्रकार के ग्रंथो में से शब्द रुपी बीज-पदों को अपने बुद्धि रुपी कोठे में धारण कर लेते हैं उनकी बुद्धि को कोष्ठ बुद्धि कहा जाता है । यह एक ऋद्धि है ।

क्रियाविशाल – जिसमें लेखन कला आदि बहत्तर कलाओं का, स्त्री संबंधी चौसठ गुणों का, काव्य-संबंधी गुण-दोष-विधि का और छद निर्माण कला का विवेचन है वह क्रिया-विशाल-पूर्व नाम का तेरहवां पूर्व है ।

क्रीत-दोष – अपनी गाय आदि किसी वस्तु को देकर बदले में आहार सामग्री लेकर साधु को देना क्रीत-दोष है ।

क्रोध – अपने और दूसरे के घात या अहित करने रुप क्रूर परिणाम को क्रोध कहते हैं । वह पर्वत रेखा, पृथ्वी रेखा, धूली रेखा और जल रेखा के समान चार प्रकार का है ।

क्रोध-दोष – दाता के सामने क्रोध प्रगट करके यदि साधु आहार प्राप्त करता है तो यह क्रोध नामक दोष है ।

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