lavan samudra

लवण समुद्र–Lavan Samudra

लवण समुद्र जम्बूद्वीप को घेरे हुए २ लाख योजन व्यासवाला लवणसमुद्र है। उसका पानी अनाज के ढेर के समान शिखाऊ ऊँचा उठा हुआ है। बीच में गहराई १००० योजन की है। समतल से जल की ऊँचाई अमावस्या के दिन ११००० योजन की रहती है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से बढ़ते-बढ़ते…

भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या

भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या आर्य सर्वगुप्त के शिष्य आचार्य शिकोटि (अपरनम शिभूति अथवा शिवार्य, प्रथम सदी ईस्वी के आसपास) द्वारा विरचित २१७० गाथा प्रमाण ‘भगवती आराधना’ (Bhagwati Aaradhana) (अपरनाम मूलारधना) नामक ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत के महिमामण्डित-ग्रन्थ वस्तुत: ज्ञान-विज्ञान का अद्भूत विश्व-कोष माना जा सकता है। उसमें वर्णित…

Tirthankaro ki parampara ka kaal

Tirthankaro ki parampara ka kaal

तीर्थंकरों की परम्परा का काल तृतीयकाल में तीन वर्ष, साढ़े आठ माह के अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए। ऋषभदेव के मुक्त होने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर के बीत जाने पर अजितनाथ मुक्ति को प्राप्त हुए। इनके बाद तीस लाख करोड़ सागर बीत जाने पर संभवनाथ…

Jain Shastra

Tantra Mantra In Jain Shastra

जैनशास्त्रों (Jain Shastra) में तन्त्र-मन्त्रों के उल्लेख जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहइ। तस्स भुवनेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स[१]।।  लोक में जितने प्रकार के पूजा—पाठ अथवा विधि—विधान पाये जाते हैं, वे सब तन्त्र हैं। तन्त्र के लिये यन्त्र और मन्त्र की आवश्यकता होती है। उनके अभाव में तन्त्र—सिद्धि में पूर्णता…

Acharya UmaSwami And Tattvarthasutra (तत्त्वार्थसूत्र)

आचार्य उमास्वामी एवं उनका तत्त्वार्थसूत्र (Tattvarthasutra) Download Tattvarthasutra In English And Hindi Tattvarthasutra ‘‘तत्त्वार्थसूत्र’’ के रचयिता आचार्य उमास्वामी मूलसंघ “Acharya UmaSwami” के चमकते हुए रत्न थे। भगवद् कुन्दकुन्दाचार्य के पश्चात् वही एक ऐसे आचार्य हैं जो प्राचीन और सर्वमान्य हैं। भगवद् कुन्दकुन्द के समान उमास्वामी भी दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों…

surya namaskar

Chakravarti–चक्रवर्ती के द्वारा सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन

चक्रवर्ती  (Chakravarti) के द्वारा सूर्य के जिनबिम्ब का दर्शन जब सूर्य पहली गली में आता है तब अयोध्या नगरी के भीतर अपने भवन के ऊपर स्थित चक्रवर्ती (Chakravarti) सूर्य विमान में स्थित जिनबिम्ब का दर्शन करते हैं। इस समय सूर्य अभ्यंतर गली की परिधि ३१५०८९ योजन को ६० मुहूर्त में…

SAMYAKDARSDHAN

SAMYAKDARSHAN

सम्यग्दर्शन  सच्चे देव, सच्चे शास्त्र और सच्चे गुरु का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है। यह आठ अंग से सहित होता है तथा इन अंगों के उल्टे शंकादि आठ दोष, आठ मद, छह अनायतन और तीन मूढ़ता इन पच्चीस दोषों से रहित होता है अथवा छह द्रव्य, पांच अस्तिकाय, सात तत्त्व और…

jain bhugol

जैन भूगोल (Jain Cosmology) मे दूरी नापने के परिमाण

जिनवाणी के करणानुयोग विभाग में जैन भूगोल की जानकारी आती है । जैन भूगोल अतिप्राचीन होने से उसमें कथित परिमाणों (जैसे हाथ, गज, योजन, कोस) को आज के परिमाण के सम्बन्ध से समझ लेना चाहिए । इस विषय से जुड़े हुए कुछ प्रश्न प्रस्तुत है जैन भूगोल मे दूरी नापने…

pt banarsi das

PT. BANARSI DAS

PT. BANARSI DAS (1586—1643) The great spiritualist genius poet Pt. Banarsi Das was born at Jaunpur (U.P.). His grand-father Shri Mool Das was a scholar of Hindi and Persian. Nawab of Narwar had appointed him his Modi. After his death the Nawab took away all his property and his wife…

jain puja

अष्टद्रव्य (Ashta Dravya) से पूजा

अष्टद्रव्य से पूजा भगवान की अष्टद्रव्य से पूजा करते समय चरणों में चंदन लगाना। फूल,फल, दीप, धूप वास्तविक लेना ऐसा विधान है प्रमाण देखिये- जल से पूजन करने का फल पसमइ रयं असेसं, जिणपयकमलेसु, दिण्णजलधारा।भिंगारणालणिग्गय, भवंतभिंगेहि कव्वुरिया।। प्रशमति रज: अशेषं, जिनपदकमलेषु दत्तजलधारा। भृंगारनालनिर्गता, भ्रमद्भृंगै: कर्बुरिता।।४७०।।१ अर्थ– सबसे पहले जल की…

Jain Acharya

जैनाचार्यों (Jain Acharya) द्वारा प्रणीत ग्रंथों में विज्ञान(Science) के तत्त्व

जैनाचार्यों  (Jain Acharya’s ) द्वारा प्रणीत ग्रंथों में विज्ञान के तत्त्व जैनाचार्यों (Jain Acharya ) द्वारा ज्ञान—विज्ञान के विविध क्षेत्रों में सहस्त्रों ग्रंथों का सृजन किया गया है। इनमें से कुछ प्रकाशित हो चुके हैं एवं शेष अद्यतन पांडुलिपियों में संरक्षित है अथवा नष्ट हो चुके हैं। प्रस्तुत लेख में…

anekantavada

Anekantavada In Jainism

जैन दर्शन में अनेकान्त (Anekantavada) और स्याद्वाद मध्य प्रदेश संस्कृत अकादेमी, भोपाल द्वारा चातुर्मास सेवा समिति, इन्दौर के सहयोग से अ. भा. अनेकान्त संगोष्ठी, इन्दौर में १६—१७ नवम्बर ९६ को आयोजित की गई थी। यह आलेख इसी संगोष्ठी के प्रसंग पर मूर्घन्य जैन विद्वान पं. नाथूराम ‘डोंगरीय’ जैन द्वारा लिखा गया…