जैन— परम्परासम्मत ‘ओम’ का प्रतीक चिन्ह अरहंता असरीरा आइरिया तह उवज्झया मुणिणो। पढमक्खरणिप्पणो ओंकारो पंचपरमेष्ठी।। जैनागम में अरिहंन्त, सिद्ध आचार्य, उपाध्याय एवं साधु यानी मुनिरूप पाँच परमेष्ठी ही आराध्य माने गये हैं। इनके आद्य अक्षरों को परस्पर मिलाने पर ‘ओम्’ ‘ओं’ बन जाता है। यथा, इनमें से पहले परमेष्ठी ‘अरिहंत’…
Earth in Jainism
भू-भ्रमण का खण्डन (श्लोकवार्तिक तीसरी अध्याय के प्रथम सूत्र की हिन्दी से) कोई आधुनिक विद्वान कहते हैं कि जैनियों की मान्यता के अनुसार यह पृथ्वी “Earth” वलयाकार चपटी गोल नहीं है। किन्तु यह पृथ्वी “Earth” गेंद या नारंगी के समान गोल आकार की है। यह भूमि स्थिर भी नहीं है। हमेशा…
Samavsaran
समवसरण की महिमा श्रीमते वर्धमानाय, नमो नमित विद्वषे। यज्ज्ञानान्तर्गतं भूत्वा, त्रैलोक्यं गोष्पदायते।। जो भव्य जीव हैं, जो महापुरुष संसार में रहते हुए सम्यग्दृष्टि बन करके सोलहकारण भावनाओं को भाते हैं। तीर्थंकर केवली भगवन्तों के पादमूल में या श्रुतकेवली के पादमूल में दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तन करते हैं, उस…
आगम में वर्ण-गोत्र आदि की स्थिति
आगम के आलोक में वर्ण-गोत्र आदि की स्थिति इस हुण्डावसर्पिणी काल में भगवान आदिनाथ ने जिस समय वर्णों का विधान किया था, उस समय जीवों के पिण्ड की अशुद्धता रूप संकरता नहीं थी अर्थात् पिण्ड शुद्ध ही था। शनै: शनै: जब विषयासक्ति और विलासिता बढ़ी तो विवेकहीन कामान्ध मानवों ने…
इस जंबूद्वीप में हम कहाँ हैं ?
यह भरतक्षेत्र जंबूद्वीप के १९० वें भाग (५२६-६/१९ योजन) प्रमाण है। इसके छह खंड में जो आर्यखंड है उसका प्रमाण लगभग निम्न प्रकार है। दक्षिण का भरतक्षेत्र २३८-३/१९ योजन का है। पद्मसरोवर की लम्बाई १००० योजन है तथा गंगा-सिंधु नदियां ५-५ सौ योजन पर्वत पर पूर्व-पश्चिम बहकर दक्षिण में मुड़ती…
द्वादशांग जिनवाणी–Dwadshang Jinwani
द्वादशांग जिनवाणी को ग्रंथरूप में नहीं लिखा जा सकता (दिगम्बर जैन परम्परा में भगवान महावीर के बाद ६८३ वर्ष तक ही द्वादशांग श्रुत एवं उसके ज्ञाता आचार्य रहे हैं) जैन वाङ्गमय द्वादशांगरूप है और दिगम्बर जैन परम्परा के अनुसार आज द्वादशांग उपलब्ध नहीं हैं क्योंकि द्वादशांग लिखे ही नहीं जा…
Pandit Ashadhar–पं.आशाधर
पं. आशाधर : व्यक्तित्व एवं कृतित्व अभिषेक जैन १२वीं श. ईसवी के बहुश्रुत एवं प्रतिभाशाली जैन विद्वान पं. आशाधर जी ने वांगमय की श्री वृद्धि में अतुलनीय योगदान दिया है। प्रस्तुत लेख में लेखक ने उनके जीवन के विविध पहलुओं की विेवेचना के साथ ही उनकी प्रकाशित एवं अप्रकाशित कृतियों का…
कुभोगभूमि में जन्म लेने के कारण
मिथ्यात्व में रत, मन्दकषायी, मिथ्यादेवों की भक्ति में तत्पर, विषम पंचाग्नि तप करने वाले, सम्यक्त्व रत्न से रहित जीव मरकर कुमानुष होते हैं। जो लोग तीव्र अभिमान से गर्वित होकर सम्यक्त्व और तप से युक्त साधुओं का किंचित् अपमान करते हैं, जो दिगम्बर साधु की िंनदा करते हैं, ऋद्धि-रस आदि…
लवण समुद्र–Lavan Samudra
लवण समुद्र जम्बूद्वीप को घेरे हुए २ लाख योजन व्यासवाला लवणसमुद्र है। उसका पानी अनाज के ढेर के समान शिखाऊ ऊँचा उठा हुआ है। बीच में गहराई १००० योजन की है। समतल से जल की ऊँचाई अमावस्या के दिन ११००० योजन की रहती है। शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से बढ़ते-बढ़ते…
भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या
भगवती आराधना (Bhagwati Aaradhana) में वर्णित आयुर्वेद-विद्या आर्य सर्वगुप्त के शिष्य आचार्य शिकोटि (अपरनम शिभूति अथवा शिवार्य, प्रथम सदी ईस्वी के आसपास) द्वारा विरचित २१७० गाथा प्रमाण ‘भगवती आराधना’ (Bhagwati Aaradhana) (अपरनाम मूलारधना) नामक ग्रन्थ शौरसेनी प्राकृत के महिमामण्डित-ग्रन्थ वस्तुत: ज्ञान-विज्ञान का अद्भूत विश्व-कोष माना जा सकता है। उसमें वर्णित…
Tirthankaro ki parampara ka kaal
तीर्थंकरों की परम्परा का काल तृतीयकाल में तीन वर्ष, साढ़े आठ माह के अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेव मुक्ति को प्राप्त हुए। ऋषभदेव के मुक्त होने के पश्चात् पचास लाख करोड़ सागर के बीत जाने पर अजितनाथ मुक्ति को प्राप्त हुए। इनके बाद तीस लाख करोड़ सागर बीत जाने पर संभवनाथ…
Tantra Mantra In Jain Shastra
जैनशास्त्रों (Jain Shastra) में तन्त्र-मन्त्रों के उल्लेख जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वहइ। तस्स भुवनेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स[१]।। लोक में जितने प्रकार के पूजा—पाठ अथवा विधि—विधान पाये जाते हैं, वे सब तन्त्र हैं। तन्त्र के लिये यन्त्र और मन्त्र की आवश्यकता होती है। उनके अभाव में तन्त्र—सिद्धि में पूर्णता…